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केशलोंच
कोकिल पंचमी व्रत
जूलिखादिकका परस्पर मर्दन होनेसे नाश होता है। ऐसे दोषों से बचनेके लिए मुनि आगमानुसार केशलौच करते हैं। पं. वि /१/४२ काकिण्या अपि संग्रहो न विहितः क्षौरं यया कार्यते चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपिवा तत्सिद्धये नाश्रितम। हिंसाहेतुरहो जटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनै । वैराग्यादिविवर्धनाय यतिभि केशेषु लोचः कृतः।४।-मुनिजन कौडी मात्र भी धनका संग्रह नहीं करते जिससे कि मुण्डनकार्य कराया जा सके; अथवा उक्त मुण्डन कार्यको सिद्ध करनेके लिए वे उस्तरा या कैंची आदि औजारका भी आश्रय नहीं लेते, क्योंकि उनसे चित्तमें क्षोभ उत्पन्न होता है। इससे वे जटाओंको धारण कर लेते हों सो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें उनके उत्पन्न होनेवाले जू आदि जन्तुओंकी हिंसा नही टाली जा सकती है। इसलिए अयाचन वृत्तिको धारण करनेवाले साधुजन वैराग्यादि गुणोंको बढ़ानेके लिए बालोंका लोच किया करते हैं।
१. केशलोंच सर्वदा आवश्यक ही नहीं ति.प./8/२३ आदिजिणप्पडिमाओ ताओ जडमउडसेहरिल्लाओ। पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तु मणा व सा पउदि ।२३०१ =वे आदि जिनेन्द्रकी प्रतिमाएँ जटामुकुट रूप शेखरसे सहित हैं। इन प्रतिमाओंके ऊपर वह गंगा नदी मानो मनमें अभिषेककी भावनाको रखकर ही गिरती है। प. पु./३/२८७-२८८ ततो वर्षार्द्धमात्र स कायोत्सर्गेण निश्चल'। धरा
धरेन्द्रवत्तत्स्थी कृतेन्द्रियसमस्थितिः।२८७१ वातोद्धृता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तयः। धूमात्य इव सध्यानवह्निसक्तस्य कर्मणः ।२८८ - तदनन्तर इन्द्रियों की समान अवस्था धारण करनेवाले भगवान ऋषभदेव छह मास तक कायोत्सर्गसे सुमेरु पर्वतके समान निश्चल खड़े रहे ।२८७ हवासे उड़ी हुई उनकी अस्त-व्यस्त जटाएँ ऐसी जान पडती थीं मानो समीचीन ध्यानरूपी अग्निसे जलते हुए कर्मके धूमकी पंक्तियाँ ही हो ।२८। (म.पु./९/९); (म.पु./१८/७५-७६); (पं.वि. १३/१८)। प. पु./४/५ मेरुकूटसमाकारभासुरांस. समाहितः । स रेजे भगवान दीर्घजटाजालहतांशुमान् । उनके कन्धे मेरु पर्वतके शिखरके समान ऊँचे तथा देदीप्यमान थे, उनपर बड़ी-बड़ी जटाएँ किरणोंकी भॉति सुशोभित हो रही थीं और भगवान् स्वयं बडी सावधानीसे ईर्या
समितिसे नीचे देखते हुए विहार करते थे। म. पु./३६/१०६ दधानः स्कन्धपर्यन्तलम्बिनीः केशवल्लरीः। सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ।१०।-कन्धों पर्यन्त लटकती हुई केशरूपी लताओंको धारण करनेवाले वे बाहुबली मुनिराज अनेक काले सर्पोके समूहको धारण करनेवाले हरिचन्दन वृक्षक। अनुकरण कर रहे थे। * भगवान्को जटाएँ नहीं होती -दे०/चेत्य/१/१२ । ५. भगवान् आदिनाथने भी प्रथम बार केशलोंच किया
होइ ण सुहे य संगमुवयादि । साधीणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा ६१ आणविदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसड्ढा च । उग्गो तबो य लोचो तहेब दुक्खस्स सहणं च ।।२। - शिरोमुंडन होनेपर निर्विकार प्रवृत्ति होती है। उससे वह मुक्तिके उपायभूत रत्नत्रयमे खूब उद्यमशील बनता है, अतः लौच परम्परा रत्नत्रयका कारण है। केशलौंच करनेसे और दुख सहन करनेकी भावनासे, मुनिजन आत्माको स्ववश करते हैं, सुखोंमें वे आसक्ति नहीं रखते है। लौच करनेसे स्वाधीनता तथा निर्दोषता गुण मिलता है तथा देहममता नष्ट होती है ।१०-११श इससे धर्मके-चारित्रके ऊपर बड़ी भारी श्रद्धा व्यक्त होती है। लौच करनेवाले मुनि उग्रतप अर्थात कायक्लेश नामका तप करके होनेवाला दुख सहते है । जो लौच करते है उनको दुःख सहनेका अभ्यास हो जाता है ।। * शरीरको पीडाका कारण होनेसे इससे पापात्रव होना चाहिए-दे० तप/५। * केशलोच परीषह नहीं है-दे० परीषह/३ । केशव-म.पू./सर्ग/श्लोक पूर्व विदेहमें महावत्स देशकी सुसीमा नगरीके राजा सुविधिका पुत्र था (१०/१४५) पूर्वभवके संस्कारसे पिताको (भगवाद ऋषभका पूर्व भव ) विशेष प्रेम था (१०/१४७)। अन्तमे दीक्षा धारणकर अच्युत स्वर्गमें प्रतीन्द्र हुआ (१०/१७१) । यह श्रेयांस राजाका पूर्वका पाँचवा भव है। -दे० श्रेयांस । केशव वणी-१. यह ब्रह्मचारी थे। कृति-गोम्मटसारकी संस्कृत टीका (लघु गो.सा./प्र./१ मनोहर लाल) १२. गुरुका नाम अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती । कृति-गोम्मटसारको कर्णाटक वृत्ति समय-वि. १४१६ ई. १३५६ में वृत्ति पूरी की। (जै./१/४६४)।
केशव सेन-आप एक कवि थे। कृति-कर्णामृतपुराण । समय
वि सं. १६८८ ई. १६३१ ।(म.पु./प्र. २० पं. पन्नालाल )। केशाग्र-क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष । अपरनाम बालाग्र-दे०
गणित/i/१। केशावाप क्रिया-दे० संस्कार/२ । केसरोहद-नील पर्वतस्थ एक हृद। इसमेसे सीता व नरकान्ता नदियों निकलती हैं। कोर्तिदेवी इसमें निवास करती है। दे० लोक/३/६ कैकेय देश-दे० केकय ।। कैटभ-म. पु/सर्ग/श्लोक अयोध्या नगरीमें हेमनाभ राजाका पुत्र तथा मधुका छोटा भाई था (१६०) अन्तमें दीक्षा धारण कर ( २०२) घोर तपश्चरण पूर्वक अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ ( २१६) । यह कृष्णके पुत्र 'शम्ब' का पूर्वका तोसरा भव है-दे० 'शंव'। कैरल-दे० करल। कैलास-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर'। कोकण-पश्चिमी समुद्र तट पर यह प्रदेश सुरतसे रत्नगिरि तक विस्तृत है। बम्बई व कल्याण भी इसी देशमें है। (म.पु./प्र.४६
पं. पन्नालाल)। कोका-मथुरा नगरीका दूसरा नाम है । ( मदन मोहन पंचशती/प्र०) कोकिल पंचमी व्रत व्रत विधान संग्रह- गणना-कुल समय ५ वर्षतक; उपवास २५ । किशनसिंह क्रियाकोश विधि-पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष आषाढ़ कृ०५
था
म. पु./२०/६६ क्षुरक्रियायां तद्योग्यसाधनार्जनरक्षणे । तदपाये च चिन्ता स्यात् केशोत्पाटमितीच्छते।६। यदि रा आदिसे बाल बनवाये जायेगे तो उसके साधन छुरा आदि लेने पड़ेंगे, उनकी रक्षा करनी पड़ेगी, और उनके खो जानेपर चिन्ता होगी ऐसा विचार कर जो भगवान हाथसे हो केशलोंच करते थे।
६. रत्नत्रय ही चाहिए केशलोचसे क्या प्रयोजन भ. आ././E0-६२ लोचकदे मुंडत्तं मुंडत्ते होइ णिब्वियारत्तं । तो णिब्बियारकरणो परगहिददर परक्कम दि 10 अप्पा दमिदो लोएण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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