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करण
४. अधःप्रवृत्तकरण निर्देश
RFA समय
खण्ड है। महरि अन्त समय सम्बन्धी अन्तका अनुकृष्टि खण्ड (१७) सो सर्वोत्कृष्ट है। सो इन दोऊनिकै कहीं अन्य खण्डकरि समानता नाहीं है। महरि अवशेष ऊपरि समय सम्बन्धी खण्डनिकै नीचले समय सम्बन्धो खण्डनि सहित अथवा नीचले समय सम्बन्धी खण्डनिकै ऊपरि समय सम्बन्धी खण्डनि सहित यथा सम्भव समानता है। तहां द्वितीय समयत लगाय द्विचरम समय पर्यंत जे समय (२ से १५ तक के समय) तिनिका पहिला पहिला खण्ड (४०-५३); अर अंत (२०१६) समयके प्रथम खण्डत लगाय द्विचरम ग्वण्ड पर्यंत (१४-५4) अपने अपने उपरिके समय सम्बन्धी वण्डनिकरि समान नाहीं है, तातै असदृश हैं । सो द्वितीयादि चरम समय पर्यंत सम्बन्धी खण्डनिकी ऊर्ध्व रचना कीएं उपरि अन्त समयके प्रथमादि द्विचरम पर्यंत वण्डनिकी तिर्यक रचना कोएं अंकुशके आकारकी
रचना हो है। तातै यात अंकुश रचना कहिये । बहुरि द्वितीय समयतै लगाई द्विचरम समय पर्यंत सम्बन्धी अंत अंतके खण्ड अर प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड (३६) बिना अन्य सर्व खण्ड ते अपने अपने नीचले समय सम्बन्धी किसी ही खण्डनिकरि समान नाहीं तातै असदृश है। सो इहाँ द्वितीयादि द्विचरम पर्यन्त समय सम्बन्धी अंत अंत खण्डनिको ऊर्ध्व रचना कोएं अर नीचे प्रथम समयके द्वितीयादि अंत पर्यत खण्डनिकी तिर्यक रचना कोए, हलके आकार रचना हो है। ताते या लागल चित्र कहिये ।
बहुरि जघन्य उत्कृष्ट खण्ड अर उपरि नोचै समय सम्बन्धी
खण्डनिकी अपेक्षा कहे असदृश |४० ४१ ४२
खण्ड तिनि खण्डनि बिना अवशेष
सर्वखण्ड अपने ऊपरिकै और नीचले समयसम्बन्धी खण्डनिकरि यथा सम्भव समान है। (पृ०१३०१३१) । ( अंकुश रचनाके सर्व परिणाम यद्यपि अपनेसे नीचेवाले समयोंके किन्ही परिणाम खण्डोंसे अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपनेसे ऊपरवाले समयोंके किसी भी परिणाम खण्डके साथ नहीं मिलते। इसी प्रकार लांगल रचनाके सर्व परिणाम यद्यपि अपनेसे ऊपरवाले समयोंके किन्हीं परिणाम खण्डोंसे अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपनेसे नीचेवाले समयोंके किसी भी परिणाम खण्डके साथ नहीं मिलते। इनके अतिरिक्त बोचके सर्व परिणाम खण्ड अपने ऊपर अथवा नीचे दोनों ही समपोंके परिणाम खण्डोंके साथ बराबर मिलते ही हैं। (ध.६/१,६-८,४/२१७/१)।
स्थानवृद्धिवर्धिताः प्रथमखण्डपरिणामा सन्ति । एवं तृतीयसमयादिचरमसमयपर्यन्त चयाधिका प्रथमखण्डपरिणामा' सन्ति तथा प्रथमादिसमयेषु द्वितीयादिरखण्डपरिणामा' अपि चयाधिकाः सन्ति । - अब विशुद्धताके अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा वर्णन करिए है। तिनिको अपेक्षा गणना करि पूर्वोक्त अधःकरण निके खण्डनि विष अल्पबहुत्व वर्णन कर है-तहां अध. प्रवृत्तकरणके परिणामनिविषै प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम, तिनिके खण्डनिविर्षे जे प्रथम खण्डके परिणाम तै सामान्यपनै असंख्यातलोकमात्र (३९) है। तथापि पूर्वोक्त विधानके अनुसार...संख्यात प्रतरावलीको जाका भाग दीजिए ऐसा असंख्यातलोक मात्र हैं (अर्थात् असं/सं. प्रतरावली-लोकके प्रदेश )। ते ए परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये है । क्रमतै प्रथम परिणामतै लगाइ इतने परिणाम ( देखो एक षट् स्थान पतित हानि-वृद्धिका रूप) भए पीछे एक बार पट्स्थान वृद्धि पूर्ण होते ( अर्थात पूर्ण होती है)। (ऐसी ऐसी) असंख्यात लोकमात्र बार षट् स्थान पतित वृद्धि भए तिस प्रथम खण्डके सब परिणामनिकी संख्या (३४) पूर्ण होई हैं। ( जैसे संदृष्टि = सर्व जघन्य विशुद्धि-८; एक षट्स्थान पतित वृद्धि-६ असंख्यात लोक-१०। तो प्रथम खण्डके कुल परिणाम ६x६४१०-४८०। इनमें प्रत्येक परिणाम षट् स्थान पतित वृद्धि में बताये अनुसार उत्तरोतर एक-एक वृद्धिगत स्थान रूप है) यात असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धि करि वर्द्ध मान प्रथम खण्डके परिणाम हैं। पृ० १३२ ।
तैसे ही द्वितीय समयके प्रथम खण्डका परिणाम (४०) अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। तै जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेट लिये हैं। सो ये भी पूर्वोक्त प्रकार असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धिकरि वर्द्धमान है। (एक अनुकृष्टि चयमें जितनी षट् स्थानपतित वृद्विध सम्भवे है) तितनी बार अधिक षट्स्थानपतित वृद्धि प्रथम समयके प्रथम खण्डत द्वितीय समयके प्रथम खण्डमें सम्भवै है। ( अर्थात यदि प्रथम विकल्प में ६ बार वृद्धि ग्रह्ण की थी तो यहाँ ७ बार ग्रहण करना)। ऐसे ही तृतीय आदि अन्तपर्यन्त समयनिकै प्रथम खण्डके परिणाम एक अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। बहुरि ते से ही प्रथमादि समयनिक अपने अपने प्रथम खण्डत द्वितीय आदि खण्डनिके परिणाम भी कमतै एक एक चय अधिक है। तहाँ यथा सम्भव षट् स्थान पतित वृद्धि जेती बार होइ तितना प्रमाण ( प्रत्येक खण्डके प्रति ) जानना । ( पृ० १३३)।
अंकुश रचना
सांगल रचना
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५. परिणामोंकी विशुद्धताके अविभाग प्रतिच्छेद, अंक संशष्टि व यंत्र
गो. जी./जो. प्र./४६/१०६/१ तत्राधःप्रवृत्तकरणपरिणामेषु प्रथमसमयपरिणामखण्डाना मध्ये प्रथमरवण्डारिणामा असंख्यातलोकमात्रा:...अपवतितास्तदा संख्यातप्रतरावलिभक्तासंख्यातलोकमात्रा भवन्ति । अमी च जवन्धमध्यमोत्कृष्टभेवभिन्नाना... द्वितीयसमयप्रथमखण्डपरिणामाश्चमाधिका जन्यम प्रमोत्कृष्टविकल्पा प्रारबदसंख्यातलोकपटे
स्व कृत संदृष्टि व यन्त्र-उपरोक्त कथनके तात्पर्यपरसे निम्न प्रकार संदृष्टि की जा सकती है।-सर्व जघन्य परिणामकी विशुद्धि८ अविभाग प्रतिच्छेद; तथा प्रत्येक अनन्तगुणवृद्धि -१ की वृद्धि । यन्त्रमें प्रत्येक खण्डके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्तके सर्व परिणाम दर्शानके लिए जघन्य व उत्कृष्टवाले दो ही अंक दर्शाये जायेंगे। तहाँ बीचके परिणामोंकी विशुद्धता कमसे एक-एक वृद्धि सहित योग्य प्रमाणमें जान लेना।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-२
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