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केवलो
४. कवलाहार व परोषह सम्बन्धी निर्देश...
याचना, अलाभ, सत्कार. पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हो, पर वेदनीय कर्मका उदय होनेसे तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिए। उत्तर-धातिया कर्मोदय रूपी सहायकके अभावसे अन्य कर्मोंकी सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मन्त्र औषधीके प्रयोगसे जिसकी मारण शक्ति उपक्षीण हो गयी है ऐसे विषको खानेपर भो मरग नहीं होता, उसो तरह ध्यानाग्निके द्वारा धाति कर्मेन्धनके जल जानेपर अनन्तचतुष्टयके स्वामी केवलीके अन्तरायका अभाव हो जानेसे प्रतिक्षण शुभकर्म पुद्गलोंका संचय होते रहनेसे प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। इसलिए केवलोमें क्षुधादि नही होते। (ध. १३/५,४,२४/५३/१); (ध १२/ ४,२,७.२/२४/११); ( क.पा. १४१.१४६६१/६६/१); (चा.सा./१३१/२); (प्र. सा./ता. वृ./२०/२८/१०)। गो.क./मू व जी.प्र/२७३ णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दुसादासादजसुदुक्ख णस्थि इंदियज ।२७३। सहकारिकारणमोहनीयाभावे विद्यमानोऽपि न स्वकार्यकारीत्यर्थः। =जातै सयोग केवलीकै घातिकर्मका नाश भया है तातें राग व द्वेषको कारणभूत क्रोधादि कषायोंका निमूल नाश भया है। बहुरि युगपत सकल प्रकाशो केवलज्ञान विर्षे क्षयोपशमरूप परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान न संभवै तातै इन्द्रिय जनित ज्ञान नष्ट भया तिस कारण करि केवलिक साता असाता वेदनीयके उदयतें सुख दुख नाही है जातें सुख-दुख इन्द्रिय जनित है बहुरि बेदनीयका सहकारी कारण मोहनीयका अभाव भया है तातै वेदनीयका उदय होत संतै भी अपना सुख-दुख देने रूप कार्य करनेकौ समर्थ नाहीं। (क्ष.सा./मू./
६१६/७२८) प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ ३०३ तथा असातादि वेदनीयं विद्यमानोदयमपि,
असति मोहनीये, निसामर्थ्यवान्न क्षुद्दु'खकरणे प्रभु सामग्रीत कार्योत्पत्तिप्रसिद्द । - असातादि वेदनीयके विद्यमान होते हुए भी, मोहनीयके अभावमें असमर्थ होनेसे, वे केवली भगवान्को क्षुधा सम्बन्धी दुःखको करनेमें असमर्थ हैं। २. साता वेदनीयके सहवतापनेसे असाताकी शक्ति अनन्तगुणी क्षीण हो जाती है रा.वा /६/११/१/६१३/३१ निरन्तरमुपचीयमानशुभपुद्गलसंततेवेंदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहायबलं स्वयोग्यप्रयोजनं प्रत्यसमर्थ मिति । -- अन्तरायकर्मका अभाव होनेसे प्रतिक्षण शुभकर्म पुद्गलोका संचय होते रहनेमे प्रक्षीण सहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता। (चा.सा./१३१/३) ध.२/१,१/४३३/२ असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णस्थि । कारणभूत-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुण-परिग्गहसण्णा अस्थि । =असाता वेदनीय कर्मकी उदीरणाका अभाव हो जानेसे अप्रमत्त संयतके आहार संज्ञा नहीं होती है। किन्तु भय आदि संज्ञाओके कारणभूत कर्मोंका उदय सम्भव है, इसलिए
उपचारसे भय, मैथुन और परिग्रह सज्ञाएँ हैं। प्र.सा /ता.वृ./२०/२८/१६असद्वद्योदयापेक्षया सद्वेद्योदयोऽनन्तगुणोऽस्ति।
तत कारणात शर्कराराशिमध्ये निम्बकणिकावदसद्वद्योदयो विद्यमानोऽपि न ज्ञायते। तयैवान्यदपि बाधकमस्ति-यथा प्रमत्तसंयतादि तपोधनानां वेटोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयत्वादखण्डब्रह्मचारीणां त्रिपरीषहबाधा नास्ति । यथैव च नवप्रै वेयकाद्यहमिन्द्रदेवानां वेदोदये विद्यमानेऽपि मन्दमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वद्योदये विद्यमानेऽपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति। और भी कारण है, कि केवली (भगवान्के ) असाता वेदनीयके उदयकी अपेक्षा साता वेदनीयका उदय अनन्तगुणा है। इस कारण खण्ड (चोनो)को बड़ो राशिके बीच में नीमकी एक कणिकाको भाँति असातावेदनीयका उदय होनेपर भी नहीं जाना जाता है ।
और दूसरी एक और बाधा है-जैसे प्रमत्तसंयत आदि तपोधनों के वेदका उदय होनेपर भी मोहका मन्द उदय होनेसे उन अखण्ड ब्रह्मचारियोंके स्त्रोपरोषहरूप बाधा नहीं होती, और जिस प्रकार नवग्रंवेयकादिमें अहमिन्द्रदेवोके वेदका उदय विद्यमान होनेपर भी मोहके मन्द उदयसे खो-विषयक बाधा नहीं होती, उसी प्रकार भगवानके असातावेदनीयका उदय विद्यमान होनेपर भी निरवशेष मोहका अभाव होनेसे क्षुधाकी बाधा नहीं होती। (और भी-दे० केवली/४/१२) ३. असाता भी सातारूप परिणमन कर जाता है गो. क /मू. व जी. प्र./२७४/४०३ समयट्टिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स । तेण असादस्सुदओ सादसरूवेण परिणदि ।२७४। यतस्तस्य केवलिन' सातवेदनीयस्य बन्धः समयस्थितिक तत' उदयात्मक एव स्यात् तेन तत्रासातोदय सातास्वरूपेण परिणमति कुत. विशिष्टशुद्ध तस्मिन् असातस्य अनन्तगुणहीनशक्तित्वसहायरहित्वाभ्यां अव्यक्तोदयत्वात् । वध्यमानसातस्य च अनन्तगणानुभागत्वात तथात्वस्यावश्यभावात् । न च तत्र सातोदयोऽसातस्वरूपेण परिणमतीति शक्यते वक्तुं द्विसमयस्थितिकत्वप्रसङ्गात अन्यथा असातस्यैव बन्ध प्रसज्यते।
=जात तिस केवलोक साता वेदनीयका बन्ध एक समय स्थितिको लिये है ताते उदय स्वरूप ही है तातै केवलीकै असाता वेदनीयका उदय सातारूप होइकरि परिनमैं है । काहैं तै । केवलीके विष विशुद्धता विशेष है तात असातावेदनीयकी अनुभाग शक्ति अनन्तगुणी हीन भई है अर मोहका सहाय था ताका अभाव भया है तातै असातावेदनीयका अप्रगट सुक्ष्म उदय है। बहुरि जो सातावेदनीयबन्धै है ताका अनुभाग अनन्तगुणा है जात, साता वेरनीयकी स्थितिकी अधिकता तो संक्लेश तातै हो है अनुभागकी अधिकता विशुद्धतातै हो है सो केवलोके विशुद्धता विशेष है तातै स्थितिका तौ अभाव है बन्ध है सो उदयरूप परिणमता ही हो है अर ताकै सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा हो है ताहीत जो असाता का भी उदय है सो सातारूप होइकरि परिनमै है। कोऊ कहै कि साता असातारूप होइ परिनमै है ऐसे क्यो न कहो' ताका उत्तर--- ताका स्थितिबन्ध दोय समयका न ठहरे वा अन्य प्रकार कहै असाता ही का बन्ध होइ तात तें कह्या कहना संभवै नाहीं। १२. निष्फल होनेके कारण असाताका उदय ही नहीं कहना चाहिए घ १३/४,२,७,२/२४/१२ णिप्फलस्स परमाणपंजस्स समयं पडि परिसरंतस्स कधं उदयववएसो । ण, जोव-कम्मविवेगमेत्तफलं दट्ठूण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो। जदि एव तो असादवेदणीयोदयकाले सादावेदणीयस्स उदओ णस्थि, असादावेदणीयस्सेव उदओ अस्थि त्ति ण बत्तन्वं, सगफलाणुप्पायणेण दोण्णं पि सरिसत्तवलं भादो। ण, असादपरमाणूणं व सादपरमाणूण सगसरूवेण णिजराभावादो। सादपरमाणओ असादसरूवेण विणस्सतावत्थाए परिणमिदूण विणस्संते दट्ठूण सादावेदणीयस्स उदओ णस्थि त्ति वुच्चदे । ण च असादावेदणीयस्स एसो कमो अस्थि, [ असाद ]-परमाणूणं सगसरूवेणेव णिज्जरूवलं भादो। तम्हा दुरवरूवफलाभावे वि असादावेदणीयस्स उदयभावो जुज्जदि त्ति सिद्ध। - प्रश्न-बिना फल दिये ही प्रतिसमय निर्जीर्ण होनेवाले परमाणु समूहकी उदय संज्ञा कैसे हो सकती है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, जीव व कर्मके विवेकमात्र फलको देखकर उदयको फलरूपसे स्वीकार किया गया है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो असातावेदनीयके उदय कालमें साता वेदनीयका उदय नहीं होता, केवल असाता वेदनीयका ही उदय रहता है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अपने फलको नही उत्पन्न करनेकी अपेक्षा दोनोमें ही समानता पायी जाती है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-२१
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