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केवली
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४. कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश..
७. आहारक होनेके कारण केवलीको कवलाहार होना चाहिए ध./१/१,१,१७३/४०६/१० अत्र कवललेपोष्ममन'कर्माहारात् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्य, अन्यथाहारकालविरहाम्या सह विरोधात आहारक मार्गणामें आहार शब्दसे कवलाहार, लेपाहार.. आदि को छोडकर नोकर्माहारका ही ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा आहारकाल
और विरहके साथ विरोध आता है। प्र. सा०/२०/२०/२१ मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलि पर्यन्तास्त्रयोदशगुणस्था
नवर्तिनो जीवा आहारका भवन्तोत्याहारकमार्गणायामागमे भणितमास्ते, ततः कारणात केत्र लिनाम'हारोऽस्तीति । तदध्ययुक्तम् । परिहार"यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारपेक्षया केवलिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया । तथाहिसूक्ष्माः सुरसा सुगन्धा अन्यमनुजानामसभविन' कवलाहारं विनापि किंचिदूनपूर्वकोटिपर्यन्तं शरीरस्थितिहेतवः सप्तधातुरहितपरमौदारिकशरोरनोकर्माहारयोग्या लाभान्तरायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवन्तीति.. ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्-भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारपेक्षया. न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते । नैवम् । "एक द्वौ त्रीन् वानाहारक" इति तत्त्वार्थ कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्यार्थः कथ्यते--भवान्तरगमनकाले. विग्रहगतौ शरीराभावे सति नूतनशरीरधारणार्थ त्रयाणां षण्णां पर्याप्तीना योग्यपुद्गल पिण्डग्रहण नोकर्माहार उच्यते । स च विग्रहगतौ कर्माहारे विद्यमानेऽप्येकद्वित्रिसमयपर्यन्तं नास्ति । ततो नोकर्माहारापेक्षयाहारानाहारकत्वमागमे ज्ञायते । यदि पुनः कवलाहारापेक्षया तहि भोजनकालं विहाय सर्वदेवानाहारक एव, समयत्रयनियमो न घटते। = प्रश्न- मिथ्यादृष्टि आदि सयोग केवलो पर्यन्त तेरह गुणस्थानवी जीव आहारक होते हैं ऐसा आहारक मार्गणामे आगममें कहा है। इसलिए केवली भगवान्के आहार होता है । उत्तर--ऐसा कहना युक्त नहीं है । इसका परिहार करते हैं। यद्यपि छह प्रकारका आहार होता है परन्तु नोकर्माहारको अपेक्षा केवलीको आहारक जानना चाहिए कबलाहारकी अपेक्षा नहीं। सो ऐसे है-लाभान्तराग्र कर्म का निरवशेष विनाश हो जानेके कारण सप्तवातुरहित परमौदारिक शरीरके नोकर्माहारके योग्य शरीरकी स्थितिके हेतुभूत अन्य मनुष्यों को जो असंभव है ऐसे पुद्गल किचिदून पूर्वकोटि पर्यन्त प्रतिक्षण आते रहते है, इसलिए जाना जाता है कि केवली भगवानको नोकर्माहारकी अपेक्षा आहारकत्व है। प्रश्न----यह आपकी अपनी कल्पना है कि आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहारकी अपेक्षा है कवलाहारकी अपेक्षा नहीं। कैसे जाना जाता है। उत्तर--ऐसा नहीं है। एक दो अथवा तीन समय तक अनाहारक होता है। ऐसा तत्वार्थ सूत्रमे कहा है। इस सूत्र का अर्थ कहते है ---एक भवसे दूसरे भव में गमनके समय विग्रहगतिमे शरीरका अभाव होनेपर नवीन शरीरको धारण करनेके लिए तीन शरीरोकी पर्याप्तिके योग्य पुद्गल पिण्डको ग्रहण करना नोकर्माहार कहलाता है। वह कर्माहार विग्रहगतिमे विद्यमान होनेपर भी एक, दो, तीन समय पर्यन्त नही होता है। इसलिए आगममें आहारक व अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है ऐसा जाना जाता है। यदि कवलाहारकी अपेक्षा हो तो भोजनकालको छोड़कर सर्वदा अनाहारक हो होबे, तीन समयका नियम घटित न होवे। (बो. पा./टो०/३४/१०१/१५)। ८. परिषहोंका सद्भाव होनेसे कवलीको कवलाहारी होना
चाहिए ध. १२/४,२,७,२/२४/७ असादं वेदयमाणस्स सजोगिभयवंतस्स भुक्खातिसादीहि एक्कारसपरोसहेहि बाहिज्जमाणस्स कधं ण भुत्ती होज्ज ।
ण एस दोसो, पाणोयणेसु जादतण्हाए स समोहस्स मरणभएण भुजंतस्स परीसहेहि पराजियस्स केवलितविरोहादो। -प्रश्न--असाता वेदनीयका वेदन करनेवाले तथा क्षुधा तृषादि ग्यारह परिषहो द्वारा बाधाको प्राप्त हुए ऐसे सयोग केवली भगवान्के भोजनका ग्रहण कैसे नही होगा। उत्तर---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो भोजन पानमें उत्पन्न हुई इच्छासे मोह युक्त है तथा मरणके भयसे जो भोजन करता है, अतएव परीषहोंसे जो पराजित हुआ है ऐसे जीवके केवली होने मे विरोध है। प्र.सा./ता.वृ/२०/२८/१२ यदि पुनर्मोहाभावे पि क्षुधादिपरिषहं जनयति तहि वधरोगादिपरिषहमपि जनयतु न च तथा । तदपि कस्मात् । "भुक्त्युपसभावात्" इति वचनाद अन्यदपि दूषणमस्ति। यदि क्षुपानाधास्ति तर्हि क्षुधाक्षीणशक्तेरनन्तवीय नास्ति । तथैव दुखितस्थानन्तसुखमपि नास्ति । जिहन्द्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न सभवति । यदि केवली भगवान को मोहका अभाव होनेपर भी क्षुधादि परिषह होती है, तो वध तथा रोगादि परिषह भो होनी चाहिए। परन्तु ये होती नही है, वह भी कैसे "भुक्ति और उपसर्गका अभाव है" इस वचनसे सिद्ध होता है। और भी दूषण लगता है। यदि केवली भगवान् को क्षुधा बाधा हो तो क्षुधाको बाधासे शक्ति क्षीण हो जानेसे अनन्त वीर्यपना न रहेगा, उसोसे दुखी होकर अनन्त सुख भी नहीं बनेगा। तथा जिला इन्द्रियकी परिच्छित्ति रूप मतिज्ञानसे परिणत उन केवली भगवान्को केवलज्ञान भी न बनेगा । (बो. पा/टी/३४/१०१/२२) । ९. केवली मगवान्को क्षुधादि परिषह नहीं होती ति. प./२/१६ चउबिहउक्सग्गेहि णिचविमुक्को कसायपरिहीणो। छुहपहुदिपरिसहेहि परिचत्तो रायदोसेहि ५११- देव, मनुष्य, तियंच और अचेतनकृत चार प्रकारके उपसर्गोसे सदा विमुक्त है. क्षायोंसे रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परोषहों व रागद्वेषसे परित्यक्त है। १०. केवलीको परिषद कहना उपचार है स सि./६/११/४२६/८ मोहनीयोदयसहायाभावारक्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्त । सत्यमेवमेतत्--वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसभावापेक्षया परिषहोपचार क्रियते। -प्रश्न-मोहनीयके उदयकी सहायता न होनेसे क्षुधादि वेदनाके न होनेपर परिषह सज्ञायुक्त नहीं है ? उत्तर ----यह कथन सत्य हो है तथापि वेदनाका अभाव होनेपर द्रव्यकर्म के सद्भावकी अपेक्षासे यहां परीषहोंका उपचार किया जाता है । ( रा वा./६/१९/२/६१४/१)। ११. असाता वेदनीय क्मकं उदयके कारण केवलीको क्षुधादि परिषह होनी चाहिए १. पाति व मोहनीय कर्मकी सहायता न होनेसे असाता अपना कार्य करनेको समर्थ नहीं है:रा, वा./६/११/१/६१३/२७ स्थान्मतम्-बातिकर्मप्रक्षयानिमित्तोपरमे सति नारन्यरतिस्त्रोनिषद्याक्रोशयाचनालाभसत्कार पुरस्कार प्रज्ञाज्ञानदर्श - नानि मा भूवत्, अमी पुनर्वेदनीयाश्रया' खलु परीषहा' प्राप्नुवन्ति भगवति जिने इति; तन्न, कि कारणम् । घातिकर्मोदयसहायाभावाव तत्सामर्थ्य विरहात्। यथा विषद्रव्यं मन्त्रौषधिबलादुपक्षीणमारणशक्तिकमुपयुज्यमानं न मरणाय कल्प्यते तथा ध्यानानल निर्दग्धघातिकर्मेन्धनस्यानन्ताप्रतिहतज्ञानादि चतुष्टयस्यान्तरायाभावान्निरन्तरमुप - चीयमान शुभपुद्गलसंततेवेंदनीयाख्यं कर्म सदपि प्रक्षीणसहार बलं स्वयोग्यप्रयोजनोत्पादनं प्रत्यसमर्थमिति क्षुधाद्यभाव, तत्सद्भावोपचाराइ ध्यानकल्पनवत्।-प्रश्न-केवल मे घातियाकर्म का नाश होनेसे निमित्तके हट जानेके कारण नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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