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केवली
४. कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश व शंका
समाधान
१. केवलीको नोकर्माहार होता है
क्ष.सा./६१८ पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्ध । समयपबद्ध अंधदि गलिदवसेसाउमेस ठिदी ६१८ सयोगी जिन है सो समय समय प्रति नोर्म जो औदारिक तीहि सम्बन्धी जो समय प्रभ ताक ग्रहण कर है । ताकी स्थिति आयु व्यतीत भए पीछे जेता अबशेष रहा तावन्मात्र जाननी । सो नोकर्म वर्गणाके ग्रहण ही का नाम आहार मार्गणा है ताका सहभाव केवली कैं है ।
६. समुद्घात अवस्थामें नोकर्माहार भी नहीं होता
ष. ख. १/१,१/सू. १७७/४१० अणाहारा केवलीणं वा समुग्धाद-गदाणं अगदि । १००
ध.२/१,१/६६६/५ कम्मग्गहणमत्थित्तं पडुच्च आहारितं किण्ण उच्चदित्ति भणिदे ग उच्चदि आहारस्स तिधिसमयविरहकाशोवसद्धीदो। - १. समुद्रातगत केवलियोंके सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते है । २ प्रश्न- कार्माण काययोगोको अवस्थामें भी कर्म वर्गणाओंके ग्रहणका अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कामण काययोगी जीवोको आहारक क्यों नहीं कहा जाता उत्तर- उन्हें आहारक नहीं कहा जाता है, क्योंकि कार्माण काययोगके समय नोकर्मणाओंके आहारका अधिक से अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता हैं ।
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.सा / ६११ र समुग्वादगदे पदरे तह सोगपुरणे पदरे परिथतिसमये णियमा फोकम्माहारयं तत्यसमुहातको प्राप्त केली विषै दोय तौ प्रतरके समय अर एक लोक पूरणका समय इनि तीन समयानिमिये नौकर्मका आहार नियमते नहीं है।
३. केवलीको कवलाहार नहीं होता
स.सि /८/१/१०५ केवली कवलाहारी विपर्यय केवलीको कालाहारी मानना विपरीत मिध्या-दर्शन है।
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४. मनुष्य होनेके कारण केवलीको मी कवलाहारी होना चाहिए
स्व. स्तो./मू./७५ मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् ! देवतास्वपि च देवता यत । तेन नाथ परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष । प्रसीद नः ॥५॥ - हे नाथ" चूंकि आप मानुषी प्रकृतिको अतिक्रास कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं, इसलिए आप उत्कृष्ट देवता हैं, अतः हे धर्म जिन आप हमारे कल्याणके लिए प्रसन्न होवें ॥७५॥ (बो.पा./ टी./१४/१०१)
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प्र.सा./ता.वृ/२०/२१/१२ केत्र लिनो कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् तदप्ययुक्तम् तर्हि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वशत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसामध्ये नास्ति वर्तमानमनुष्यत् । न च तथा । = प्रश्न – केवली भगवान्के कवलाहार होता है, क्योंकि महमनुष्य है, वर्तमान मनुष्यकी भाँति उत्तर-ऐसा कहना मुक्त नहीं है। क्योंकि अन्यथा पूर्वकालके पुरुषों में सर्वज्ञता भी नहीं है। अथवा राम रावणादि पुरुषोंमें विशेष सामर्थ्य नहीं है, वर्तमान मनुष्यकी भाँति । ऐसा मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा है नहीं। (अत केवली कलाहारी नहीं है। )
४. कवलाहार व परीपह सम्बन्धी निर्देश....
५. संयम की रक्षा के लिए भी केवलीको कवलाहारकी आवश्यकता थी
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कपा १/१.९/६३२ / किंतु तिरयद्रुमिदि वो जुत्तं तत्थ पत्तासेसरुम्मि तदसंभवादो । तं जहा ण तार णाणट्ठ भुंजइ, पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवलणाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदट्ठ केवली भुजेज । ण संजमट्ठ, पत्तजहाक्रखादजमादो | ण ज्झाणट्ठ; विसईकयासेस तिहुवणस्स न्याभावादो । भुज केवली भुतिकारणाभावादी सि सिद्ध । क.पा.१/११/१६३/०१/१ अह जइ सो मुंह तो बलाउ सासरी रुचयतेज-नज संसारिजानो ए च एवं समोहस्स केवलजाणावयत्तदो ग प अकेलियणमागमो रागदो समोहकलंक किए ....सच्चाभावादो । आगमाभावेण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो तित्थस्स णिव्वाहबोहविसयीकयस्स उवलं भादो। = १. प्रश्न -- यदि कहा जाय कि केवली रत्नत्रयके लिए भोजन करते हैं। उत्तर -- यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि केवली जिन पूर्णरूपसे आत्मस्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए वे 'रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम और ध्यानके लिए भोजन करते हैं. यह बात संभव नहीं है इसीका स्पष्टीकरण करते है- केवली जिन ज्ञानकी प्राप्तिके लिए तो भोजन करते नहीं है, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया है तथा केवलज्ञानसे बडा और कोई दूसरा ज्ञान प्राप्त करने योग्य नहीं है, जिससे उस ज्ञानकी प्राप्तिके लिए भोजन करे। न ही संयमके लिए भोजन करते हैं क्योंकि उन्हे यथाख्यात संयमकी प्राप्ति हो चुकी है तथा ध्यानके लिए भी भोजन नहीं करते क्योंकि उन्होंने त्रिभु बनको जान लिया है, इसलिए इनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा है । अतएव भोजन करनेका कोई कारण न रहने केवली जिन भोजन नहीं करते हैं, यह सिद्ध हो जाता है । २. यदि केवली जिन भोजन करते है तो संसारी जीवोके समान बल, आयु. स्वादिष्ट भोजन, शरीरकी वृद्धि, तेज और मुखके लिए ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि ऐसा मानने पर वह मोहयुक्त हो जायेंगे और इसलिए उनके केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। यदि कहा जाये कि जिनदेवको केवलज्ञान नहीं होता तो केवलज्ञानसे रहित जीवके वचन ही आगम हो जावें । यह मी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा माननेपर राग, द्वेष, और मोहसे कांकित जीवोंके सत्यताका अभाव होनेसे उनके वचन आगम नहीं कहे जायेंगे। आगमका अभाव होनेसे रत्नत्रयकी प्रवृत्ति न होगी और तीर्थका म्युच्छेद हो जायेगा परन्तु ऐसा है नहीं, खोंकि निर्बाध बोधके द्वारा ज्ञात तोर्थ की उपलब्धि बराबर होती है । न्यायकुमुद चन्द्रिका/पृ. ०५२।
प्रमेय मार्तण्ड ३०० कवलाहारित्वे चास्य सरागत्यप्रसंगः। = केवली भगवान्को कबलाहारी माननेपर सरागत्वका प्रसंग प्राप्त होता है।
६. श्रदारिक शरीर दोनेसे केवलीको कवळाहारी होना चाहिए
प्र. सा./ता /वृ/२०/२८/७ केवलिनां भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् । ...अस्मदादिवत् । परिहारमाह-तद्भगवतः शरीरमौदारिकं न भवति किन्तु परमोदारिक शुरफटका तेजोमूर्तिमयं ay' । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् । प्रश्न- केवली भगवाद भोजन करते है औवारिक शरीरका सज्ञान होनेसे हमारी भाँति उत्तर-- भगवादका शरीर औदारिक नहीं होता अपितु परमोदारिक है। कहा भी है कि 'दोषोंके विनाश हो जानेसे शुद्ध स्फटिकके सदृश सात धातुसे रहित तेज मूर्तिमय शरीर हो जाता है।
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