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केवली
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३. शंका-समाधान
ध १/१,१,२१/१६४/२ पञ्चसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वानिरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण । -१. चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देनेसे, वेदनीय कर्मके निशक्त कर देनेसे, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देनेसे इस गुणस्थानमें क्षायिक भाव होता है । २. प्रश्न-पाँच प्रकार के भावों में इस ( अयोगो) गुणस्थानमें कौन-सा भाव होता है। उत्तर--सम्पूर्ण पातिया कर्मोके क्षीण हो जानेसे और थोडे ही समयमें अधातिया कर्मोंके नाशको प्राप्त होनेवाले होनेसे इस गुणस्थानमें
क्षायिक भाव होता है। प्र. सा./मू./४५ पुण्णफला अरहंता तेसि किरिया पुणो हि ओदइया।
मोहादीहि विरहिया तम्हा सा वाइग त्ति मदा। -अरहन्त भगवान् पुण्य फलवाले है और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिसे रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है।
इति सांख्या । सकल विप्रमुक्त सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जड़ो, नापि चैतन्यमात्ररूप । -प्रश्न-१. कर्मोका क्षय हो जानेपर जीव जड़ हो जायेगा, क्योकि उसके बुद्धि अदि गुणोंका अत्यन्त उच्छेद हो जायेगा। ऐसा योगमत वाले कहते है। २. वह तो चेतन्य मात्र रूप है, ऐसा सांख्य कहते है। उत्तर-सकल कर्मोसे मुक्त होने पर आत्मा सम्पूर्णतः ज्ञानशरीरी हो जाता है जड़ नहीं, और न ही चैतन्य मात्र रहता है।
२. सयोग व अयोग केवली में अन्तर द्र.सं./टी./१३/३६ चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरण विलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाधातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मन्दोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति । =सयोग केवलीके चारित्रके नाश करने वाले चारित्रमोहके उदयका अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्माके आचरणसे विलक्षण जो तीन योगीका व्यापार है वह चारित्रमें दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगोसे रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अन्त समयको छोड़कर चार अघातिया कर्मोंका तीन उदय चारित्रमें दूषण उत्पन्न करता है और अन्तिम समयमें उन अघातिया कर्मोका मन्द उदय होने पर चारित्रमें दोषका अभाव हो जानेसे अयोगी जिन मोक्षको प्राप्त हो जाते है। श्लो. वा/१/१/१/४/४८४/२६ स्वपरिणामविशेष' शक्तिविशेषः सोऽन्तरङ्ग' सहकारी निःश्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेनिःश्रेयसानुत्पत्ते....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिनः प्रथमसमये मुक्ति न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात । वे आत्माकी विशेष शक्तियाँ मोक्षकी उत्पत्तिमें रत्नत्रयके अन्तरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्माकी उन सामथ्यौंको सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मोंकी निर्जरा नही हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्यो कि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्माके परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थानके पहले समयमें मुक्तिको कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रयका सहकारी कारण वह आत्माकी शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है। ३. सयोग व अयोग केवलीमें कर्मक्षय सम्बन्धी विशेषताएँ ध.१/१,१,२७/२२३/१० सयोगकेवली ण किचि कम खवेदि । = सयोगी
जिन किसी भी कर्मका क्षय नहीं करते। ध.१२/४,२,७,१५/१८/२ रवीणकषाय-सजोगीसु डिदि-अणुभागघादेसु संतेस वि सहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्ध अजोगिम्हि विदि-अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिदिद्ध। -क्षीणकषाय और सयोगी जिनका ग्रहण प्रगट करता है कि शुभ प्रकृतियों के अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्धात अथवा योग निरोधसे नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघातके होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभागका घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमे शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है।
४. केवलीको एक क्षायिक भाव होता है व १/१,१,२१/१६१/६ गिताशेषघातिकमत्वान्निशक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टक वयवष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण ।
५. केवलियोंके शरीरकी विशेषताएँ ति.प./४/७०५ जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं । गच्छदि
उपरि चावा पंच सहस्साणि वसुहाओ७०५॥ केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरोंका परमौदारिक शरीर पृथिवीसे पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है ।७०५॥ ध.१४/५,६,६१/८१/८ सजोगि-अजोगिकेवलिणी च पत्तेय-सरीरा बुच्चंति
एदेसि णिगोदजीवेहि सह संबंधाभावादो। ध.१४/५.६,११६/१३८/४ रवीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणार संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो। =१. संयोगवली और अयोगिकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ सम्बन्ध नहीं होता। २. क्षीण कषायमें बादर निगोद वर्गणाके रहते हुए केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेमें विरोध है। (यहाँ बादरनिगोद वर्गणासे बादर निगोद जीवका ग्रहण नहीं है, बल्कि केवलीके औदारिक व कार्माण शरीरो व विस्त्रसोपचयोंमें बंधे परमाणुओंका प्रमाण बताना अभीष्ट है। ) निगोद से रहित होता है।
३. शंका-समाधान १. ईर्यापथ आस्रव सहित मी भगवान् कैसे हो सकते
ध.१३/५,४,२४/१२/८ जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ त्व इरियावहकम्म
जलं सगसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णियस्थमिदं बुच्चदे-इरियावहकम्म गहिद पि तण्ण गहिदं...अणंतरसंसारफल णिवत्तणसत्तिविरहादो... बद्धपि तण्ण बद्ध चेत्र, विदियसमए चेव णिज्जरुवलं भादो पुणो... पुट्ठपि तण्ण पुढचेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण...अवट्ठणाभावादो।...उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहमरासिव्व पत्तणिब्बीयभावत्तादो। -प्रश्न-जलके बीच पड़े हुए तप्त लोह पिण्डके समान ईर्यापथ कर्म जलको अपने सर्व जीव प्रदेशों द्वारा ग्रहण करते हुए केवली जिन परमात्माके समान कैसे हो सकते हैं। उत्तर--ईर्यापथ कर्मगृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है...क्योंकि वह संसारफलको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है। बद्ध होकर भी वह बद्ध नहीं है, क्योकि दूसरे समयमें ही उसकी निर्जरा देखी जाती है।...स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बन्धका सत्त्व रूपसे उनके अवस्थान नहीं पाया जाता.. उदीर्ण होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वह दग्ध गेहूँके समान निर्बीज भावको प्राप्त हो गया है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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