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केवली
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२. केवली निर्देश
१.भेद व लक्षण
४. सयोग व अयोग केवलीके लक्षण
पं. सं./प्रा./१/२०-३० केवलणाणदिवायर किरणकलावप्पणासि अण्णाओ। ..केवली सामान्यका लक्षण
णवकेवल धुग्गमपावियपरमप्पववएसी ।२७ असह यणाण-दसण
सहिओ वि हु केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो अणाइणिह१. केवली निरावरण ज्ञानी होते है
णारिसे बुत्तो ।१२।। सेले सिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेस आसओ जीवो। मू. आ./५६४ सव्वे केवल कप्पं लोग जाणं ति तह य पस्सं ति । केवल
कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई ॥३०१ =जिसका केवलीणाणचरित्ता तम्हा ते केवली होति ।।६४! - जिस कारण सब केवल
ज्ञानरूपी सूर्यको किरणोसे अज्ञान विनष्ट हो गया है। जिसने केवलज्ञानका विषय लोक अलोकको जानते हैं और उसी तरह देखते हैं।
लब्धि प्राप्त कर परमात्म संज्ञा प्राप्त की है, ह असहाय ज्ञान और तथा जिनके केवलज्ञान ही आचरण है इसलिए वे भगवान केवली है।
दर्शनसे युक्त होने के कारण कवली, तीनों योगोंसे युक्त होनेके कारण स. सि /६/१३/३३१/११ निराबरणज्ञाना केवलिन'।
सयोगी और घाति कर्मोंसे रहित होनेके कारण जिन कहा जाता स. सि /8/३८/४५३/४ प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिन' सयोगस्या
है, ऐसा अनादि निधन आपमें कहा है। ( २७, २८) जो अठारह योगस्य च परे उत्तरे शुक्लध्याने भवतः। =जिनका ज्ञान आवरण
हजार शीलोके स्वामी है, जो आसवोसे रहित है, जो नूतन बंधने रहित है वे केवली कहलाते है। जिसके समस्त ज्ञानावरणका नाश हो
वाले कर्मरजसे रहित है और जो योगसे रहित है, तथा केवलज्ञानसे गया है ऐसे सयोग व अयोग केवली... (घ./१/१,१,२१/१६१/३) ।
विभूषित है, उन्हे अयोगी परमात्मा कहते हैं ।३०। (ध.१/१,१२१/
१२४-१२६/११२) (गो जी /मू./६३-६) (पं सं/सं/१/४६-५०) रा वा./६/१३/१/५२३/२६ करणक्रमव्यवधानातिबतिज्ञानोपेता. केवलिन'
प.सं./प्रा/१/१०० जेसि ण सति जोगा सुहामहा पुण्णपापसंजणया। ते ११ करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्ति. क्रम', कुड्यादिनान्तर्धानं
होति अजोइजिणा अणोवमाणं तगुणकलिया ।१००। -जिनके पुण्य व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते, ज्ञानावरणस्यात्यन्तसंक्षये आविभृत
और पापके संजनक अर्थात् उत्पन्न करने वाले शुभ और अशुभ योग मात्मन' स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वन्तोऽर्हन्तो भगवन्त' केवलिन इति
नहीं होते है, वे अयोगि जिन कहलाते है, जो कि अनुपम और व्यपदिश्यन्ते। -ज्ञानावरणका अत्यन्त क्षय हो जानेपर जिनके
अनन्त गुणोसे सहित होते है । (ध.१/१,१,५६/१५४/२८०) (गो जी./ स्वाभाविक अनन्त ज्ञान प्रकट हो गया है. जिनका ज्ञान इन्द्रिय काल
मू./२४३) (पं.सं/सं./१/१८०) क्रम और दूर देश आदिके व्यवधानसे परे हैं और परिपूर्ण है वे
ध.७/२,१,१५/१८/२ सहिददेसमछंडिय छद्दित्ता वा जीवदबस्स । सावकेवली हैं ( रा. वा./४/१/२३४५६०)।
यवेहिं परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मरवयत्तादो। =स्व स्थित २. केवली आत्मज्ञानी होते हैं
प्रदेशको न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्यका अपने अबस सा./मू./जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्र । तं सुय
यवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योकि वह कर्मक्षयसे
उत्पन्न होता है। केवलिमिसिणो भणं ति लोयप्पईवयवा ।। -जो जीव निश्चयसे
ज.१/१,१,२९/१६१/४ योगेन सह वर्तन्त इति सयोगाः । सयोगाश्च ते श्रुतज्ञानके द्वारा इस अनुभव गोचर केवल एक शुद्ध आत्माको सम्मुख
केवलिनश्च सयोगकेवलिनः । हाकर जानता है, उसको लोकको प्रगट जाननेवाले ऋषिवर श्रुतकेवली हैं।
ध १/१,१,२२/१६२/७ न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः। केवलमस्या
स्तीति केवली। अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली। जो योगप्र. सा./त प्र/३३ भगवान् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात के साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते है, इस तरह जो सयोग होते केवली । भगवान् • आत्माको आत्मासे आत्मामें अनुभव करनेके
हुए केवली है उन्हें सयोग के बली कहते है। जिसके योग विद्यमान कारण केवली हैं। (भावार्थ-भगवान् समस्त पदार्थो को जानते है,
नहीं हैं उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है उसे मात्र इसलिए ही वे केवलो' नही कहलाते, किन्तु केवल अर्थात केबली कहते है, जो योगरहित होते हुए केवली होता है उसे अयोग शुद्वात्माको जानने--अनुभव करनेसे केवली कहलाते है)।
केवली कहते हैं । (रा.वा./६/१/२४/५६/२३) मो. पा./टी०/६/३०८/११ केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठ
द्र.सं /टी./१३/३५ ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन तीति केवल । जो निजात्मामें एकीभावसे केवते हैं, सेवते हैं या
निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकल विमलकेवलज्ञानज्ञानठहरते है वे केवली कहलाते हैं।
किरण र्लोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानवतिनो जिनभास्करा
भवन्ति। मनोवचनकायवर्गणालम्बनकर्मादाननिमितात्मप्रदेशपरि२. केवलीके भेदोंका निर्देश
स्पन्दलक्षणयोगरहितश्चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनोऽयो गिजिना भवन्ति। क. पा/१/१.१६/६ ३१२/३४२ /२५ विशेषार्थ-तद्भवस्थकेबल और सिद्ध
समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनोंको एक केवलोके भेदसे केवली दो प्रकार के होते है।
साथ एक काल में सर्वथा निर्मूल करके मेधपटलसे निकले हुए सूर्यके सत्ता स्वरूप/३८ सात प्रकारके अर्हन्त होते हैं। पाँच, तीन व दो
समान केवलज्ञानकी किरणोसे लोकालोकके प्रकाशक तेरहवे गुणकल्याणक युक्त, सातिशय केवली अर्थात् गन्धकुटी युक्त केवली.
स्थानवर्ती जिनभास्कर (सयोगी जिन) होते हैं । और मन वचन, सामान्य केवली अर्थात् मूककेवली, (दो प्रकार हैं-तीर्थ कर ।
काय वर्गणाके अवलम्बनसे कर्मोंके ग्रहण करने में कारण जो आत्माके सामान्य केवलो) उपसर्ग केवली और अन्त- कृद केवली।
प्रदेशोका परिस्पन्दन रूप योग है, उससे रहित चौदहवे गुणस्थान
बर्ती अयोगी जिन होते है। ३. तद्भवस्थ व सिद्ध केवलीका लक्षण
२. केवली निर्देश
१. कंवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है क. पा. १/१,१६/६ ३११/३४/२६ विशेषार्थ-जिस पर्यायमे केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसो पर्यायमे स्थित केत्रलोको तद्भवस्थ केबली कहते है ___ स.स्तो टी./५/१३ ननु तव ( कर्म ) प्रक्षये तु जड़ो भविष्यति..बुद्धि और सिद्ध जीवोको सिद्ध केवली कहते है।
आदि-विशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदात् इति योगा। चैतन्यमात्ररूपं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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