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केवली
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५. इन्द्रिय, मन व योग सम्बन्धी निर्देश
घ./१/१,१/३७/२६३/५ केवलिनां निर्मुलतो विनष्टान्तरडगेन्द्रियाणां प्रहतबाह्येन्द्रियव्यापाराणां भावेन्द्रियजनितद्रव्येन्द्रियसत्त्वापेक्षया पन्चेन्द्रियत्वपतिपादनाद । केवलियोंके यद्यपि भावेन्द्रियाँ समूल नष्ट हो गयी है, और बाह्य इन्द्रियोंका व्यापार भी बन्द हो गया है, तो भी ( छद्मस्थ अवस्थामें ) भावेन्द्रियोंके निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियोंके सदभाधकी अपेक्षा उन्हे पञ्चेन्द्रिय कहा गया है। गो.जी./जी./प्र./७०१/११३१/१२ सयोगिजिने भावेन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियापेक्षया षट पर्याप्तयः।-सयोगी जिनविर्षे भावेन्द्रिय तौ है नाही, द्रव्येन्द्रियको अपेक्षा छह पर्याप्ति है।
२. जातिनाम कर्मोदयकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय हैं ध.१/१,१,३६/२६४/२ पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्पञ्चेन्द्रियः । समस्ति च केवलिना...पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मोदयः । निरवद्यत्वात व्याख्यानमिदं समाश्रयणीयम् । == पञ्चेन्द्रिय नामकर्म के उदयसे पञ्चेन्द्रिय जीव होते हैं। व्याख्यानके अनुसार केवलोके भो...पञ्चेन्द्रिय जाति नामकर्मका उदय होता है। अत: यह व्याख्यान निर्दोष है । अतएव इसका आश्रय करना चाहिए । (ध.७/२,१,६/१६/५)
उत्तर-नहीं, क्योंकि, तब असातावेदनीयके परमाणुओंके समान सातावेदमीयके परमाणुओकी अपने रूपसे निर्जरा नहीं होती। किन्तु विनाश होनेकी अवस्थामें असाता रूपसे परिणमकर उनका विनाश होता है यह देखकर सातावेदनीयका उदय नहीं है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु असाता वेदनीयका यह क्रम नहीं है, क्योंकि तम असाताके परमाणुओंकी अपने रूपसे हो निर्जरा पायी जाती है । इस कारण दुःखरूप फलके अभावमें भी असातावेदनीयका उदय मानना युक्तियुक्त है, यह सिद्ध होता है। ध.१३/५,४,२४/५३/५ जदि असादावेदणीयं णिष्फलं चेव, तो उदओ
अस्थि त्ति किमिदि उच्चदे। ण, भूदपुव्वणयं पडुच्च तदुत्तीदो। किच ण सहकारिकारणघादिकम्माभावेणेव सेसकम्माणिव्व पत्तणिव्वीयभावमसादावेदणीयं, किंतु सादावेदणीयबंधेण उदयसरूवेण उदयागदउकसाणुभागसादावेदणीयसहकारिकारणेण पडिहयउदयत्तादो वि। ण च बंधे उदयसरूवे संते सादावेदणीयगोवुच्छा थिउक्कसंकमेण असादावेदणीयं गच्छदि, बिरोहादो। थिउसंकमाभावे सादासादाणमजोगिचरिमसमए संतवोच्छेदो पसज्जदि त्ति भणिदे-ण, वोच्छिण्णसादबंधम्मि अजोगिम्हि सादोदयणियमाभावादो। सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूणपुव्वकोडिमेत्तो होदि चे–ण, अजोगिकेवलिं मोत्तण अण्णस्थ उदयकालस्स अंतोमुत्तणियमन्भुवगमादो। ...सादावेदणीयस्स बंधो अत्थि त्ति चे ण, तस्स ट्ठिदि-अणुभागबंधाभावेण.. बंधववएसविरोहादो । -प्रश्न-यदि असातावेदनीय कर्म निष्फल ही है तो वहाँ उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है । उत्तर--नहीं, क्योंकि, भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे वैसा कहा जाता है। दूसरे...वह न केवल निर्बीज भावको प्राप्त हुआ है किन्तु उदयस्वरूप सातावेदनीयका बन्ध होनेसे और उदयागत उत्कृष्ट अनुभाग युक्त साता वेदनीय रूप सहकारी कारण होनेसे उसका उदय भो प्रतिहत हो जाता है। प्रश्न-बन्धके उदय स्वरूप रहते हुए साता वेदनीयकर्मकी गोपुच्छा स्तिवुक संक्रमणके द्वारा असाता वेदनीयको प्राप्त होती होगी • उत्तर-ऐसा माननेमें विरोध आता है। प्रश्न--यदि यहाँ स्तिवुक संक्रमणका अभाव मानते है, तो साता और असाताको सत्त्व व्युच्छिति अयोगीके अन्तिमसमय मे होनेकाप्रसंग आता है: उत्तर--नहीं,क्योंकि साताके बन्धकी व्युच्छित्ति हो जानेपर अयोगी गुणस्थानमें साताके उदयका कोई नियम नही है। प्रश्न-इस तरह तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राश होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि अयोगिकेवली गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका अन्तर्मुहर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है।...। प्रश्न-वहाँ सातावेदनीयका बन्ध है ! उत्तर--नहीं क्योंकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके बिना.. सातादनीय कर्म
को 'बंध' संज्ञा देनेमें विरोध आता है। ५. इन्द्रिय, मन व योग सम्बन्धी निर्देश व शंकासमाधान १. द्रव्येन्द्रियोंकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियत्व है भावेन्द्रियों
की अपेक्षा नहीं रा. वा./१/३०/६/११/१४ आष हि सयोग्ययोगिकेवलिनोः पञ्चेन्द्रियत्वं द्रव्येन्द्रिय प्रति उक्तं न भावेन्द्रिय प्रति। यदि हि भावेन्द्रियमभविष्यत् अपि तु तहि असंक्षीणसकलावरणत्वात सर्वज्ञतवास्य न्यवतिष्यव। -आगममें सयोगी और अयोगो केवलोको पश्चेन्द्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है, ज्ञानाबरणके क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियोंकी नहीं। यदि भावेन्द्रियोंकी विवक्षा होती तो ज्ञानावरणका सदभाव होनेसे सर्वज्ञता हो नहीं हो सकतो थो।
३. पञ्चन्द्रिय कहना उपचार है ध. १/१,१,३७/२६३/५ केवलिना पञ्चेन्द्रियत्व.. भूतपूर्वगतिन्यायसमाश्रयणाद्वा । केवलीको भूतपूर्वका ज्ञान करानेवाले न्यायके
आश्रयसे पञ्चेन्द्रिय कहा है। घ.७/२,१,१५/६७/३ एइंदियादोणमोदइयो भावो वत्तव्यो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एईदियादिभावोवलंभा । दि एवं ॥ इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिदियत्तं ण लब्भदे, खोणावरणे पंचण्हमिदियाणं खओवसमा भावा । ण च तेसि पंचिदियत्ताभावो पंचिदिएमु समुग्धादपदेण असंखेज्जेषु भागेस सब्बलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो। एत्थ परिहारो बुच्चदे.. सजोगिअजोगिजिणाणं पंचिदियत्तजुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि उबवण्णं । कितु खुद्दाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिदियाणं पंचिदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो बवहारणएण बत्तव्यं । तं जहा-पंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खोवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कटु सजोगि-अजोगिजिणाणं खओवसमियं पंचिदियत्तं जुज्जदे । अधवा वीणावरणे ण? वि पंचिंदियखओवसमे खओवसमजणिद णं पंचण्ह वज्झिदियाणमुवयारेण लखओवसमसण्णाणमस्थित्तदसणादो सजोगि-अजोगिजिणाणं पंचिदियत्तं साहेयव्वं प्रश्न-एकेन्द्रियादिको औदयिक भाव कहना चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय जाति आदिक नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायेगा तो सयोगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रिय भाव नहीं पाया जायेगा, क्योंकि, उनके आवरणके क्षीण हो जानेपर पाँचो इन्द्रियों के क्षयोपशमका भो अभाव हो गया है। और सयोगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियत्वका अभाव होता नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर "पंचेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा समुद्घातपदके द्वारा लोकके असख्यात बहुभागों में अथवा सर्वलोकमें जीवोंका अस्तित्व है" इस सूत्रसे विरोध आ जायेगा । उत्तर--यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं · सयोगी और अयोगी जिनोंका पंचेन्द्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खण्डमें स्वीकार किया गया है। (पं. वं./१/१,१/सू.३७/२६२) किन्तु इस क्षुद्रकबंध खण्डमें शुद्ध नयसे अनिन्द्रिय कहे जानेवाले सयोगी और अयोगो जिनोंके यदि पंचेन्द्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नयसे ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है--पाँच जातियों में जो. क्रमशः पाँच इन्द्रियाँ सम्बद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचारसे पाँचों जातियोंको भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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