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केवलो
योगी और अयोगी जिनके सामने जाता है। अगवा, आवरणके क्षीण होनेसे पंचेद्रियों नष्ट हो जानेपर भी क्षयोपशम उत्पन्न और उपचार क्षायोपशमिक संज्ञाको प्राप्त पाँचो माहोन्द्रियोंका अस्तित्व पाये जानेसे योगी और अयोगी जिनकेन्द्रियत्न सिद्ध कर लेना चाहिए।
४. भावेन्द्रियके अमाव सम्बन्धी शंका-समाधान
२/ १२ / ४४४/५ भाविवायाभावादी भाविदियं ग्राम पंचण्डमिंदियाणं खओवसमो। ण सो खीणावरणे अस्थि । सयोगी जिनके भावेन्द्रियाँ नहीं पायी जाती हैं। पाँचों इन्द्रियावरण कर्मोके क्षयोपशमको भावेन्द्रियाँ कहते है । परन्तु जिनका आवरण समूल नष्ट हो गया है उनके वह क्षयोपशम नहीं होता । ( ध / २ / १,१/६५८/४ )
५. केवळीके मन उपचारसे होता है।
घ. १/१,१,५२/२८५/३उपचारतस्तयोस्ततः समुत्पत्तिविधानात् । - उपचार - से मनके द्वारा (केवलीके) उन दोनों प्रकारके वचनोंकी उत्पत्तिका विधान किया गया है ।
सिद्ध हो
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गो. जी./मू./२२८ मणसहियाणं वयणं दिट्ठ तप्पुन्नमिदि सजोगहि उत्ती मणोययारेणिदिणाण होमम्मि २२८१ इन्द्रिय ज्ञानियोंके वचन मनोयोग पूर्वक देखा जाता है। इन्द्रिय ज्ञानसे रहित केवली भगवान् के मुख्यपनें तो मनोयोग नहीं है, उपचार से कहा है।
६. केवलीके द्रव्यमन होता है मावमन नहीं
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घ. १/१,१.५०/२८४/४ अतीन्द्रियज्ञानत्वान्न केवलिनो मन इति चेन्न, द्रव्यमनसः सत्त्वात् । - प्रश्न - केवलोके अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया जाता है उत्तर नहीं, क्योंकि, उनके द्रव्य मनका सद्भाव पाया जाता है।
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७. तहाँ मनका भावात्मक कार्य नहीं होता पर परिस्पन्दन रूप द्रव्यात्मक कार्य होता है।
घ. १/१,१.५०/२८४/५ भवतु द्रव्यमनस' सत्त्वं न तत्कार्यमिति चेद्भवतु तत्कार्यस्य क्षायोपशमिक्ज्ञानस्याभानः, अपि तु तदुत्पादने प्रयत्नोस्त्येव तस्य प्रतिबन्धकत्वाभावात् । तेनात्मनो योगः मनोयोगः । विद्यमानोऽपि तदुत्पादने प्रयत्नः किमिति स्वकार्य न विदध्यादिति चेन्न, तत्सहकारिकारणश्योपशमाभावात् । प्रश्न- केवली के द्रव्यमनका सद्भाव रहा आवे, परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है ? उत्तर - द्रव्यमनके कार्य रूप उपयोगात्मक क्षायोपशमिक ज्ञानका अभाव भले ही रहा आवे, परन्तु द्रव्य मनके उत्पन्न करनेमें प्रयत्न तो पाया ही जाता है, क्योंकि, मनकी वर्गमाओं को लानेके लिए होनेवाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता है। इस लिए यह सिद्ध हुआ कि उस मनके निमित्तसे जो आत्माका परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। प्रश्न- केवलीके द्रव्यमनको उत्पन्न करनेमें प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है उत्तर नहीं, क्योंकि मेली मानसिक ज्ञानके सहकारी कारणरूप क्षयोपशमका अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमिक ज्ञान नहीं होता है। (च. १/१.१,२२/१६०-३६०/० ); (गो०जी०/५० १० जी० १० / २२६) ।
८. भावमनके अभाव में क्चनकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है
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म. १/१,१.१२३/६/३ रात्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य सोऽपि मिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् । अक्रमज्ञानात्कर्थं क्रमवतां वचना
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५. इन्द्रिय मन व योग सम्बन्धी निर्देश .....
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नामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकारार्द्धटस्य क्रमेणोत्पलम्भाद् मनोयोगाभावे सुत्रेण सह विरोध स्थादिति चेन्न, मन' कार्यप्रथमचतुर्थ वचसोः सत्त्वापेक्षयोपचारेण तत्सत्त्वोपदेशाद जीवप्रदेशपरिस्पन्दहेतु नोकर्मजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया ना तत्सत्त्वान्न विरोध प्रश्न - अरहन्त परमेष्ठीमें मनका अभाव होनेपर मनके कार्यरूप वचनका सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, वचन ज्ञानके कार्य हैं, मनके नहीं। प्रश्न--- अक्रम ज्ञानसे क्रमिक वचनोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तरनहीं, क्योकि घट विषयक अक्रम ज्ञानसे युक्त कुम्भकार द्वारा क्रमसे टको उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञानसे क्रमिक वचनोको उत्पत्ति मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। प्रश्न-सयोगिकेवलीके मनोयोगका अभाव माननेपर "सक्षम अस मसणजोगो सणिमिच्छाइट्ठिप्पहूडि जाव सजोगिकेवल त्ति । ( ष० खं०/१/१,१/५०/२८२ ) इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा उत्तर नहीं, क्योंकि, मनके कार्यरूप प्रथम और पशु भाषाके सद्भाव की अपेक्षा उपचारसे मनके सद्भाव मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। अथवा, जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दके कारणरूप मनोजणारूप नोकर्मसे उत्पन्न हुई शक्तिके अस्तित्वकी अपेक्षा सयोगि केवली मे मनका सद्भाव पाया जाता है ऐसा मान लेनेमें भी कोई विरोध नहीं आता है । (ध. १/१,१,५०/२८५/२) (ध. १/११, १२२ / ३६८/२ ) ।
९. मन सहित होते हुए भी केवलीको संज्ञी क्यों नहीं कहते
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ध. १/१,१,१७२/४०८/१० समनस्कत्वात्सयोगिकेवलिनोऽपि संज्ञिन इति पेन तेषां क्षीणाचरणानां मनोऽवष्टम्भवलेन बाह्यार्थग्रहणाभावतस्तदस्वात् तर्हि भवतु केसिनोऽचिन इति चेन्न साक्षात्कृतशेष पदार्थानामसंविविरोधात् असंहिन' केवलिनो मनोऽमपेक्ष्य बाह्यार्थग्रहणाद्विकलेन्द्रियवदिति चेद्रवमेवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्यत्तिमात्रमा भविस्य निबन्धनमिति चेन्मनसोऽभाइचतिशयाभाव', ततो नानन्तरोक्तदोष इति । प्रश्न-मन सहित होनेके कारण सयोगकेवली भी संज्ञी होते हैं। उत्तर- नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से रहित उनके मनके अवलम्बन से बाह्य अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें संज्ञी नहीं कह सकते। प्रश्नतो केवली अशी रहे आयें उत्तर नहीं क्योंकि जिन्होंने समस्त पार्थोको साक्षात् कर लिया है. उन्हे असंही माननेमें विरोध आता है प्रश्न केवली असंही होते है, क्योंकि, वे मनकी अपेक्षाके बिना ही विकलेन्द्रिय जीवों की तरह बाह्य पदार्थोंका ग्रहण करते हैं ? उत्तर - यदि मनकी अपेक्षा न करके ज्ञानकी उत्पत्ति मात्रका आश्रय करके ज्ञानोत्पत्ति असंज्ञीपनेकी कारण होती तो ऐसा होता । परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि कदाचित मनके अभाव से विकलेन्द्रिय जीवो की तरह केमलोके बुद्धिके अतिशयका अभाव भी कहा जायेगा। इसलिए केवली के पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता।
१०. योगोंके सद्भाव सम्बन्धी समाधान
स.सि /६/१/३१९/१ क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्षः सयोगकेवलिन. आत्मप्रदेशपरिस्वदी योगी वेदितव्यः नर्यान्तराम और ज्ञानावरण कर्मके लय हो जानेपर भी सयोगकेवली के जो तीन प्रकारकी वर्गमाओको अपेक्षा आत्मप्रदेश परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिए। ध. १/१.१.१२३/३६/९)
घ. १/१,१.२७/२२०/५१ अस्थि सोगपुरणम्हि द्वियवती लोक पूरण समुदात में स्थित केनलियोके भी योग प्रतिपादक उपलब्ध है।
आगम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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