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जन्म
गो.जी./जी.प्र./६६५/१९३१ / १३ सासादने बावरे द्विपरिन्द्रियसंइयसंश्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ताः सप्त । सासादनमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवसमास भी होता है (गो.जी./जी. ७०३/१२२७/१९) (गो.क./जी. १/३२१/०५३/४) ।
८. एकेन्द्रियोंमें नहीं जन्मता
दे० इन्द्र/२/४ एकेन्द्रिय विकले पर्याप्त व अपर्याप्त सममें एक मिथ्यात्व गुणस्थान बताया है ।
६.४/१,४,५/१६५/० जे पुण देवसासणा
पतित भति
सिमभिप्यारण, बारहमोसभागा देगा उनवाद फोसणं होदि. एवं पि वक्खाणं संत दव्वमुत्तविरुद्धं ति ण घेत्तव्वं । जो ऐसा रहते हैं कि सासादनसम्यग्दृष्टि देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं, उनके अभिप्रायसे कुछ कम १२/१४ भाग उपपादपदका स्पर्शन होता है। किन्तु यह भी व्याख्यान सत्प्ररूपणा और द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रो के विरुद्ध पड़ता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।
घ. ०/२७.२६२/४०/२ण सासमागमेह दिवस उनवादाभावादो। - सासाइन सम्यग्दृष्टियोंकी एकेन्द्रियोंमें उत्पत्ति नहीं है।
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९. बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पतिमें जन्मता है अन्य कार्यों में नहीं
६/१६-६/सूत्र १२१/४५० एदिए गामादरीकाइया बादरआउक्काइया बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीर पज्जत्तरसु गच्छेति णो अप्पज्जत्तेसु । १२१॥ एकेन्द्रियों में जानेवाले वे जीव (संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यदचि मादर पृथिवीकायिक भावर जलकारिक मादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्यातकों में ही जाते है अपर्याप्तोमें नहीं ।
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ष. खं. ६ / १,६ - ६/ सू. / १५३, १७६ मनुष्य व देत्र गति से आनेवालोंके लिए भी उपरोक्त ही नियम है।
सं.प्रा.४/५६-६० भूदयहरिए दोणि परमाणि ॥५१॥ का feel...1401
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पं. सं. प्रा./टी./४/६०/१६/५ तयोरेकं कथम् । सासादनस्थो जीवो मृत्वा वायुकायिकयोर्मध्ये न उत्पद्यते इति हेतोः । = काय मार्गणाकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, जलकायिक और बनस्पतिकायिक जीवोमें आदिके दो गुणस्थान होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तेज व वायुकामिकोंमें उत्पन्न नहीं होते। गो.क./मू./११३/१०५ ण हि सामणो अपुष्णे साहारणसुमनेय ते
दुगे ।११३१ सन्धि अपर्याप्त साधारणशरीरयुक्त, सर्व सूक्ष्म जीव तथा बातकायिक तेजस्कायिक विषै सासादन गुणस्थान न पाइए है। गो. क./जी. प्र. / ३०९ / ४३८ /६ गुणस्थानद्वयं । कुतः । "ण हि सासणी अपुणे..." इति पारिशेषात् पृथ्व्यैकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्तेः प्रश्न पृथिवी आदिकोंमें दो गुणस्थान कैसे होते हैं। । = उत्तर" हि सासन अपुणो-" इत्यादि उपरोक्त गाथा नं. ११५. में अपर्याप्तकादि स्थानोंका निषेध किया है। परिवशेष न्यायसे उनसे यो पृथिवी, अप और प्रत्येक मनस्पतिकासिक उनमें सासादनकी उत्पत्ति जानी जाती है (पी. जी. जी. ७०२/११२०/१४) (गो. क./जी. प्र./५६१/०६२/४ )
४. सासादनमें जीवोंके जन्मसम्बन्धी मतभेद
१०. बादर पृथिवी आदि कायिकों में भी नहीं जन्मते
२/११/६००,६९०.६१२ सारार्थ (भादरपृथिवीकायिक, मारवा कायिक व प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में सर्वत्र एक मिथ्यात्व ही गुणस्थान बताया गया है। )
दे. काय / २/४ पृथिवी आदि सभी स्वावर कायिकोमें केवल एक मिथ्यास्वगुणस्थान ही बताया गया है।
११. एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते बल्कि उनमें मारणान्तिक समुद्वात करते हैं
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घ. ४/१.४.४ / १६२ / १० जदि सासणा एईदिएस उपज्जेति तो तत्थ दो गुण ठाणाणि होति । ण च एवं संताणिओगद्दारे तत्थ एक मिच्छादिट्ठगुणप्पदुप्पायणादो दव्वाणिओगद्दारे वि तत्थ एगगुणट्ठाणदव्वस्स पमाणपरूवणादो च । को एवं भणदि जधा सासणा एवं दियपतिति तु ते मारतियं मेसि सि अम्हा णिच्छओ। ण पुण ते तत्थ उप्पज्जेति त्ति, छिण्णाउकाले तत्थ सायणगुणापुल भादो जराणानादो पत्थि तर विजदि सासणा मारणं तियं मेल्लं ति, तो सत्तमपुढविणेरइया वि सासणगुणेण सह पंचिदियतिरिक्स मारणं तियं मेल्लंतु, सासणत्तं पडि विसेसाभावादो। ण एस दोसो, भिण्णजादित्तादो। एवे सत्तमपुढविणेरड्या पंचिदियतिरि गन्भोववकलिए पेष उपाय से पुण देवा पंचिदिए एईदिए य उपज्जसहावा, तो समाजादीया | ...सम्हा सत्तमपुरिया सासणगुणेण सह देवा हय मारणं तियं करेंति ति सिद्ध ।... बाउकाइएसु सासणा मारणं तियं किष्ण करें ति । सयलसारणार्थ देवा व ते बाउका मारणं शियाभावाद
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विपरिणाम विमागतल सिहा पंभ-धूत उसात जिया कुड-तोरणादीर्णं तदुप्पत्ति जोगाणं दंसणादो च । प्रश्न- यदि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियो में उत्पन्न होते हैं तो उनमें वहाँपर दो गुणस्थान प्राप्त होते हैं किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि पणा अनुयोग द्वारमें एकेन्द्रियोंमें एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान ही वहा गया है, तथा द्रव्यानुयोगद्वारमें भी उनमें एक ही गुणस्थानके द्रव्यका प्रमाण प्ररूपण किया गया है। उत्तर-कौन ऐसा कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियोंमें होते हैं । किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्धातको करते हैं; ऐसा हमारा निश्चय है। न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उनमें आयुके दिन होनेके समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है। प्रश्न -- जहाँपर सासादनसम्यग्दृष्टियों का उत्पाद नहीं है, वहाँ पर भी यदि (वे देव ) सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिक समुद्धाको करते हैं, तो सातवीं पृथिवीके नारकियोंको सासादन गुणस्थानके साथ पंचेन्द्रिय तिर्यों में मारणान्तिक समुद्धात करना चाहिए, क्योंकि, सासादन गुणस्थानकी अपेक्षा दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, देव और नारकी इन दोनोंकी भिन्न जाति है, ये सातवीं पृथिवीके नारकी गर्भ जन्मवाले पंचेन्द्रियोंमें ही उपजनेके स्वभाववाले हैं, और वे देव पंचेन्द्रियों तथा एकेन्द्रियो में उत्पन्न होनेरूप स्वभाववाले हैं, इसलिए दोनों समान जातीय नहीं हैं। इसलिए सातवीं पृथिवीके नारकी देवोंकी तरह मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते हैं। प्रश्नसासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकोंने मारणान्तिक समुद्धात क्यों नहीं करते 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि, सकल सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका देनोंके समान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंमे मारणान्तिक समुद्वातका अभाव माना गया है। और पृथिवी के विकाररूप विमान, शय्या, शिला, स्तम्भ और स्तूप, इनके तलभाग तथा खड़ी हुई शालभंजिका (मिट्टीकी पुतली) मिति और तोरणादिक उनकी उत्पत्ति के योग्य देखे जाते हैं ।
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