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जन्म
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५. जीवोके उपपाद सम्बन्धी कुछ नियम
१२. दोनों दृष्टियोंमे समन्वय
उत्तर-नहीं, क्योंकि, तियच सम्यग्दृष्टि जीवों में संयमका अभाव पाया जाता है। और संयमके बिना आरण अच्युत कनपसे ऊपर गमन होता नहीं है। इस कथनसे आरण अच्युत करपसे ऊपर (नवग्रैवेयक पर्यन्त ) उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवों के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि, उन मिथ्याष्टियों के भी भावसयम रहित द्रव्य संयम होना सम्भव है ।
घ.७/२,७,२५६/४५७/२ सासणाणमेइंदिएम उववादाभावादो। मारणंतियमेहं दिएसु गदसासणा तत्थ किण्ण उप्पज्जति । ण मिच्छत्तमार्गतूण सासणगुणेण उप्पत्तिविरोहादो। सासादनसम्यग्दृष्टियोकी एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है। प्रश्न-एकेन्द्रियो में माग्णान्तिक समुद्भातको प्राप्त हुए सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उनमें उत्पन्न क्यो नहीं होते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, आयुके नष्ट होनेपर उक्त जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमे आ जाते है, अत: मिथ्यात्व में आकर सासादन गुणस्थानके
साथ उत्पत्तिका विरोध है। ध.६/१,६,६,१२०/४५६/८ जदि एई दिएसु सासणसम्माइट्ठी उप्पज्जदि
तो पुढत्रीकायादिसु दो गुणट्ठाणाणि होति त्ति चे ण, छिण्णाउअपढमसमए सासणगुणविणासादो।-प्रश्न-यदि एकेन्द्रियोंमे सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो पृथिवीकायिकादिक जीवोंमें मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होने चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि, आयु क्षीण होनेके प्रथम समय में ही सासादन गुणस्थानका विनाश हो जाता है । ध./१/१,१,३६/२६१/८ एइदिएसु सासणगुणष्ठाणं पि सुणिज्जदि तं
कधं घडदे । ण एदम्हि सुत्ते तस्स णि सिद्धत्तादो। विरुद्धाणं कथं दोण्हं पि सुत्ताणमिदि ण, दोण्ह एक्कदरस्स सुत्तादो। दोण्हं मज्झे इद सुत्तमिदं च ण भवदीदि कधं णयदि। उवदेसमंतरेण तदवगमाभावा दोण्हं पि संगहो काययो । प्रश्न-एकेन्द्रिय जीवों में सासादनगुणस्थान भी सुननेमें आता है, इसलिए उनके केवल एक मिथ्याष्टि गुणस्थान के कथन करनेसे वह कैसे बन सकेगा। उत्तर--नहीं, क्योंकि, इस खण्डागम सूत्र में एकेन्द्रियादिकोंके सासादन गुणस्थानका निषेध किया है। प्रश्न-जब कि दोनों वचन परस्पर विरोधी हैं तो उन्हें सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि दोनों वचन सूत्र नहीं हो सकते हैं, किन्तु उन दोनों वचनोंमेंसे किसी एक बचनको ही सूत्रपना प्राप्त हो सकता है। प्रश्न-दोनों बचनोंमे यह सूत्ररूप है और यह नहीं, यह कैसे जाना जाये। उत्तर-उपदेशके । बिना दोनोमेसे कौन वचन सूत्ररूप है यह नहीं जाना जा सकता है, इसलिए दोनों बचनोंका संग्रह करना चाहिए (आचार्योपर श्रद्धान करके ग्रहण करने के कारण इससे संशय भी उत्पन्न होना सम्भव नही। -दे० श्रद्धान/३)।
३. लौकान्तिक देवों में जन्मने योग्य जीव ति.प./८/६४५-६५१ भत्तिपसत्ता सज्झयसाधीणा सम्बकालेसं ६४॥ इह
खेत्ते वेग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकाल ६४६। थुइणिदास समाणो सुदुक्खेसं सबंधुरिउवग्गे।६४७१ जे हिरवेक्वा देहे णिहदा णिम्ममा णिरारंभा। णिरवज्जा समणवरा ..६४८। संजोगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे ।६४६अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसुं झाणजोगेस । तिब्बतवचरणजुत्ता समणा ।६० पंचमहन्वय सहिदा पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठति । पंचक्रवविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति ६५१॥ =जो भक्तिमें प्रशक्त और सर्वकाल स्वाध्यायमें स्वाधीन होते हैं।६४॥ बहुत काल तक बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयमसे युक्त होते हैं।६४६। जो स्तुति-निन्दा, मुख दुख और बन्धु-रिपुमें समान होते हैं।६४७। जो देहके विषयमें निरपेक्ष निर्द्वन्द, निर्मम, निरारम्भ और निरवद्य हैं ।६४८। जो संयोग व वियोगमें, लाभ व अलाभमें तथा जीवित और मरणमें सम्यग्दृष्टि होते है ।६४६। जो संयम, समिति, ध्यान, समाधि व तप आदिमें सदा सावधान हैं।६५० पंच महावत, पंच समिति, पंच इन्द्रिय निरोधके प्रति चिरकाल तक आचरण करनेवाले हैं, ऐसे विरक्त ऋषि नौकान्तिक होते हैं।६१॥
४. संयतासंयत नियमसे स्वर्गमें जाता है म. पु /२६/१०३ सम्यग्दृष्टिः पुनर्जन्तुः कृत्वाणु व्रतधारणम् । लभते परमा
भोगान्धवं स्वर्ग निवासिनाम् ।१०३। -यदि सम्यग्दृष्टि मनुष्य अणुव्रत धारण करता है तो वह निश्चित ही देवोंके उत्कृष्ट भोग प्राप्त करता है । और भी (दे० जन्म/६/३)।
५. निगोदसे आकर उसी भवसे मोक्षकी सम्भावना
५ जोवोंके उपपाद सम्बन्धी कुछ नियम
१. चरम शरीरियोंका व रुद्र आदिकोंका उपपाद चौथे काल में ही होता है ज.प./२/१८५ रुद्दा य कामदेवा गणहरदेवा व चरमदेहधरा दुस्समसुसमे काले उप्पत्ती ताण बोद्धब्बो।१८५। रुद्र, कामदेव, गणधरदेव और जो चरमशरीरी मनुष्य हैं, उनकी डत्पत्ति दुषमसुषमा कालमे जानना चाहिए।
भ-आ./मू /१७/६६ दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा
य। आरणा चरित्तस्स तेण आराहणा सारो।११ भ.आ./वि/१७/६६/६ भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्नाः
अतएव अनादिमिथ्यादृष्टयः प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसाराः समारोपितरत्नत्रयाः,..क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थ म्...सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावाः 'दृष्टाः आराधनासंपादकाः, चारित्रस्य। -चारित्रकी आराधना करनेवाले अनादिमिथ्यादृष्टि जीव भी अल्पकालमें सम्पूर्ण कर्मोंका नाश करके मुक्त हो गये ऐसा देखा गया है । अतः जीवोंको आराधनाका अपूर्व फल मिलता है ऐसा समझना चाहिए।
अनादिकालसे मिथ्यात्वका तीव्र उदय होनेसे अनादिकालपर्यन्त जिन्होंने नित्य निगोदपर्यायका अनुभव लिया था ऐसे ६२३ जीव निगोदपर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्तीके भद्रविवर्धनादि नाम धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे इसी भवसे त्रस पर्यायको प्राप्त हुए थे । भगवान् आदिनाथ के समवशरणमें द्वादशांग वाणीका सार सुनकर रत्नत्रयकी
२. अच्युत कल्पसे ऊपर संयमी ही जाते हैं
ध.६/१,६-६,९३३/४६५/६ उवरि किण्ण गच्छति । ण तिरिक्वसम्माइट्ठीसु संजमाभावा। संजमेण विणा ण च उवरि गमणमत्थि। ण मिच्छाइट्ठीहि तत्थुप्पज्जतेहि विउचारो, तेसि पि भावसंजमेण विणा दबसंजमस्स संभवा । -प्रश्न--संख्यात वर्षायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच मर कर आरण अच्युत कल्पसे ऊपर क्यों नहीं जाते ?
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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