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दर्शन
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६. श्रुतविभंग व मनःपर्ययके दर्शन सम्बन्धी
ध.१/१,१,१३५/३८५/६ अनन्तत्रिकालगोचरबाह्येऽथें प्रवृत्तं केवलज्ञानं (स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति ) कथमनयोः समानतेति चेत्कथ्यते । ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयोः समानत्वमिति। -प्रश्न-त्रिकालगोचर अनन्त बाह्यपदार्थों में प्रवृत्ति करनेवाला ज्ञान है और स्वरूप मात्रमें प्रवृत्ति करनेवाला दर्शन है, इसलिए इन दोनों में समानता कैसे हो सकती है । उत्तर-आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकालके विषयभूत द्रव्योकी अनन्त पर्यायोको जाननेवाला होनेसे तत्परिमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शनमें समानता है । (ध.७/२,१,५६/१०२/६) (ध.६/१,६-१,१७/३४/६) (और भी दे० दर्शन/२/७)। दे० दर्शन/२/८ (यद्यपि स्वकीय पर्यायोंकी अपेक्षा दर्शनका विषय ज्ञानसे
अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करनेके कारण उनमें समामता बन जाती है)।
आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्रबुअचवखुओहिदसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्म्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो।-चू कि दर्शन मतिज्ञानके समान आवरणके निमित्तसे होता है, इसलिए आवरणके नष्ट हो जानेपर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषयमें उपयुक्त गाथा इस प्रकार है-"जिस प्रकार ज्ञानावरणसे रहित जिनभगवान्में...इत्यादि'.. पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योकि जिस प्रकार मतिज्ञान आवरणका कार्य है, इसलिए अवरणके नष्ट हो जानेपर मतिज्ञानका अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आवरणका अभाव होनेसे आवरणके कार्य चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनका भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवल दर्शनका अभाव नहीं हो सकता है, क्योकि केवल दर्शन कर्म जनित नहीं है। उसे कर्मजनित मानना भी ठोक नहीं है, ऐसा माननेसे, दर्शनावरणका अभाव हो जानेसे भगवान्को केवलदर्शनकी उत्पत्ति नहीं होगी, और उसकी उत्पत्ति न होनेसे वे अपने स्वरूपको न जान सकेंगे, जिससे वे अचेतन हो जायेगे और ऐसी अवस्थामे उसके ज्ञानका भी अभाव प्राप्त होगा।
१. केवलज्ञानसे मिन्न केवल दशनकी सिद्धि
क. पा. १/१-२०/प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसप णत्थि त्ति के वि भणं ति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ"मणपज्जवणाणतो-"(8३२३४३५७/४)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अस्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो । ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो । तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं । ण च दोण्डं पयासाणमेयत्तं; बज्झ तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमेन यत्त बिरोहादो। (१३२६/३५७/८) । केवलणाणादो केवलदसणमभिण्णमिदि केवलदसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज । ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (६३२७/३५८/४) । - प्रश्न-~कि केवलज्ञान स्व और पर दोनोंका प्रकाशक है, इसलिए केवल दर्शन नहीं है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। और इस विषयको उपयुक्त गाथा देते हैं-मनःपर्ययज्ञानपर्यन्त... (दे० दर्शन/५/८) उत्तरपरन्तु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है। १. क्योंकि केवलज्ञानस्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्यायकी पर्याय नहीं होती, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्था दोष आता है। (ध. ६/१,६-१,१७/३४/२)। (ध.७/२,१,५६//८)। २. केवलज्ञान स्वयं तो न जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखनेका कर्ता नहीं है (आत्मा ही उसके द्वारा जानता है । इसलिए ज्ञानको अन्तरंग व बहिरंग दोनोंका प्रकाशक न मानकर जीव स्व व परका प्रकाशक है, ऐसा मानना चाहिए। (विशेष दे० दर्शन/२/६)। ३-केवल दर्शन व केवलज्ञान ये दोनों प्रकाश एक है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाले साकार उपयोग और अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले अनाकार उपयोगको एक माननेमें विरोध आता है। (ध. १,१,१३३/३८३/११); (ध. ७/२,१.६६/६8/R)1४. प्रश्न-केवलज्ञानसे केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिए केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर ज्ञान और दर्शन इन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिए ज्ञानको भी दर्शनपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष दे० दर्शन/२)।
६. श्रुत विभंग व मनःपर्ययके दर्शन सम्बन्धी
१. श्रुतदर्शनके अमावमें युक्ति ध. १/१,१,१३३/३८४/५ श्रुतदर्शनं किमिति नोच्यते इति चेन्न, तस्य
मतिपूर्वकस्य दर्शनपूर्वकत्वविरोधाव । यदि बहिरङ्गार्थसामान्यविषयं दर्शनमभविष्यत्तदा श्रुतज्ञानदर्शनमपि समभविष्यत् । -प्रश्नश्रुतदर्शन क्यों नहीं कहा ! उत्तर-१. नहीं, क्योंकि, मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको दर्शनपूर्वक माननेमें विरोध आता है। (ध. ३/ १,२,१६१/४५६/१०); (ध. १३/५,५,८५/३५६/२) (और भी दे० आगे दर्शन/६/४ ) २. दूसरे यदि बहिरंग पदार्थको सामान्य रूपसे विषय करनेवाला दर्शन होता तो श्रुतज्ञान सम्बन्धी दर्शन भी होता। परन्तु ऐसा नहीं ( अर्थात् श्रुत ज्ञानका व्यापार बाह्य पदार्थ है अन्तरंग नहीं, जब कि दर्शनका विषय अन्तरंग पदार्थ है) इसलिए श्रुतज्ञानके पहिले दर्शन नहीं होता। ध. ३/१,२,१६१/४५७/१ जदि सरूवसंवेदणं दसणं तो एदेसि पि दंसणस्स
अस्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् ।३. प्रश्न- यदिस्वरूपसंवेदन दर्शना है,तो इनदोनों (श्रूत व मनःपर्यय ) ज्ञानों के भी दर्शनके अस्तित्वकी प्राप्ति होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, उत्तरज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदनको दर्शन माना गया है। ( यहाँ वह कार्य दर्शनकी अपेक्षा मतिज्ञानसे सिद्ध होता है।
२. विमंग दर्शनके अस्तित्वका कथंचित् विधि निषेध
१०. आवरण कर्मके अमावसे केवलदर्शनका अभाव नहीं होता क. पा. १/१-२०/8 ३२८-३२६/३५६/२ मइणाणं व जेण सणमावरणणि-
बंधणं तेण वीणावरणिज्जे ण दंसण मिदि के वि भणं ति। एत्थुवउज्जंती गाहा-'भण्णइ वीणावरणे...(३२)। एदं पिण घडदे;
दे. सत प्ररूपणा' (विभ गज्ञानीको अवधि दर्शन नहीं होता)। ध. १/१,१,१३४/३८५/१ विभङ्गदर्शनं किमिति पृथग नोपदिष्ठमिति चेन्न, तस्यावधिदशनेऽन्तर्भावात । विभड्ग दर्शनका पृथक रूपसे उपदेश क्यों नहीं किया। उत्तर-नहीं, क्योंकि उसका अवधि दर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। (ध. १३/५,५,८५/३५६ । ध. १३/५,५,८५/३५६/४ तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम्-अवधिविभंगयोरवधिदर्शनम्' इति । = ऐसा ही सिद्धिविनिश्चयमें भी कहा है, -'अवधिज्ञान व विभंगज्ञानके अवधिदर्शन ही होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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