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दर्शन
क. पा. २/१-२०/१३५२/२२०/२ हवि विसयमिदि णासंकणिज्जं देसादो अण्णेण पयारेण
कथमिसादो दंसणमंतर गरमविसयणिद्द सदुवारेण विसयिणिअंतरं गवियणिरूपणा
प्रश्न ३- इसमें पूर्वोक्त अवधिदर्शनको व्याख्याने) दर्शनका विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अतः दर्शन अन्तरग पदार्थको विषय करता है, यह कहना ठीक नहीं है ? उत्तर - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गाथामें विषयके निर्देश द्वारा विषयीका निर्देश किया गया है। क्योंकि अन्तरंग विषयका निरूपण अन्य प्रकारसे किया नहीं जा सकता है।
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५. दर्शन सिद्धि
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घ. १/१,१.१३१/३७६/१ अथ स्याद्विषयविषयिसं पातसमनन्तरमाद्यग्रहणं अनग्रहः । न तेन बाह्यार्थ गतविधिसामान्य परिचितस्यावस्तुनः कर्माभावा । तस्माद्विधिनिषेधात्मकबाह्माणमवग्रह स दर्शन सामान्यग्रहणस्य दर्शनव्यपदेशात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति । अत्र प्रतिविधीयते, नेते दोषाः दर्शनमा तस्यान्तरार्थ विषयत्वात् । ... सामान्यविशेषात्मकस्यात्मनः सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् तस्य कथं सामान्यतेति चेदुच्यते चक्षुरिन्द्रियक्षयोप शमो हि नाम रूप एव नियमितस्ततो रूपविशिष्टस्यैवार्थग्रहणस्योपलम्भात । तत्रापि रूपसामान्य एव नियमितस्ततो नीलादिष्वेकरूपेणैव विशिष्टवत्यनुपलम्भाय तस्माचक्षुरिन्द्रियक्षयोपशम रूपविशिष्टार्थं प्रति समानः बारमव्यतिरिक्तक्षयोपशमामावादात्मापि तद्वारेण समान तस्य भावः सामान्यं तदर्शनस्य विषय इति स्थितम्।
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अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलम्भात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थः । न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ततो न दर्शनमिति न चतुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चदर्शनमन्यमित्य कर्तव्यम्। प्रश्न १विषय और विषयीके योग्य सम्बन्धके अनन्तर प्रथम ग्रहणको जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रहके द्वारा बाह्य अर्थ में रहनेवाले विधिसामान्यका ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहनेवाला विधि सामान्य अवस्तु है । इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञानका विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थको अवग्रह मानना चाहिए। परन्तु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्यको ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है। (दे० दर्शन / १/३/२) अतः चतुदर्शन नहीं बनता है? उत्तर- ऊपर दिये गये ये सब दोष ( दर्शनको नहीं प्राप्त होते है, क्योंकि वह अन्तरंग पदार्थको विषय करता है। और अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है ।... (दे० दर्शन / २ / ४) । और वह उस सामान्य विशेषात्मक आत्माका ही 'सामान्य' शब्दके वाच्यरूपमें ग्रहण किया है। प्रश्न २ – उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? उत्तर - चक्षुइन्द्रियावरणका क्षयोपशम रूपमें ही नियमित है । इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहॉपर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिकमें किसी एक रूपके द्वारा ही विशिष्ट वस्तुकी उपलब्धि नहीं होती है अतावरणका क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थके प्रति समान हैं। आत्माको छोडकर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी सयोपशमी अपेक्षा समान है। उस समानके भावको सामान्य बढ़ते हैं। यह दर्शनका विषय है। प्रश्न
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५. दर्शनोपको के भेदोका निर्देश
इन्द्रियसे जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं परन्तु आत्मा तो चक्षु इन्द्रियसे प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रियसे आत्माकी उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। ४. चक्षु इन्द्रियसे रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है परन्तु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता.. योंकि, पार्थको उपयोगरूप माननेमें विरोध जाता है। ५. पार्थका उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए सुदर्शनका अस्तित्व नहीं बनता है। उत्तरनहीं, क्योंकि यदि चदर्शन नहीं हो तो क्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आघार्यके अभाव में आधारकका भी अभाव हो जाता है । इसलिए अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए।
६.
की स्मृतिका नाम अदर्शन नहीं है।
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घ- १/१.१.१३१/३८३/८- दृष्टान्तस्मरममचर्यमिति केचिदाचते तत्र घटते एकेन्द्रियेषु चक्षुरभावतोऽदर्श मत्या भागासंजमनात दृश्शद उपवाचकइति चेत्र उपविषयस्मृतेर्व समरको क्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्तेः । ततः स्वरूपसं वेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् । - दृष्टान्त अर्थात् देखे हुए पदार्थका स्मरण करना अपनुदर्शन है. इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर एकेन्द्रियजीवों में इन्द्रियका अभाव होनेसे (पदार्थको पहिले देखना हो असम्भव होनेके कारण ) उनके अचक्षुदर्शनके अभावका प्रसंग आ जायगा । प्रश्न- दृष्टान्तमें 'दृष्ट' शब्द उपलम्भवाचक ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर--नहीं, क्योंकि उपलब्ध पदार्थको विषय करनेवाली स्मृतिको दर्शन स्वीकार कर लेनेवर मनको विषय रहितपनेकी आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूप संवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए ।
७. पाँच दर्शनोंके लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों २.१५/१०/२ पंच समाणमचव सममिदि एगदि सो मिट्ठ दो पिचासी अस्थि त्ति जाणायण कहो। कथं तेसि पच्चासत्ती । विसईदो पृथभ्रदस्स अक्कमेण सग-परपञ्चनखस्स चवरदंसण विसयस्सेव तेसि विसयस्स परेसिं जाणावणोवायाभावं पडि समागतादो प्रश्न- (चक्षुद्र से अतिरिक्त चार इन्द्रिय व मन विषयक) पाँच दर्शनों के लिए अदर्शन ऐसा एक निर्देश किस लिए किया (अर्थात इनका भी रसना दर्शन आदि रूपसे पृथक-पृथक व्यपदेश क्यों न किया ) 1 उत्तर- उनकी परस्परमें प्रत्यासति है, इस बातके जतलाने के लिए बैसा निर्देश किया गया है। प्रश्न- उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति कैसे है ? उत्तर--विषयीसे पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और परको प्रत्यक्ष होनेवाले ऐसे चक्षुदर्शनके विषय के समान उन पाँचों दर्शनों के विषयका दूसरोंके लिए ज्ञान करानेका कोई उपाय नहीं है। इसकी समानता पाँचों हो दर्शनोंमें है। यही उनमें प्रत्यासति है।
८. केवल ज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं
क. पा. १/१-२० / गा. १४३ / ३५७ मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो । केवलियं गाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं त्तिय समाणं | १४३ - मन:पर्ययज्ञानपर्यन्त ज्ञान और दर्शन इन दोनों विशेष अर्थात् भेद है, परन्तु केवलज्ञानकी अपेक्षासे तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान है। नोट- यद्यपि अगले शीर्षक नं०ह के अनुसार इनकी एकताको स्वीकार नहीं किया जाता है और उपरोक्त गाथाका भी खण्डन किया गया है, परन्तु ध./१ में इसी बात की पुष्टि की है । यथा - ) | ( ध. ६/३४/२)
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