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दर्शन
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५. दर्शनोपयोगके भेदोका निर्देश
२. चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण पं.सं./१/१३६-१४१ चक्खूणाजं पयासइ दीसइ त चरखुदं सणं विति । से सिदियप्पयासो णायव्वो सो अचवखु त्ति ॥१३६॥ परमाणुआदियाइ अंतिमरखध ति मुत्तदव्वाइ। तं ओहिसणं पुण जं पस्सइ ताई पच्चक्रवं ॥१४०॥ बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि । लोयालोयवितिमिरो सो केवल दंसणुज्जोवो ॥१४१॥ - चक्षु इन्द्रियके द्वारा जो पदार्थका सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते है। शेष चार इन्द्रियोसे और मनसे जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए ॥ १३६॥ सवलघु परमाणुसे आदि लेकर सर्वमहान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हे जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते है ॥१४०॥ बहुत जातिके और बहुत प्रकारके चन्द्र सूर्य आदिके उद्योत तो परिमित क्षेत्रमे ही पाये जाते हैं। अर्थात वे थोड़ेसे ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किन्तु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोकको और अलोकको भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत्को स्पष्ट देखता है ।१४१॥ (ध.१/१,१,१३१/ गा १६५-१९७/३८२), (ध ७/५.६.५६/गा.२०-२१/१००), (गो. जी./ मू./४८४-४८६/८८६) । पं. का./त. प्र./४२ तदावरणक्षयोपशमाञ्चक्षुरिन्द्रियवलम्श्रान्च मूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदाबरणक्षयोपशमाच्चक्षुवजितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दशनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एक मूर्त्तामूलद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तरस्वाभाविक केवलदर्शन मिति स्वरूपाभिधानम्। - अपने आवरणके क्षयोपशमसे और चश्चइन्द्रियके आलम्बनसे मूर्त द्रव्यको विकल रूप से ( एकदेश ) जो सामान्यतः अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे तथा चक्षुसे अतिरिक्त शेप चार इन्द्रियों और मनके अवलम्बनसे मूर्त अमूर्त द्रव्योंको विकल रूपसे ( एकदेश ) जो सामान्यत' अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही (बिना किसी इन्द्रियके अवलम्बनके ) मूर्त द्रव्यको विकलरूपसे ( एक्देश ) जो सामान्यतः अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षयसे केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्यको सकलरूपसे जो सामान्यतः अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार ( दर्शनोपयोगोके भेदोंका) स्वरूपकथन है। (नि. सा./ता,
वृ./१३, १४); (द्र. सं./टी /४/१३/६ ) । ३. बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थसे अन्तरंग विषयको ही बताती है
परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कन्धादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शन मिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादि कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति द्विदपोग्गलदव्याणमवगमादो पचक्रवादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्ति णि मित्तो तं ओहिदंसण मिदि घेतव्य । अण्णहा णाणदसणाणं भेदाभावादो। -प्रश्न-इन सूत्रवचनों मे (दे० पहिलेवाला शीक नं०२) दर्शनकी प्ररूपणा बाह्यार्थ विषयक रूपसे की गयी है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओका परमार्थ नहीं समझा। प्रश्न-वह परमार्थ कौन-सा है ? उत्तर-कहते है---१. ( गाथाके पूर्वार्ध का इस प्रकार है) जो चक्षुओको प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा ऑख द्वारा देखा जाता है. वह चक्षुदर्शन है'-इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इन्द्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है, जो कि चक्षु ज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है। प्रश्न--गाथाका गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यो नहीं करते। उत्तर नही करते, क्योकि वैसा करनेसे पूर्वोक्त समस्त दोषो का प्रसग आता है। २- गाथाके उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार है- 'जो देखा गया है, अर्थात जो पदार्थ शेष इन्द्रियों के द्वारा जाना गया है उससे जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए। ( इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि- ) चक्षु इन्द्रियको छोडकर शेष इन्द्रियज्ञानोकी उत्पत्तिसे पूर्व ही अपने विषयमें प्रतिबद्ध स्वशक्तिका, अचक्षुज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत जो सामान्यसे संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षुदर्शन है। ३-द्वितीय गाथाका अर्थ इस प्रकार है--- 'परमाणुसे लगाकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जितने मूर्त द्रव्य है, उन्हें जिसके द्वारा साक्षात देखता है या जानता है, बह अवधिदर्शन है।' इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए, कि-परमाणुसे लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जो पुद्गलद्रव्य स्थित है, उनके प्रत्यक्ष ज्ञानसे पूर्व ही जो अवधिज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है, वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ज्ञान और दर्शनमें कोई भेद नहीं रहता। (ध.६/१,६-१, १६/३३/२); (ध. १३/५, ५, ८५/३५५/७ ) ।
४. बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणाका कारण
ध.७/२, १, ५६/१००/१२ इदि बज्झत्यविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुत्रगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे-यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तव चक्षुदर्शन मिति नवते। चक्विदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्रबुणाणुप्पत्ति णिमित्तो तं चवखुर्दसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभजणमकाऊण उज्जुवत्थो किण्ण घेप्पदि। ण, तत्थ पुवुत्तासेसदोसप्पसंगादो।
शेषेन्द्रियैः प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दशनमिति। सेसिदियणाणुप्पत्तीदो जो पुवमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचखुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि ।
ध.१५/8/११ पुव्वं सव्वं पिसणमझत्थ विमय मिदि पर विद, संपहि
चयखुर्दसणस्स बज्झत्थविसत्तं परू विदं ति णेदं घडदे, पुब्वावरविरोहादो। ण एस दोसो, एवं विहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धसगसत्तिसंवेयणं चवखुदंसणं ति जाणावण?' बज्झत्थविसयपरूबणाकरणादो। = प्रश्न १-सभी दर्शन अध्यात्म अर्थको विषय करनेवाले हैं, ऐसी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। किन्तु इस समय बाह्यार्थको चक्षुदर्शनका विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वापर विरोध होता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकारके बाह्यार्थ में प्रतिबद्ध आरम शक्तिका संवेदन करनेको चक्षुदर्शन कहा जाता है, यह बतलानेके लिए उपर्युक्त बाह्यार्थ विषयताकी प्ररूपणा की गई है। ध.७/२,१,५६/१०१/४ कधमंतरंगाए चक्रिख दियविसयपडिबद्धाए सत्तीए चक्खि दियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिर गत्थोवयारेण बालजणबोहणठं चक्खूणं च दिस्सदि तं चक्रवदं सणमिदि परूवणादो।प्रश्न २-उस चक्षु इन्द्रियसे प्रतिबद्ध अन्तरंग शक्तिमें चक्षु इन्द्रियकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है । उत्तर-नहीं, यथार्थ मे तो चक्षु इन्द्रियकी अन्तर गमें ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु वालक जनो के ज्ञान करानेके लिए अन्तरंगमें बाह्यार्थ के उपचारसे 'चक्षुओको जो दिखता है, वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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