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दर्शन
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७. दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाएँ
३ मनःपर्ययदर्शनके अमावमें युक्ति रा.वा./६/१० वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति-यथा अवधिज्ञानं दर्शनपूर्वक तथा मन:पर्ययज्ञानेनापि दर्शनपुरस्सरेण भवितव्यमिति चेत; तन्न; किं कारणम् । कारणाभावात् । न मन पर्ययदर्शनावस्णमस्ति । दर्शनावरणचतुष्टयोपदेशाद, तद्भावात तत्क्षयोपशमाभावे तन्निमित्तमन पर्ययदर्शनोपयोगाभावः । (११८/५१८/३२) । मनःपर्य यज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानवत न स्वमुखेन वर्तते। कथ' तहि । परकीयमन प्रणालिकथा। ततो यथा मनोऽतीतानागतार्थाश्चितयति न तु पश्यति तथा मन.पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यन्तौ वेत्ति न पश्यति । वर्तमानमतिमनोविषयविशेषाकारेणैव प्रतिपद्यते, तत' सामान्यपूर्वकवृत्त्यभावात् मन.पर्ययदर्शनाभावः (६१६/५१६/३)।-प्रश्न-जिस प्रकार अवधिज्ञान दर्शन पूर्वक होता है, उसी प्रकार मन पर्ययज्ञानको भी दर्शन पूर्वक होना चाहिए। उत्तर-१. ऐसा नहीं है, क्योंकि, तहाँ कारणका अभाव है। मन पर्यय दर्शनावरण नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि चार ही दर्शनावरणोंका उपदेश उपलब्ध है। और उसके अभावके कारण उसके क्षयोपशमका भी अभाव है, और उसके अभावमे तन्निमित्तक मन'पर्ययदर्शनोपयोगका भी अभाव है। २. मन पय यज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्वमुखसे विषयोंको नहीं जानता, किन्तु परकीय मनप्रणालीसे जानता है । अत. जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थोंका विचार चिन्तन तो करता है पर देखता नहीं, उसी तरह मन.पर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यतको जानता तो है. पर देखता नहीं । वह वर्तमान भी मनको विषयविशेषाकारसे जानता है, अतः सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होनेसे मनःपर्यय दर्शन नहीं बनता। घ. १/१,१,१३४/३८५/२ मनापर्ययदर्शन तहि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात। - प्रश्न-मनापर्यय दर्शनको भिन्न रूपसे कहना चाहिए। उत्तर-३. नहीं, क्योंकि, मन पर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए मनःपर्यय दर्शन नहीं होता। (ध. ३/ १,२,१६१/४५६/१०); (घ १३/५,५,८५/३५६/५); (ध.६/१,६-१,१४/ २६/२); (ध.१/४,१,६/५३/३ ) । दे. ऊपर श्रुत दर्शन सम्बन्धी-(उत्तर ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणभूत प्रयत्नरूप स्वसवेदनको दर्शन कहते हैं, परन्तु यहाँ उत्तर ज्ञानकी उत्पत्ति का कार्य मतिज्ञान ही सिद्ध कर देता है।)
४. मति ज्ञान ही श्रुत व मनःपर्ययका दर्शन है द्र.सं./टी./४४/१८८/६ श्रुतज्ञानमन पर्ययज्ञानजनक यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम्, तदपि दर्शनपूर्वकत्वात्तदुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमनःपर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्यमिति ।-यहाँ श्रुतज्ञानको उत्पन्न करनेवाला जो अवग्रह और मन:पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला ईहारूप मतिज्ञान कहा है। वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है इसलिए वह मतिज्ञान भी उपचारसे दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन दोनोंको भी दर्शन पूर्वक जानना चाहिए ।
दे दर्शन/३/२ ( वे वलदर्शनोपयोग भी तद्भवस्थ उपसर्ग केवलियोंकी अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी है) नोट-( उपरोक्त अन्तर्मुहूर्तकाल दर्शनोपयोगकी अपेक्षा है और काल प्ररूपणामे दिये गये काल क्षयोपशम सामान्यकी अपेक्षासे है, अतः दोनों में विरोध नहीं है। २. लब्ध्यपर्याप्त दशामें चक्षदर्शनोपयोग संभव नहीं पर निवृत्त्यपर्याप्त दशामें संभव है ध १/१,३.६७/१२६/८ यदि एवं, तो लद्धिअपजत्ताणं पि चक्रबुदंसणित पसज्जदे । तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज दिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो। ण एस दोसो, णिव्यत्तिअपज्जत्ताणं चवखुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चवखुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचवखुदंसणखओवसमदंसणादो। चउरिदियचिदियलद्धिअपज्जनाणं चक्खुदंसणं णत्थि, तत्थ चक्खुदंसणोबोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्रखुदंसणवखओवसमाभावादो।प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थात् अपर्याप्तककालमें भी क्षयोपशमकी अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है) तो लब्ध्यपर्याप्तक जीर्वोमें भी चक्षुदर्शनीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके चक्षुदर्शन होता नहीं है । यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी चक्षुदर्शनोपयोगका सद्भाव माना जायेगा, तो चक्षुदर्शनी जीवोंके अवहारकालको प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपनेका प्रसंग प्राप्त होता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन होता है। इसका कारण यह है, कि उत्तरकालमें, अर्थात अपर्याप्त काल समाप्त होनेके पश्चात् निश्चयसे चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनका क्षयोपशम देखा जाता है। हाँ चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन नहीं होता, क्योंकि, उनमें चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनावरणकर्म के क्षयोपशमका अभाव है। (ध.४/१,५,२७८/ ४५४/६)।
1. मिश्र व कार्माणकाययोगियों में चक्षदशनोपयोगका"
अभाव पं. सं./प्रा /४/२७-२६ ओरालमिस्स-कम्मे मणपज्जविहंगचक्रोहीणा ते ॥२७॥ तम्मिस्से केबलदुग मणपज्जविहंगचक्खूणा ।२८। केवलदुयमणपज्जव-अण्णाणेतिएहि होंति ते ऊणा। आहारजुयलजोए...॥२६ =योगमार्गणाकी अपेक्षा औदारिक मिश्र व कार्माण काययोगमें मन:पर्ययज्ञान विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन तीन रहित ६ उपयोग होते है ।२६। वैक्रियक मिश्र काययोगमें केवल द्विक, मनःपर्पय, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँचको छोड़कर शेष ७ उपयोग होते हैं।२८। आहारक मिश्रकाय योगमें केवल द्विक, मन पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छहको छोड़कर शेष छः उपयोग होते हैं (अर्थात आहारमिश्रमें चक्षुदर्शनोपयोग होता है)। ४. दर्शनमार्गणामें गुणस्थानोंका स्वामित्व ष, वं. १/१,१/सू. १३२-१३५/३८२-३८५ चक्रबुदसणी चउरिदियप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति ।१३३। अचक्रबुदंसणी एइंदियप्पहुडि जाव रखीणकसायवीयराय छदुमत्था त्ति ।१३३। ओधिदसणी असंजदसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव रवीणकसायवीयरायछदुमत्थात्ति ।१३४। केवलदसणी तिस ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ।१३५।- चक्षुदर्शन उपयोगवाले जीव चतुरिन्द्रिय (मिथ्यादृष्टि) से लेकर ( संज्ञी पंचेन्द्रिय)क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ।१३२॥ अचक्षुदर्शन उपयोगवाले जीव एकेन्द्रिय (मिथ्यादृष्टि ) से लेकर ( संज्ञी पंचेन्द्रिय) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुण
७. दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुछ प्ररूपणाएँ
१. दर्शनोपयोग अन्तर्मुहूर्त अवस्थायी है ध. १३/१.५.२३/२१६/१३ ज्ञानोत्पत्ते' पूर्वावस्था विषयविषयिसंपात. ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसंतत्युत्पत्त्युपलक्षित' अन्तर्मुहूर्तकालः दर्शनव्यपदेशभाक् । ज्ञानोत्पत्तिकी पूर्वावस्था विषय व विषयीका सम्पात ( सम्बन्ध ) है, जो दर्शन नामसे कहा जाता है । यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके कारणभूत परिणाम विशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी है।)
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