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ज्ञान
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देशघाती स्पर्धको के उदयसे अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानिको औदयिक भाव माननेका प्रसंग आता है ? उत्तर- नहीं आता, क्योंकि, वहाँ सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका अभाव है। प्रश्न- तो फिर अज्ञानिरोप मिकरण क्या है उत्तर- (दे० क्षयोपशमका लक्षण ) । ५. मिथ्याज्ञान दशोनेका प्रयोजन
ससा ता.वृ/२२/२१/१ एममज्ञानिज्ञामिजीगत क्षणं इला निर्विकारस्वसंवेदन भेदज्ञाने स्थिखा भावना कार्येति तामेव भावनां हृदयति । = इस प्रकार ज्ञानी ओर अज्ञानी जीवका लक्षण जानकर, निर्विकार स्वसंवेदन लक्षणता जो भेदज्ञान, उसमें स्थित होकर भावना करनी चाहिए तथा उसी भावनाको दृढ करना चाहिए।
IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान
१. निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश
१. निश् य सम्यग्ज्ञानका माहात्म्य
प्र. सा. / / ८० जो जाणदि अरहंत दव्बत्त गुणत्त पज्जतेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादु तस्स लयं १८०१ = जो अर्हन्तको द्रव्यपने, गुणपने ओर पर्यायपने जानता है, वह आत्माको जानता है और उसका मोह अवश्य लयको प्राप्त होता है । र. सा./१४४ हजार परसमयस समयादिविभे । परसमयससमयादिविभेयं अप्पान जागर सागम्हणाय होई ॥१४४॥ आत्माके हो भेद
दव्वगुणपज्जएहि
हैं - एक स्त्रसमय और दूसरा परसमय। जो जीव इन दोनों को द्रव्य, गुण व पर्यायसे जानता है, वह ही वास्तवमे आत्माको जानता है। वह जोब ही शिवपथका नायक होता है । भ.आ./मू./१६८-७६६ णाणुज्जोवो जोवो णाणुज्जीवस्स णत्थि पादो दीने सूरो णा जगनसे १७६८ पयासजा स्रोत संगम व गुतिय तिष्ठपि समाओगे मोक्खो जिनसासणे दिट्ठा ॥७६ । = ज्ञानप्रकाश ही उत्कृष्ट प्रकाश है, क्योंकि किसीके द्वारा भो इसका प्रतिघात नहीं हो सकता । सूर्यका प्रकाश यद्यपि उत्कृष्ट समझा जाता है, परन्तु वह भी अल्पमात्र क्षेत्रको ही प्रकाशित करता है। ज्ञान प्रकाश समस्त जगत्को प्रकाशित करता है | ७६८ | ज्ञान संसार और मुक्ति दोनोंके कारणोकों प्रकाशित
करता है । व्रत, तप, गुप्ति व सयमको प्रकाशित करता है, तथा तीनोके संयोगरूप जिनोपदिष्ट मोक्षको प्रकाशित करता है । ७६६। यो.सा.अ./१/३९ अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽहम् पुरुषार्थ करें ज्ञानं ज्ञानं निर्वृतिसाधनम् ॥३१३- 'ज्ञान' अनुष्ठानका स्थान है, मोहान्धकारका विनाश करनेवाला है, पुरुषार्थ का करनेवाला है, और मोका कारण है ।
दीपिका ज्ञानमाराधय
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ज्ञा. / ७ / २१-२३ यत्र बालश्चरत्यस्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः । बाल स्वमपि बध्नाति मुच्यते तनविध वम् | २१| दुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मीसमदनमहसि व्यसनपनसमोर विश्व॥२२॥ अस्मिन्संसारवले यमभुजग विद्याकानि पश्ये कोष से कुटिलगसिरि पातसंतापभीमे महान्धा संचरन्ति स्लटनरिता प्राणिनस्तान देते, यावद्विज्ञानभानुर्भवभयदमिदं नोच्छिनत्यन्धकारम् ||२३| -- जिस मार्ग मे अज्ञानी चलते हैं उसी मार्ग मे जिन चलते हैं. परन्तु अज्ञानी तो अपनी आत्माको बाँध लेता है और तत्त्वज्ञानी बन्धरहित हो जाता है, यह ज्ञानका माहात्म्य है | २१| हे भव्य तू ज्ञानका आराधन कर, क्यो कि, ज्ञान पापरूपी तिमिर नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है और मोहरूपी लक्ष्मी के निवास करनेके लिए कमल के समान है। कामरूपी सर्प के कीलने मन्त्र के समान है, ममरूपी हस्तोको सिंहके समान है, आपदारूपी मेत्रोंको उडानेके लिए पवन के
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IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान
समान है, समरत तत्त्वोको प्रकाश करनेके लिए दीपकके समान है तथा विषयरूपी मत्स्योंको पकड़नेके लिए जालके समान है | २२ | जब इस ससाररूपी मनमे सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य उदित होकर संसारभयदायक अज्ञानान्धकारका उच्छेद नहीं करता तबतक ही मोहान्ध प्राणी निज स्वरूपसे च्युत हुए गिरते पड़ते चलते है। कैसा है संसाररूपी वन - जिसमें कि पापरूपी सर्पके विषसे समस्त प्राणी व्याप्त है, जहाँ क्रोधादि पापरूपी बडे-बडे पर्वत हैं, जो वक्र गमनबाली दुर्गतिरूपी नदियों में गिरनेसे उत्पन्न हुए सन्तापसे अतिशय भयानक हैं । ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाश होनेसे किसी प्रकारका दुख व भय नहीं रहता है | २३ |
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२. भेदविज्ञान ही सम्यग्ज्ञान
६. उ० / ३३ गुरूपदेशादभ्यासात्संविते स्वपरान्तरम् जानाति यस जानाति मोक्षसीवं निरन्तरम् ॥३३३- जो कोई प्राणी गुरूपदेशसे अथवा शास्त्राभ्याससे या स्वात्मानुभवसे स्व व परके भेदको जानता है वही पुरुष सदा मोक्ष जानता है।
ससा / आ./२०० एवं सम्यग्दृष्टि सामान्येन विशेषेण च, परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्याऽपि विविच्य टड्कोत्कीर्णे कज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्व विजानाति ।
स. सा./आ /३१४ स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । - इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावो से विवेक (भेदज्ञान ) करके टंकोरकीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्मतत्त्व उसको जानता है । आत्मा स्व परके भेदविज्ञान ज्ञायक होता है।
३. अभेद ज्ञान या इन्द्रियज्ञान अज्ञान हैं।
स. सा. / ३१४ स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति । स्व परके एकत्व ज्ञानसे आत्मा अज्ञायक होता है ।
प्र.सा./त.प्र./५५ परोक्ष हि ज्ञानं आत्मनः स्वयं परिच्छेत्तम मरा मम्योपान्तानुपात प्रत्यय सामग्री मार्गगव्यास यात्यन्त विठुराय मलम्बमानमनन्ताया' इते परमार्थतोऽर्हति । अतस्तय - परोक्षज्ञान आत्मपदार्थको स्वयं जानने में असमर्थ होनेसे उपास और अनुपात परपदार्थ रूप सामग्री को ढूँढनेकी उपग्रताले अत्यन्त चंचल-सरल अस्थिर पर्तता हुआ, अनन्त शक्तिसे च्युरा होनेसे अत्यन्त नि होता हुआ परमार्थतः अज्ञानमें गिने जाने योग्य है; इसलिए वह है है ।
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४. आत्म ज्ञानके विना सर्व आगमज्ञान अकिचिकर है मो. पा/मू./१०० जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहेय चारिते। बालसुदं चरण हवेइ अप्पस्स विवरीयं | १०० = आत्म स्वभाव से विपरीत बहुत प्रकारके शास्त्रोंका पढना और बहुत प्रकार के चारित्रका पालन भी बाल श्रुते बालचरण है । (मू आ./८७) । भू. आ / ०६४ धीरो वहरागपरो थोवं हिय सिक्खिदूण सिज्झदि हु । प हि सिझहि वैरग्गविहीन पडदूग ससत्या धीर और वैराग्यपरायण तो अल्पमात्र शास्त्र पढा हो तो भी मुक्त हो जाता है. परन्तु वैराग्य विहीन सर्व शास्त्र भी पढ़ ले तो भी मुक्त नहीं होता । सा./१४ विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जानपि मुच्यते देहात्मदृष्टि
तारमा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते । ६४ । = शरीरमे आत्मबुद्धि रखनेबाला महिरात्मा सम्पूर्ण शास्त्रोको जान लेनेयर भी मुक्त नहीं होता और हमे भिन्न आत्माका अनुभव करनेवाला अन्तरात्मा सोता और उन्मत्त हुआ भी मुक्त हो जाता है । ( यो सा. यो / १६ ) ( ज्ञा / 12/800) 1
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