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तीर्थकर
२. तीर्थकर प्रकृति बन्ध सामान्य निर्देश
१. तीर्थंकर निर्देश
१. तीर्थ करका लक्षण ध.१/१,१,१/गा.४४/५८ सकलभुवनै कनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठ । विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वै चतु'षष्टिः ।४४) -जिनके ऊपर चन्द्रमाके समान धवल चौसठ चंवर ठुरते हैं, ऐसे सकल भुवनके
अद्वितीय स्वामीको श्रेष्ठ मुनि तीर्थकर कहते है। भ.आ./मू./३०२/५१६ णित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्यय
धुवम्मि । भ. आ /वि./३०२/५१६/७ श्रुतं गणधरा...तदुभयकरणात्तीर्थकरः ।... मार्गो रत्नत्रयात्मकः उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति । मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ऐसे चार ज्ञानोके धारक, स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षा कल्याणादिकोमें चतुर्णिकाय देवोंसे जो पूजे गये हैं, जिनको नियमसे मोक्ष प्राप्ति होगी ऐसे तीर्थंकर...। श्रुत
और गणधरको भी जो कारण हैं उनको तीर्थंकर कहते हैं। "अथवा रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्गको जो प्रचलित करते है उनको तीर्थ कर कहते हैं। स.श./टी./२/२२२/२४ तीर्थ कृतः संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागमः तत्कृतवतः । = संसारसे पार होनेके कारणको तीर्थ कहते है, उसके समान होनेसे आगमको तीर्थ कहते है, उस आगमके कर्ताको तीर्थकर है। त्रि.सा./६८६ सयलभुवणेकणाहो तित्थयरो कोमुदीव कुदं वा। धवलेहि चामरेहि चउसटिहिं विजमाणो सो ६८६। - जो सकल लोकका एक अद्वितीय नाथ है। बहुरि गडूलनी समान वा कुन्देका फूलके समान श्वेत चौसठि चमरनि करि वीज्यमान है सो तीर्थ कर जानना।
सौ अठतीस सत्त्व पाइये, तिसके छह महीना आयुका अवशेष रहे मनुष्यायुका बन्ध होई अर नारक उपसर्गका निवारण होइ अर गर्भ कल्याणादिक होई । (गो.क./जी.प्र./५४६/७०८/११); (गो.क /जी प्र./५४६/७०८/११)
५. कदाचित् तीन वदो कल्याणक मी सम्भव हैं गो.क./जी.प्र./५४६/७०८/११ तीर्थबन्धप्रारम्भश्चरमाङ्गाणा संयतदेश
संयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणादीनि त्रीणि, प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे द्वे । - तीर्थंकर बन्धका प्रारम्भ चरम शरीरीनिकै असंयत देशसंयत गुणस्थानविय होइ तो तिनके तप कल्याणादि तीन ही कल्याण होइ अर प्रमत्त अप्रमत्त विर्षे होई तो ज्ञान निर्वाण दो ही कल्याण होई (गो.क./जी.प्र./३८१/५४६/५) ।
६. तीर्थंकरोंके शरीरकी विशेषताएँ मो.पा./टी./३२/६८ पर उधृत-तित्थयरा तप्पियरा हलहरचक्की ये अद्धचक्की य । देवा य भयभूमा आहारो अस्थि णस्थि नीहारो।। तथा तीर्थ कराणां स्मश्रणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुन्तलास्तु भवन्ति । - तीर्थंकरोके, उनके पिताओंके, बलदेवोंके, चक्रवर्तकि, अर्धचक्रवर्तीके, देवोके तथा भोगभूमिजोके आहार होता है परन्तु नीहार नहीं होता है। तथा तीर्थकरों के मूछ-दाढी नही होती परन्तु शिरपर बाल होते हैं । निगोद से रहित होता है। ७. हुंडावसर्पिणीमें तीर्थंकरोंपर कदाचित् उपसर्ग भी होता है ति.प./४/१६२० सत्तमतेवीसंतिमतित्थयराण च उबसग्गो १६२०॥
- (हुंडावसर्पिणी काल मे) सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थंकरके उपसर्ग भी होता है।
८.तीसरे कालमें भी तीर्थकरकी उत्पत्ति सम्भव ति.प./४/१६१७ तक्काले जायंते पढमजिणो पढ़मचक्की य ।१६१७५
=(हंडावसर्पिणी) कालमे प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं ।१६१७। ९. सभी तीर्थकर आठ वर्षकी आयुमें देशवती हो
जाते हैं म.पु /५३/३५ स्वायुराद्यष्टवभ्यः सर्वेषां परतो भवेत् । उदिताष्टकषायाण तीर्थेशा देशसंयमः ॥३५॥ =जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ कषायोंका ही केवल उदय रह जाता है, ऐसे सभी तीर्थकरोके अपनी आयुके आठ वर्ष के बाद देश संयम हो जाता है।
२ तीर्थकर माताका दूध नहीं पीते । म.पु./१४/१६५ धाग्यो नियोजिताश्चास्य देव्य. शक्रेण सादरम्। मज्जने मण्डने स्तन्ये संस्कारे क्रीडनेऽपि च ।१६५॥ इन्द्रने आदर सहित भगवानको स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीरके संस्कार करने और खिलानेके कार्य करने में अनेकों देवियोंको धाय बनाकर नियुक्त किया था।१६॥ ३. गृहस्थावस्थामें ही अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग नहीं करते ह.पु./४३/७८ योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचन । जानन्नपि न सब यान्न विद्यो केन हेतुना ७८ = [कृष्णके पुत्र प्रद्य इनके धूमकेतु नामक असुर द्वारा चुराये जानेपर नारद कृष्णसे कहता है)...यहाँ जो तीन ज्ञानके धारक नेमिकुमार (नेमिनाथ) हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेगे। किस कारणसे नहीं कहेगे। यह मैं नहीं जानता।
१. तीथंकरोंके पाँचकल्याणक होते हैं गो.जी./जी.प्र./३८१/६ अथ तृतीयभवे हन्ति तदा नियमेन देवायुरेष बध्वा देवो भवेत् तस्य पञ्चकल्याणानि स्यु' । यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्वः स प्रथमपृश्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते। तस्य षण्मासावशेषे बद्धमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवन्ति । - तीसरा भव विषै घाति कर्म नाश करै तो नियम करि देवायु ही बांधें तहाँ देवपर्याय विषै देवायु सहित एकसौ अठतीस सत्त्व पाइये. तिसके छः महीना अवशेष रहैं मनुघ्यायुका बन्ध होइ अर पंच कल्याणक ताकै होइ । बहुरि जाकै मिथ्यावृष्टि विर्षे नरकायुका बंध भया था अर तीर्थ करका सत्त्व होई तो वह जीव नरक पृथ्वी विर्षे उपजै तहाँ नरकायु सहित एक
२. तीर्थकर प्रकृति बन्ध सामान्य निर्देश
१.तीर्थकर प्रकृतिका लक्षण
स.सि./८/११/३६२/७ आईन्स्यकारणं तीर्थकरत्वनाम। -आर्हत्यका
कारण तीर्थ कर नामकर्म है। (रा.बा./८/११/४०/५८०); (गो.क./जी.प्र./
३३/३०/१२)। घ.६/१,६-१,३०/६७/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि
तं तित्थयरं णाम। -जिस कर्मके उदयसे जीवकी त्रिलोकमें पूजा होती है वह तीर्थंकर नामकर्म है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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