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तीर्थकर
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ध. १३/५,१०१/३६६/७ जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पानिति दुवाससंग कुदि से तित्ययरणामं जिस कर्मके उदयसे जीव पाँच महा कल्याणकोको प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है ।
२. इसका बन्ध तीनों वेदोंमें सम्भव है पर उदय केवल पुरुष वेदमें हो
गो क./जी.प्र./११/१११/१५ स्त्रीषंढवेदयोरपि तीर्थाहारकबंधो न विरुप्यते उदयस्यैष बेदिषु नियमाय स्त्रीवेदी पर नपुंसकवेदी के तीर्थंकर अर बाहारक द्विकका उदय तो न होइ पुरुषवेदी ही के हो बरबंध होने विह्नि विरोध नाहीं ।
दे० वेद /७/६ षोडशकारण भावना भानेवाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता ।
३. परन्तु देवियोंके इसका बन्ध सम्भव नहीं शोक/जी.प./९९९/१६ कम्पस्त्रीषु च तीर्थवन्धाभावात् वासिनी देवांना तीर्थकर प्रकृतिका मन्ध सम्भव नाहीं (गो.क./ जी... / ११२/१६/१३) ।
कल्प
४. मिध्यात्व अभिमुख जीव तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्ध करता है
सस्स
म बं / २ / ३७०/२५७/८ तित्थयरं उक्क० ठिदि० कस्स । अण्णद० मणुअर्स सम्माहिहिस्स सागार जागार० तप्पाओोगस्स० मिथ्यादिदिहस्स प्रश्न- तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बन्धका स्वामी कौन है ? उत्तर--जो साकार जागृत है, त प्रायोग्य संपले परिणामवाला है और निष्यात्म के अभिमुख है ऐसा अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है।
५. अशुभ लेश्याओंमें इसका बन्ध सम्भव है किणीता तिथवरं तं काव
म.नं./९/१९८०/१३२/४
कृष्ण और मील में सीकर फो संयुक्त करना चाहिए। गो.क./जी.प्र./३५४/०६/८ अशुभलेश्यात्रये तीर्थबन्धप्रारम्भाभावात् । बनारकापोऽपि द्वितीयतृतीययोः कपोतलेश्ययैव गमनाय । -अशुभ संध्या निवें तीर्थंकरका प्रारम्भ न होय मरि जायें नरका बँध्या होइ सो दूसरी तीसरी पृथ्वी विषै उपजै तहाँ भी कपोत लेश्या पाइये ।
६. तीर्थंकर संतकर्मिक तीसरे मव अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है
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६.८/३.३८/०५/१ पारद्धतित्वयरबंधभवादो सदियभने तित्ययरसंतकम्मपत्रीमा मोक्लममणियमादो जिसमें सीवर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ किया है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृतिके सत्वयुक्त जीवोंके मोक्ष जानेका नियम है।
७. तीर्थंकर प्रकृतिका महत्व
६.पू./२/२४
नोभासयगर्भस्ता रवि प्रावृषं यथा ॥२४॥ जिस प्रकार मेघमालाके भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षा ऋतुको सुशोभित करता है। उसी प्रकार माता प्रियकारिणीको वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था ।
म.पू./१२/१६-६७१६३ पण्मासानिति सामप्तत् पुण्ये नाभिनुप स्वर्गावतरणाद्भर्त्तु प्राक्तरां द्य ुम्नसंततिः | १६ | पश्चाच नवमासेषु
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३. तीर्थकर प्रकृति बन्धमें गति ....
वसुधारा तदा मता । अहो महान् प्रभावोऽस्य तीर्थ कृत्त्वस्य भाविनः तदाप्रभृतिशासनाताः सिषेभिरे दिवकुमार्योऽचारिण्यः १६३ कुबेरने स्वामी वृषभदेव के स्वभावतरणसे छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराजके घरपर रत्न और सुवर्ण की वर्षा को भी और इसी प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी। सो ठीक है क्योंकि होनेवाले तीर्थंकरका आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है। उसी समय से लेकर इन्द्रकी आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्योंके द्वारा दासियोंके समान मरुदेवीकी सेवा करने लगीं । १६३ | और भी-दे० कल्याणक ।
३. तीर्थंकर प्रकृतिबन्धमें गति, आयु व सम्यक्त्व सम्बन्धी नियम
9. तीर्थंकर प्रकृतिबन्धकी प्रतिष्ठापना सम्बन्धी नियम
घ. ०/३.४० /०८/० तत्थ मनुस्सगदी पे तिरपयरकम्मस्स बंधपारंभी होदि ण अनास्थेति । मसाणोमलवियजी दस्य सहकारिकारमरस तिरथरणामयम्मबंधपारंभस् तेग बिना समुप्यतिविरोहादो । -मनुष्य गतिमें ही तीर्थकर कर्म के बन्धका प्रारम्भ होता है, अन्यत्र नहीं। क्योकि अन्य गतियोंमे उसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्मके बन्धके प्रारम्भका सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगतिके बिना उसके बन्ध प्रारम्भकी उत्पत्तिका विरोध है। गो. क./जी. प्र. / १३/०८/७)1
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२. प्रतिष्ठापना के पश्चात् निरन्तर बन्ध रहनेका नियम ६. ८/३.३८/०४/४ गिरतरो मंचों, सबंध कारणे संते अद्धा बंधुवरमाभावादी । बन्ध इस प्रकृतिका निरन्तर है, क्योंकि अपने कारण होने पर कालक्षयसे बन्धका विश्राम नहीं होता ! गो.क./जी.प्र./१३/०८/१० न च तिर्यग्यजिगत्रिये सीर्यवन्धाभावो ऽस्ति बन्धकस्य उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्ताधिकान पूर्वकोटिद्वयाधिक प्रमस्त्रित्सागरोपमादतिर्यच गति बिना तीनों गति विषै तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध है । ताकौ प्रारम्भ कहिये तिस समयत लगाय समय समय विषै समयबद्ध रूप बन्ध विषै तीर्थकर प्रकृतिका भी गंध हुआ करे है हो उपने अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाट दोय कोडि पूर्व अधिक तेतोस सागर प्रमाणकाल पर्यन्तमय हो है ( गो . भाषा ७०५/१०/१५) (गो. भाषा १६७/५२१/८ ) ।
३. नरक व तिर्यंच गति नामकर्मके बन्धके साथ इसके बन्धका विरोध है
घ. ८/३.२८/०४/२ दिवसरपंचस्स गिरव-तिरिचगह सह विरो हादो | तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका नरक व तियंच गतियोंके बन्धके साथ विरोध है ।
४. इसके साथ केवल देवगति बँधती है
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६. ८/२.३८/०४/२ उवरिमा देवमहसंजुतं मधुसगदिजीवा तित्यमरमं धस्स देवराई मतृण अगईहि सह विरोहादो - उपरिम जीव देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति में स्थित जीवों तीर्थंकर प्रकृतिमन्धका देवगतिको छोड़कर अन्य पत्तियों के साथ विरोध है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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