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नय
व्यवहार व निश्चयकी हेयोपादेयताका
समन्वय
१ निश्चयनयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन । व्यवहारनयफे निषेधका कारण
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३ व्यवहारनयके निषेधका प्रयोजन ।
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व्यवहारनयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन । परमार्थसे निश्चय व व्यवहार दोनों देय हैं।
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१ दोनों नयोंगे विषयविरोध निर्देश ।
दोनों नयोंगे स्वरूपविरोध निर्देश।
निश्चय व्यवहार निषेध्यनिषेधक भावका समन्वय । -दे० नम / V/६/२ ॥
निश्चय व्यवहारके विषयोंका समन्वय
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३ दोनोंमें मुख्य गौण व्यवस्थाका प्रयोजन । नयोंमें परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था ।
-दे० स्याद्वाद / ३ । दोनोंमें साध्य साधनभावका प्रयोजन दोनोंकी परस्पर सापेक्षता ।
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६ दोनोंकी सापेक्षताके उदाहरण ।
- दे० नय / / ३ ।
दोनोंकी सापेक्षताका कारण व प्रयोजन।
इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं।
ज्ञान व क्रियानयका समन्वय । - दे० चेतना /३/८ ।
I नय सामान्य
१. नय सामान्य निर्देश
१. नय सामान्यका लक्षण
१. निरुपय
घ. १/१,९,१ / ३,४/१० उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कर्यं तु दन अत्यं जयंति पच्चतमिति सदो से गया भनिया || जयदि प्ति गयो भणिओ बहूहि गुण पज्जएहि जं दव्वं । परिणाम खेत्तकालं - तर अभिमसभा 181 उच्चारण किये अर्थ, पद और उसमें किये गये को देखकर पदार्थको ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है. इसलिए वे नय कहलाते है । ३॥ रु. पा. १/१३१४/२१०/गा. ११०/२५६) अनेक गुण और अनेक पर्यायसहित अथमा उनके द्वारा एक परिणामसे दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें और एक कालसे दूसरे कालमें अविनाशी स्वभावरूपसे रहनेवाले द्रव्यको जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे न कहते हैं |३|
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/३५ जीवादी पदार्थात् नमन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपलम्भयन्ति, व्यञ्जयन्ति इति नयः ।-जीवादि पदार्थोंको जो लाते हैं, प्राप्त कराते हैं. बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रगट कराते हैं, नय हैं। आ.प./१ नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति
भा० २-६५
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I नय सामान्य
प्रापयतीति वा नयः । = नाना स्वभावोंसे हटाकर वस्तुको एक स्वभावमें जो प्राप्त कराये उसे नय कहते है। (न. च. श्रुत / पृ. १ ) ( न. वृति/५२६) (नवृति/ सूत्र ६) (न्यायावतार टीका/ पृ. ८२), स्या. म. / २८/३१०/१० ) ।
स्वा म. / २७/३०३/२० नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविषयमभिरिति नीतयो नयाः । - जिस नीतिके द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात प्रतीतिके विषयको प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहते है। (स्पा २८/२००/१५)।
२. वक्ताका अभिप्राय
ति.प./१/८३ मा होदि प्रमाण पत्र वास्स हिदियभाव सम्यग्ज्ञानको प्रमाण और ज्ञाताके हृदय अभिप्रायको नय हैं (सि.वि./मू./१०/२/६८३) ।
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ध. १/१,१.१ / ११ / १७ ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभित्रायो ऽपरिग्रहः | ११ सम्याज्ञानको प्रमाण कहते हैं, और ज्ञाता के अभिप्रायको नय कहते हैं। चीत्र/का ५२ ); ( लघीयस्त्रय स्व वृत्ति/का. ३०); प्रमाण संग्रह / श्लो. ८६ ); (क. पा. १/१३-१४/६ १६८/रो ७५/२००) (४.३/१.२.२/१५/१ ) ( ध. १/४,१,४५/१६२/७ ) ( पं. का./ता.वृ./४३/८६/१२ ) । आ. प./ शातुरभिप्रायो वा नयः । ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते है। (न.च.वृ./१७४) (म्या दी./३/३८२ / १२५ ) । प्रमेयकमलमार्तण्ड / पृ. ६७६ अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वं शग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नमः । प्रतिपक्षी अर्थाद विरोधी धर्मोका निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्मको ग्रहण करनेवाला ज्ञाताका अभिप्राय नय है ।
प्रमाणनय तत्त्वालंकार/७/१ ( स्या. म. / २८/३१६ / २६ पर उद्धृत ) प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नम इति । वक्ताके अभिशय विशेषको नय कहते है। (स्या. म. २८/३१०/१२ ) ।
३. एकदेश वस्तुग्राही
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स.सि./१/३३/९४०/० मस्तन्यनेकान्तात्मन्यनिरोधेन हेत्वगात्साध्य विशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नयः । अनेकान्तात्मक वस्तु विरोध के बिना हेतुको मुख्यतासे साध्यविशेषको यथार्थताको प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोगको नम कहते हैं (ह. २८/३१)। सारसंग्रह (क. पा. १/१३-१४/२१०/१) अनन्तपर्यायात्मकस्थ वस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यपेक्षा निरवद्यप्रयोग नयः । अनन्तपर्यायात्मक वस्तुकी किसी एक पर्यायका ज्ञान करते समय निर्दोष युक्तिको अपेक्षा जो दोषरहित प्रयोग किया जाता है यह नम है (. १/४.१.४५/१६०/२) । श्लो. वा. २/१/६/४/३२१ स्वार्थेकदेश निर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः - अपनेको और अर्थको एकदेशरूपसे जानना नयका लक्षण माना गया है। श्लो. वा. २/१/६/१०/३६०/११) । न.च.वृ./१७४ रससंग नयं)। वस्तुके अंकी ग्रहण करनेवाला नय होता है (न.च.वृ./१०२) (का. अ./मू./२१)।
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प्र.सा./ता.वृ./१८१/२४५/१२
देश परीक्षा तात्रयलक्षणं-वस्तु की एकदेश परीक्षा नयका लक्षण है (पं.का./ता. १/४६/८६/१२)। का. अ/यू./२६४ मागाधम्मजुर पिय एवं धम्मं पि पुच्चदे अर्थ । सेय मिलादो पर मिक्लासेसा ॥२६४ नाना
युक्त भी पदार्थ के एक धर्मको ही नय कहता है, क्योंकि उस समय उस ही धर्मकी विवक्षा है, शेष धर्मकी विवक्षा नहीं है। पं.का./५०४ इयुक्षणेऽस्मि विरुद्धधर्मयात्म के तरवेाय न्यतरस्य स्यादिह धर्मस्य वाचकश्च नयः । = दो विरुद्धधर्मवालेकिसी एक धर्मका वाचक नय होता है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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