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धर्म
क्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ॥ ६७॥ वास्तवमें शुद्धोपयोगियों कोही संयम, शोस, तप, दर्शन, ज्ञान व कर्मका क्षय होता है इसलिए शुद्धोपयोग हो प्रधान है। (और भी दे० धर्म/३/२)
२. व्यवहारधर्म निषेधका कारण
मो.पा./मू./३१,३२ जो सुन्तो ववहारे सो जोड़ जग्गए सकजम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुतो अप्पणी कज्जे ॥३१॥ इदि जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदे हि । ३२। जो योगो व्यवहारमें सोता है सो अपने स्वरूपके कार्य में जागता है और जो व्यवहारविषै जागता है, वह अपने आत्मकार्य सोता है। ऐसा जानकर वह योगी सर्व व्यव हारको सर्व प्रकार छोड़ता है, और सर्वज्ञ देवके कहे अनुसार परमात्मस्वरूपको ध्याता है। (स. श. / ७८ )
प. प्र./मू./२/१६४ जामु सुहासुह-भावड़ा णवि सयल वि तुटंति । परम समाहि ण तामु मुणि केवलि एमु भणति । जब तक सकल शुभाशुभ परिणाम दूर नही हो जाते, तब तक रागादि विकल्प रहित शुद्ध चित्त में परम समाधि नहीं हो सकती, ऐसा केवली भगवान् कहते हैं । (at.6./7./20)
न.च.वृ./३८१ विदो खलु मोधो वमहारचारिणो जन्हा । तम्हा णिदिकामो ववहारं चयदु तिविहेण । क्योंकि व्यवहारचारीको बन्ध होता है और निश्चयसे मोक्ष होता है, इसलिए मोक्षकी इच्छा करनेवाला व्यवहारका मन वचन कायसे त्याग करता है ।
पं. वि. /४/३२ निश्चयेन तदेकत्वमसममृतं परम् द्वितीयेन कृतं तं संमृतिर्व्यवहारतः ॥३२॥ निश्चयसे जो वह एकरण है नहीं अद्वैत है, जो कि उत्कृष्ट अमृत और मोक्ष स्वरूप है। किन्तु दूसरे (कर्म व शरीरादि) के निमिससे जो सामान उदित होता है. यह यबहारको अपेक्षा रखनेसे संसारका कारण होता है।
( ३० धर्म /४/नं०) उपवहार धर्मकी च करना मिध्यात्व है | ३| व्यवहार धर्म परमार्थ से अपराध व दुःखस्वरूप है |४| परमार्थ से मोह व पाप है |५| इन उपरोक्त कारणोसे व्यवहार त्यागने योग्य है ।
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दे० चारित्र / २६ अनिष्ट (स्वर्ग) फलदायी होने से सराग चारित्र हेय है। दे० चारित्र / ६ / ४ पहले अशुभ को छोडकर व्रतादि धारण करे। पीछे शुद्ध की उपलब्धि हो जाने पर उसे भी छोड़ दे। (और भी दे० चारित्र ७ / १० ) । ०२ शुद्ध मुमुक्षु अमतों कीप्रति को दे० धर्म / ५ / २२ शुद्धोपलब्धि होने पर शुभ का त्याग न्याय है, अन्यथा उभय पथ से भ्रष्ट होकर नष्ट होता है । ० धर्म /६/४। जिस प्रकार शुभ अशुभ का निरोध होता है उसी से प्रकार शुद्ध से शुभ का भी निरोध होता है।
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दे० धर्म / ७ / ४ । व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं संसार (स्वर्ग) का कारण है। दे० धर्म / ७ / ५ । व्यवहार धर्मबन्ध (पुण्य बन्ध) का कारण है।
दे० धर्म / ७ /६ । व्यवहार धर्म मोक्ष का नहीं बन्ध ( पुण्य बन्ध) का कारण है।
दे० धर्म ध्यान / ६ / ६ | व्यवहार पूर्वक क्रम से गुणस्थान आरोहण होता है । दे० नय / ३ / ६ | स्वरूपाराधना के समय निश्चय व्यवहार के समस्त विकल्प या पक्ष स्वत' शान्त हो जाते हैं। ३. व्यवहार धर्मके निषेधका प्रयोजन
का.अ./मू./४०६ एदे दं हप्पयारा पावं कम्मस्स णासया भणिया । पुण्णस्स
य संजणया पर पुणत्थं ण कायव्वा । =ये धर्मके दश भेद पापकर्मका नाश करनेवाले तथा पुण्यकर्मका बन्ध करनेवाले कहे हैं। किन्तु
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६. निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय
इन्हें पुण्यके लिए नहीं करना चाहिए । पं.का.वा./१०२/२४६/६ मोक्षाभाषी भव्योऽईदादिविषयेऽपि स्वसंवित्तिलक्षणरागं मा करोतु । =मोक्षाभिलाषी भव्य अर्हन्तादि विषयों में स्वसंवित्ति लक्षणवाला राग मत करो, अर्थात् उनके साथ तन्मय होकर अपने स्वरूपको न भूलो।
मो० मा० प्र० / ७ / ३७३ / ३ बतादि के त्याग मात्र से धर्म का लोप नहीं हो
जाता ।
दे० मिध्यादृष्टि / ४ /४ व्यवहारधर्म का प्रयोजनविषयकषाय से बचना है। दे० चारित्र / ७ /६ व्रत पक्ष के त्याग मात्र से कर्म लिप्त नहीं हो जाते। ४. व्यवहारधर्मके त्यागका उपाय व क्रम
प्र. सा./मू./१५१,१५६ जो इंदियादिविजई भवीय उबओगमप्पगं झादि । सम्मेहिं सो ण रंगदि किह तं पागा अपुचरति ११६११ अहोयजोगरहि होतो अगदवियम्हि होणं मन्त् णाणपगमप्पणं झाए | १५६ | =जो इन्द्रियादिका विजयी होकर उपयोग मात्र आत्माका ध्यान करता है कमौके द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं । १५१ । अन्य द्रव्यमें मध्यस्थ होता हुआ मैं अशुभोपभोग तथा शुभोपभोग युक्त न होकर ज्ञानात्मक आत्माको ध्याता हूँ। (इ. उ. २२) न.च.वृ./१४० जहदि णिरुद्ध अहं हे हम सहेन सुवेम । तम्हा एण कमेण य जोई ज्झाएउ णियआदं । ३४७| जिस प्रकार शुभसे अशुभका निरोध होता है। उसी प्रकार शुद्धसे शुभका निरोध होता है । इसलिए इस क्रमसे ही योगी निजात्माको ध्याओ अर्थात् पहिले अशुभको छोड़नेके लिए शुभका आचरण करना और पीछे उसे भी छोड़कर में स्थित होना और भी ३० चारित्र /०/१०) आ अनु. / १२२ अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥१२२॥ - यह आराधक भव्य जीव आगमज्ञानके प्रभावसे अशुभसे शुभरूप होता हुआ शुद्ध हो जाता है, जैसे कि बिना सन्ध्या (प्रभात) को प्राप्त किये सूर्य अन्धकारका विनाश नहीं कर सकता ।
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पं.का/ता.वृ./१६७/२४०/१५ पूर्व विषयानुरागं त्यक्त्वा तदनन्तरं गुणस्थानसोपानक्रमेण रागादिरहितनिजशुद्धात्मनि स्थित्वा चार्हदादिविषयेऽपि रागस्त्याज्य इत्यभिप्रायः । =पहिले विषयोंके अनुरागको छोड़कर, तदनन्तर गुणस्थान सोपानके क्रमसे रागादि रहित निजशुद्धात्मामें स्थित होता हुआ अर्हन्तादि विषयोंनें भी रागको छोड़ना चाहिए ऐसा अभिप्राय है।
प. प्र./टी./२/३१/१२/३ यद्यपि व्यवहारेण सविकल्पावस्थायो पित्तस्थिरीकरणार्थ देवेन्द्रचकनपदिभिभूतिविशेषकारण परंपरा पञ्चपरमेष्ठिरूपस्तववस्तुस्तव गुणस्तवादिकं शुद्धात्मप्राप्तिहेतुभूतं
वचनेन स्तुत्यं भवति मनसा च तदक्षररूपादिकं प्राथमिकानां ध्येयं भवति तथापि पूर्वोक्तनिश्चयरत्रयपरिणतिकाले केवलज्ञानाथनन्तगुणपरिणतः स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति यद्यपि व्यवहारसे सविकल्पावस्थामें चित्तको स्थिर करनेके लिए, देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि विभूति विशेषको कारण तथा परम्परासे शुद्धात्माकी प्राप्तिका हेतुभूत पंचपरमेष्ठीका वचनों द्वारा रूप वस्तु व गुण स्तवनादिक तथा मन द्वारा उनके वाचक अक्षर व उनके रूपादिक प्राथमिक जनों के लिए ध्येय होते हैं, तथापि पूर्वोक्त निश्चय रत्नत्रयरूप परिणति केवलज्ञान आदि अनन्तगुणपरिणत स्मशुद्धात्म
ही ध्येय है ।
५. व्यवहारको उपादेय कहनेका कारण
प्र.सा./त.प्र./२४४ एवमेव शुद्धात्मानुरागयोगप्रशस्त पर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं... गृहिणां तु समस्त विरतेरभावेन कषायसद्भावामानोऽपि स्फटिकस पार्क इमे धस रागसंयोगेन शुद्धा
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