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६. निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय
स्मनोऽनुभवाकमत' परमनिर्वाणकत्वाच्च मुख्यः । = इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त ( अर्थात सम्यग्दृष्टिकी) प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वणित किया गया है वह शुभोपयोग (श्रमणोंवे तो गौण होता है पर ) गृहस्थोंके तो, सर्वविरतिके अभावसे शुद्धात्मप्रकाशनका अभाव होनेसे कषायके सदभावके कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ईन्धनको स्फटिकके सम्पर्कसे सूर्यके तेजका अनुभव होता है और वह क्रमशः जल उठता है, उसी प्रकार गृहस्थको रागके संयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है,
और क्रमशः परम निर्वाणसौख्यका कारण होता है। (प.प्र./टी./२/ १११-४/२३१/१५) पं.वि./६/३० चारित्रं यदभाणि केवलदृशा देव त्वया मुक्तये, पुंसा तरवलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्य' पुरोपाजितः संसारार्णवतारणे जिन ततः सैवास्तु पोतो मम ।३० = हे जिन देव केवलज्ञानी। आपने जो मुक्तिके लिए चारित्र बतलाया है, उसे निश्चयसे मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम कालमें धारण नहीं कर सकता है। इसलिए पूर्वोपार्जित महान पुण्यसे यहाँ जो मेरी आपके विषयमें दृढभक्ति हुई है वही मुझे इस संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिए जहाजके समान होवे। (और भी दे० मोक्षमार्ग/४/५-६ व्यबहार निश्चयका साधन है) १. व्यवहार धर्म साधुको गौण व गृहस्थको मुख्य
होता है दे० वैयावृत्त्य/८ (बाल वृद्ध आदि साधुओंको वैयावृत्त्य करना साधुओं
के लिए गौण है और गृहस्थोके लिए प्रधान है ।) दे० साधु/३/५ [ दान पूजा आदि गृहस्थोंके लिए प्रधान है और ध्याना
ध्ययन मुनियोंके लिए। दे० संयम/१/६ [बत समिति गुप्ति आदि साधुका धर्म है और पूजा
दया दान आदि गृहस्थोका।) दे० धर्म/६/५ ( गृहस्थोंको व्यवहार धर्मको मुख्यताका कारण यह है कि उनके रागकी प्रकर्षताके कारण निश्चय धर्मकी शक्तिका वर्त मानमें अभाव है।
प.प्र./टी./२/१३३/२५०/५ इदमत्र तात्पर्यम् । गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयपरस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मकः श्रावकधर्म' कर्तव्य., यतिना तु निश्चयरत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिकरत्नत्रयमलेन विशिष्टतपश्चरणं कर्त्तव्यं । - इसका यह तात्पर्य है कि गृहस्थ तो अभेद रत्नत्रयके स्वरूपको उपादेय मानकर भेदरत्नत्रयात्मक श्रावकधर्मको करे और साधु निश्चयरत्नत्रयमें स्थित होकर व्यावहारिक रत्नत्रयके बलसे विशिष्ट तपश्चरण करे। पं.का./ता,वृ./१७२/२४७/१२ तच्च वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न पुननिरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकम् । तद्यथा--ये केचन...निश्चयमोक्षमार्गनिरपेक्ष केवलशुभानुष्ठानरूपं व्यवहारनयमेव मोक्षमार्ग मन्यन्ते तेन तु सुरलोकादिक्लेशपरंपरया संसार परिभ्रमन्तीति, यदि पुन. शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं निश्चयमोक्षमार्ग मन्यन्तै निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठानशक्त्यभावान्निश्चयसाधक शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तहि...परंपरया मोक्षं लभन्ते; इति व्यवहार कान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । येऽपि केवल निश्चयनयावलम्बिनः सन्तोऽपि...शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्यं षडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाद्यनुष्ठानं च दूषयन्ते तेऽप्युभयभ्रष्टा सन्तो...पापमेव मध्नन्ति । यदि पुनः शुद्धात्मानुष्ठानुरूपं निश्चयमोक्षमार्ग तत्साधक व्यवहारमोक्षमार्ग मन्यन्ते तहि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्ठानरहितापि यद्यपि शुद्धात्मभावनासापेक्षशुभानुष्ठानरतपुरुषसदृशा न भवन्ति तथापि...परंपरया मोक्षं च लभन्ते इति निश्चयैकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । ततः स्थितमेतनिश्चयव्यवहारपरस्परसाध्यसाधकभावेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिमलेनैव मोक्षं लभन्ते। -वह वीतरागता साध्यसाधकभाबसे परस्पर सापेक्ष निश्चय व व्यवहार नयोंके द्वारा ही साध्य है निरपेक्षके द्वारा नहीं। वह ऐसे कि-(नयोंकी अपेक्षा साधकोंको तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-केवल व्यवहारावलम्बी, केवल निश्चयावलम्बी और नयातीत। इनमें से भी पहिलेके दो भेद हैं-निश्चय निरपेक्ष व्यवहार और निश्चय सापेक्ष व्यवहार । इसी प्रकार दूसरेके भी दो भेद हैं-व्यवहार निरपेक्ष निश्चय और व्यवहार सापेक्ष निश्चय। इन पाँच विकल्पोंका ही यहाँ स्वरूप दर्शाकर विषयका समन्वय किया गया है।) १. जो कोई निश्चय मोक्षमार्गसे निरपेक्ष केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारनयको ही मोक्षमार्ग मानते हैं, वे उससे सुरलोकादिकी क्लेशपरम्पराके द्वारा संसारमें ही परिभ्रमण करते हैं। २ यदि वे ही श्रद्धामें शुद्धानुभूति लक्षणवाले मोक्षमार्ग को मानते हुए, चारित्रमें निश्चयमोक्षमार्गके अनुष्ठान (निर्विकल्प समाधि) की शक्ति का अभाव होनेके कारण; निश्चयको सिद्ध करनेवाले ऐसे शुभानुष्ठानको करें तो परम्परासे मोक्ष प्राप्त करते है। इस प्रकार एकान्त व्यवहारके निराकरणकी मुख्यतासे दो विकल्प कहे। ३ जो कोई केवल निश्चयनयावलम्बी होकर, शुद्धात्माकी प्राप्ति न होते हुए भी, साधुओंके योग्य षडावश्यकादि अनुष्ठानको और श्रावकोंके योग्य दान पूजादि अनुष्ठानको दूषण देते हैं, तो उभय भ्रष्ट हुए केवल पापका ही बन्ध करते है। ४. यदि वे ही श्रद्धामें शुद्धात्माके अनुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्गको तथा उसके साधक व्यवहार मोक्षमार्गको मानते हए; चारित्रमें चारित्रमोहोदयवश शुद्धचारित्रको शक्तिका अभाव होने के कारण, अन्य साधारण शुभ व अशुभ अनुष्ठानसे रहित वर्तते हुए भी; शुद्धास्मभावना सापेक्षा शुभानुष्ठानरत पुरुषके सदृश न होनेपर भी, परम्परासे मोक्षको प्राप्त करते है। इस प्रकार एकान्त निश्चयके निराकरणकी मुख्यतासे दो विकल्प कहे। ५. इसलिए यह सिद्ध होता है कि निश्चय व व्यवहारके साध्यसाधकभावसे प्राप्त निर्विकल्प समाधि
के बलसे मोक्ष प्राप्त करते हैं। (और भी दे० चारित्र/७/७ ) ( और भी दे० मोक्षमार्ग/४/६)
७. उपरोक्त नियम चारित्रकी अपेक्षा है श्रद्धाकी अपेक्षा
नहीं
प्र. सा./पं. जयचन्द/२५४ दर्शनापेक्षासे तो श्रमणका तथा सम्यग्दृष्टि गृहस्थको शुद्धात्माका ही आश्रय है। परन्तु चारित्रकी अपेक्षासे श्रमणके शुद्धात्मपरिणति मुख्य होनेसे शुभोपयोग गौण होता है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थके मुनि योग्य शुद्धपरिणतिको प्राप्त न हो सकनेसे अशुभ वंचनार्थ शुभोपयोग मुख्य है।। मो.मा.प्र./७/३३२/१४ सो ऐसी (वीतराग ) दशा न होई, तावत् प्रशस्त रागरूप प्रवत्तौ। परन्तु श्रद्धान तो ऐसा राखौ-यह (प्रशस्तराग) भी बन्धका कारण है, हेय है। श्रद्धान विषयाको मोक्षमार्ग जानें मिथ्यादृष्टि ही है। ८. निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म है। निरपेक्ष नहीं पं. वि./4/६० अन्तस्तत्त्वविशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयागिषु । द्वयोः
सन्मीलने मोक्षस्तस्माइद्वितीयमाश्रयेत् ।६० -अभ्यन्तर तत्त्व तो विशुद्धात्मा और बाह्य तत्त्व प्राणियोंकी दया, इन दोनोंके मिलने पर मोक्ष होता है । इसलिए उन दोनोंका आश्रय करना चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-६०
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