________________
धर्माधर्म
४९०
धमोत्तर
और पुद्गल अप्रदेशी हैं, इसलिए उनके बह सम्भव नहीं है; जीव द्रव्य समुद्धातको छोडकर अन्यत्र लोकके असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिए उसके बह सम्भव नही है। लोक अलोककी सीमा अचलित होनेसे आकाशके वह सम्भव नहीं है और विरुद्ध कार्यका हेतु होनेसे अधर्मके वह सम्भव नहीं है। इसी प्रकार एक ही कालमें स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुदगलोंको लोकतक स्थितिका हेतुत्व अधर्म द्रव्यको बतलाता है। ( हेतु उपरोक्तवव ही है) (विशेष दे० धर्माधर्म/१६)
५. आकाशके गति हेतुत्वका निरास
६. भूमि जल आदिके गतिहेतुत्वका निरास स. सि /१/१७/२८३/३ भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न; साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य ।प्रश्न-१. धर्म अधर्म द्रव्यके जो प्रयोजन हैं, पृथिवी व जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अतः धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक नहीं 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थितिके साधारण कारण हैं, और यह ( प्रश्न ) विशेषरूपसे कहा है। (रा. वा./५/१७/२२/४६३/१) । २. तथा एक कार्य अनेक कारणोसे होता है इसलिए धर्म अधर्म द्रव्यको मानना युक्त है। रा. वा./१/१७/२७/५६४/- यथा नायमेकान्तः-सर्वश्चक्षुष्मान बाह्य
प्रकाशोपग्रहाद् रूपं गृह्णातीति । यस्माद् द्वीपमार्जारादयः...बिनापि बाह्यप्रदीपाद्युपग्रहादरूपग्रहणसमर्थाः,...यथा वा नायमेकान्त' सर्व एव गतिमन्तो यष्टयाद्युपग्रहात गतिमारभन्ते न वेति,...तथा नायमेकान्तः-सर्वेषामात्मपुद्गलानां सर्वे माह्योपग्रहहेतवः सन्तीति, किन्तु केष चित पतत्रिप्रभृतीनां धर्माधर्मावेव, अपरेषां जलादयोऽपीत्यनेकान्तः । ३. जैसे यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवालोंको रूप ग्रहण करनेके लिए बाह्य प्रकाशका आश्रय हो ही, क्योकि व्याघ विज्लों आदिको बाह्य प्रकाशकी आवश्यकता नहीं भी रहती। जैसे यह कोई नियम नहीं कि सभी चलनेवाले लाठीका सहारा लेते ही हों। उसी प्रकार यह कोई नियम नहीं कि सभी जीव और पुद्गलोंको सर्व बाह्य पदार्थ निमित्त ही हों, किन्तु पक्षी आदिकोको धर्म व अधर्म ही निमित्त हैं और किन्हीं अन्यको धर्म व अधर्मके साथ जल आदिक भी निमित्त है, ऐसा अनेकान्त है।
७ अमूर्तिकरूप हेतुका निरास
पं का /मू./१२-१५ आगासं अवगासं गमणरिदिकारणेहिं देदि जदि। उढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठन्ति किध तत्थ ।२। जम्हा उवरिद्वाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तम्हा गमण ठाणं आयासे जाण स्थि त्ति ६३. जदि हवदि गमणहेदू आगास ठाणकारणं तेसि । पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवढी ।१४। तम्हा धम्माधम्मा गमणद्विदिकारणाणि णागास । इदि जिणबरेहिं भणिदं लोगसहा सण ताणं 1811 - १. यदि आकाश ही अवकाश हेतुकी भाँति गतिस्थिति हेतु भी हो तो ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध उसमें (लोकमे) क्यों स्थित हों। ( आगे क्यों गमन न करे ) २। क्योंकि जिनवरोंने सिद्धोंकी स्थिति लोक शिखरपर कहो है, इसलिए गति स्थिति (हेतुत्व) आकाशमें नहीं होता, ऐसा जानो ।१३। २. यदि आकाश जोव व पुद्गलोंको गतिहेतु और स्थितिहेतु हो तो अलोककी हानिका और लोकके अन्तकी वृद्धिका प्रसंग आये।६४। इसलिए गति और स्थितिके कारण धर्म और अधर्म हैं, आकाश नहीं है, ऐसा लोकस्वभावके श्रोताओसे जिनवरोंने कहा है । (और भी दे० धर्माधर्म/ १/७) (रा.वा./५/१७/२१/४६२/३१) स.सि./५/१७/२८३/१ आह धर्माधर्मयोर्य उपकारः स आकाशस्य युक्तः, सर्वगतत्वादिति चेत् । तदयुक्तमः तस्यान्योपकारसद्भावात । सर्वेषां धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहनं तत्प्रयोजनम् । एकस्यानेकप्रयोजनकलपनाया लोकालोकविभागाभाव.। = प्रश्न-३.धर्म और अधर्म व्यका जो उपकार है, उसे आकाशका मान लेना युक्त है, क्योंकि आकाश सर्वगत है। उत्तर-यह कहना युक्त नही है; क्योकि, आकाशका अन्य उपकार है । सब धर्मादिक द्रव्योंको अवगाहन देना आकाशका प्रयोजन है। यदि एक द्रव्यके अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है । (रा.वा/५/१७/ २०/४६२/२३) रा. वा./५/१७/२०-२१/४६२/२६ न चान्यस्य धर्मोऽन्यस्य भवितुमर्हति । यदि स्याव, अप्तेजोगुणा द्रवदहनादयः पृथिव्या एव कल्प्यन्ताम् । किं च • यथा अनिमिषस्य ब्रज्या जलोपग्रहाद्भवति, जलाभावे च भुवि न भवति सत्यप्याकाशे । यद्याकाशोपग्रहात मीनस्य गतिर्भवेत् भुवि अपि भवेत्। तथा गतिस्थितिपरिणामिनाम् आत्मपुद्गलानां धर्मोऽधर्मोपग्रहात गतिस्थिती भवतो नाकाशोपग्रहात् । ४. अन्य द्रव्यका धर्म अन्य द्रव्यका नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेसे तो जल और अग्निके द्रवता और उष्णतागुण पृथिवीके भी मान लेने चाहिए। (रा. वा /२/१७/२३/४६३/६ ) (4.का/ता. वृ./२४/५१/४)। ५. जिस प्रकार मछलीकी गति जलमें होती है, जलके अभावमें पृथिवीपर नहीं होती, यद्यपि आकाश विद्यमान है। इसी प्रकार आकाशके रहनेपर भी धर्माधर्म के होनेपर ही जीव व पुद्गलकी गति और स्थिति होती है। यदि आकाशको निमित्त मामा जाये तो मछलीकी गति पृथिवी पर भी होनी चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए धर्म व अधर्म हो गतिस्थिति में निमित्त है आकाश नहीं।
रा. वा./५/१७/४०-४१/४६६/३ अमूर्तत्वाद्गतिस्थितिनिमित्तत्वानुपपत्तिरिति चेत् । न; दृष्टान्ताभावात ।...न हि दृष्टान्तोऽस्ति येनामूर्तत्वात् गतिस्थितिहेतुत्वं व्यावर्तेत । किं च-आकाशप्रधान विज्ञानादिवत्तत्सिद्ध।"यथा वा अपूर्वाख्यो धर्म क्रियया अभिव्यक्तः सन्नमूतॊऽपि पुरुषस्थोपकारी वर्तते, तथा धर्माधर्म योरपि गतिस्थित्युपग्रहोऽवसेयः।-प्रश्न-अमूर्त होनेके कारण धर्म व अधर्म में गति व स्थितिके निमित्तपनेकी उपपत्ति नहीं बनती। उत्तर-१. नहीं, क्योंकि, ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं जिससे कि अमृतत्वके कारण गतिस्थितिका अभाव किया जा सके । २. जिस प्रकार अमूर्त भी आकाश सब द्रव्योंको अवकाश देने में निमित्त होता है, जिस प्रकार अमूर्त भी सांख्यमतका प्रधान तत्त्व पुरुषके भोगका निमित्त होता है, जिस प्रकार अमूर्त भी बौद्धोंका विज्ञान नाम रूपकी उत्पत्तिका कारण है, जिस प्रकार अमूर्त भी मीमांसकोका अदृष्ट पुरुषके उपभोगका का साधन है, उसी प्रकार अमूर्त भी धर्म और अधर्म गति और स्थितिमें साधारण निमित्त हो जाओ। +निष्क्रिय होनेके हेतुका निरास-दे० कारण/III/२१२। * स्वभावसे गति स्थिति होनेका निरास
-दे० काल/२/११। धर्मामृत-आ० नयसेन ( ई. ११२५) कृत१४ कथाओं का संग्रह | धर्मास्तिकाय-दे० धर्माधर्म। धर्मी-दे० पक्ष। धर्मोत्तर-अर्चटका शिष्य एक बौद्ध-नैयायिक । समय-ई. श. ७ का अन्तिम भाग। कृतियॉ-१. न्यायबिन्दुकी टीका, २. प्रमाण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org