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चौबीसी पूजा
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छल
(३) देवकृत १४ अतिशयोंके लिए १४ चतुर्दशियाँ; (४) चार अनन्त चतुष्टयोंके लिए ४ चौथ; (५) आठ प्रातिहार्योंके लिए ८ अष्टमियॉ; (६) पंच ज्ञानोके लिए ५ पचमियाँ; (७) तथा ६ पष्ठियाँ-इस प्रकार कुल ६५ उपवास । 'ओहाँ णमो अहंताणं' मंत्रका त्रिकाल जाप्य । (बत विधान संग्रह, पृ. १०६), (किशन सिह क्रिया कोश)। चौबीसी पूजा-दे० पूजा। च्यवन कल्पभ, आ./मू./२८५/५०१/८ वर्जय अतिचारप्रकार ज्ञानदर्शनचारित्रविषयं ...च्यवनकल्पेनोच्यन्ते।-दर्शन ज्ञान चारित्रके अतिचारोंका टालना च्यवनकल्पके द्वारा कहा जाता है। च्यावित शरीर-दे० निक्षेप/५ । च्युत शरीर-दे० निक्षेप/५ ।
[छ]
छंदन-दे० समाचार । छंद बद्ध चिट्ठी-पं० जयचन्द छाबडा ( ई० १८३३) द्वारा लिखा
गया अध्यात्म रहस्यपूर्ण एक पत्र । छंद शतक-कवि वृन्दावन ( ई० १८००-१८४८) द्वारा रचित भाषा
पद संग्रह। छंद शास्त्र-जैनाचार्योने कई छन्दशास्त्र रचे है। (१) आ० पूज्यपाद ( ई० श०५) द्वारा रचितः (२) श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई०१०८८-१९७३) कृत काव्यानुशासन; (३) व्यारण्यालंकार पर पं० आशाधर ( ई० ११७३-१२४३) कृत एक टीका; (४) पं० राजमल (ई० १५७५-१५६३) द्वारा रचित 'पिंगल' नामका ग्रन्थ । छत्र-१. चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में से एक-दे० शलाका पुरुष/२)।
२. भगवान्के आठ प्रातिहार्यों में से एक-दे० अर्हन्त । छत्र चूड़ामणि-बादीभ सिंह ओडयदेव ( ७७०-८६०) कृत
जीवन्धर स्वामी की कथा। विस्तार ६२५ श्लोक, ११ लम्ब । (ती०/३/३१) । छत्रपति-आप एक कवि थे। कोका ( मथुरा) के पद्मावतीपुरवार
थे। कृतियाँ-१. द्वादशानुप्रेक्षा, २. उद्यमप्रकाश, ३. शिक्षाप्रधान पद्य; ४.मनमोदन पंचशती। समय -मनमोदन पंचशतीकी प्रशस्तिके अनुसार वि० १९१६ पौष शु. १ है। (मन मोदन पचशती/प्र० सोनपाल | प्रेमीजीके आधार पर)। छद्म-(ध, १/१,१,११/१८८/१०) छद्म ज्ञानदृगावरणे-ज्ञानावरण
और दर्शनावरणको छद्म कहते हैं। (ध/११/४,२,६/४५ ॥ ११६/८) (द्र, सं/टी/१४/१८६/३ )। छद्मस्थ-१. लक्षण ध./१/१,१,१६/१८८/१० छद्म ज्ञानहगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्था'।
- छद्म ज्ञानावरण और दर्शनावरणको कहते हैं। उसमें जो रहते हैं, उन्हें छमस्थ कहते है। (ध. ११/४,२.६.१५/११६/८), (द्र, सं./टी./
४४/१८६/३)। ध./१२/५,४ १७/४४/१० संसरन्ति अनेन धातिकर्मकलापेन चतसृषु
गतिविति घातिकर्मकलापः संसार। तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्था' छद्मस्था'। जिस घातिकर्मसमूहके कारण जीव चारों गतियोमें संसरण करते हैं वह घातिकर्मसमूह संसार है। और इसमें रहनेवाले जीव संसारस्थ या छद्मस्थ हैं।
२. छमस्थके भेद (छद्मस्थ दो प्रकारके है--मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि । सर्वलोकमें मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ भरे पडे है। सम्यग्दृष्टि छ यस्थ दो प्रकारके है-सराग व वीतराग । ४-१० गुणस्थान तक सराग छद्मस्थ है। और ११-१२ गुणस्थानवाले वीतराग छदास्थ हैं। ध/७/२,१,१/५/२ छदुमत्था ते दुविहा-उवसंतकसाया वीणक्साया
चेदि । -(वीतराग ) छद्मस्थ दो प्रकारके है-उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय।
३. कृतकृत्य छद्मस्थ क्ष सा /६०३ चरिमे खंडे पडिदे कदकर णिज्जोत्ति भण्णदे ऐसो । - (क्षीणकषाय गुणस्थानमे मोहरहित तीन घातिया प्रकृतियोका काण्डक घात होता है। तहाँ अंत काडकका घात होते याकौं कृतकृत्य छद्मस्थ कहिये। ( क्योंकि तिनिका कांडकघात होनेके पश्चात भी कुछ द्रव्य शेष रहता है, जिसका काण्डकधात सम्भव नहीं। इस शेष द्रव्यको समय-समय प्रति उदयावलीको प्राप्त करके एक-एक निषेकके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करता है। इस अन्तर्मुहूर्त कालमें कृतकृत्य छद्मस्थ कहलाता है। छल-१. छल सामान्यका लक्षण न्या. सू./मु./१-२/१० बचन विघातोऽर्थ विकल्पोपपत्त्या छलम । वादीके वचनसे दूसरा अर्थ कल्पनाकर उसके वचनमे दोष देना छल है। (रा वा /१/६/८/३६/३); (श्लो वा. १/न्या २७८/४३०/१६); (सि. वि./वृ./५/२/३१५/७); । स्या, म/१०/१११/१६); (स भ. त.. ७६/११)
२. छलके भेद न्या. सू /मू /१-२/११ तत्रिविध वाक्छल सामान्यच्छलमुपचारच्छल
चेति ।११। = वह तीन प्रकारका है-वाक्छल, सामान्य छल व उपचार छल । (श्लो वा./४/न्या २७८/४३०/२१). (सि. वि./वृ./ ५/२/३१७/१३); (स्या म./१०/१११/१६)
३. वाकछलका लक्षण न्या. सू /मू./१-२/१२ अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना __ वाक्छलम् । यथास्या म./१०/११२/२१ नवकम्मलोऽयं माणवक इति नूतनविवक्षया कथिते, पर' मंख्यामारोप्य निषेधति कुतोऽस्य नव कम्बला' इति । =वक्ताके किसी साधारण शब्दके प्रयोग करनेपर उसके विवक्षित अर्थकी जानबूझकर उपेक्षा कर अर्थान्तरकी कल्पना करके वक्ताके वचनके निषेध करनेको वाक्छल कहते है। जैसे वक्ताने कहा कि इस ब्राह्मण के पास नवकम्बल है। यहाँ हम जानते है कि 'नव' कहनेसे वक्ताका अभिप्राय नूतनसे है, फिर भी दुर्भावनासे उसके वचनोंका निषेध करनेके लिए हम 'नव' शब्दका अर्थ 'नौ संख्या' करके पूछते है कि इस ब्राह्मणके पास नौ कंबल कहाँ हैं । (श्लो. वा. ४/न्या. २७६/४११/ १२). (सि. वि./ /३/२/३१७/१४ )
४. सामान्य छलका लक्षण न्या.सू./मू./१-२/१३/५० संभवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसंभूतार्थ
कल्पना सामान्यत्छलम् ।१२। न्या. सू /भा /१-२/१३/५०/४ अहो खत्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युत्ते कश्चिदाह संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति । अस्य वचनस्य विधातोऽर्थ विकल्पोपपत्त्या सभूतार्थ कल्पनया क्रियते । यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत्संभवति व्रात्येऽपि संभवेत बात्योऽपि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-३९
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