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I कारण ( सामान्य निर्देश )
४. कारण कार्य सम्वन्धी नियमा
क्योंकि, प्राणातिपातरूप एक ही कारणके अनन्त शक्तियुक्त होनेसे वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। (और भी दे० वर्गणा/२/६/३ में ध./१५)
हारो बुच्चदे-होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारित्तं, ण सव्वप्पणा; उप्पादवय-ट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्मकालागासदव्वाणं सगवइसे सियगुणा विणाभावि सयलगुणाणमपरिच्चारण पन्जायंतरगमणवं समादो। = 'कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिए, यह एकान्त नियम भी नहीं है, क्योंकि मिट्टीके पिण्डसे मिट्टीके पिण्डको छोडकर घट, घटी, शराब, अलिजर और उष्ट्रिका आदिक पर्याय विशेषोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्ण से सुवर्ण के घटकी हो उत्पत्ति देखी जानेसे कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्ण से अग्नि आदिका संयोग होनेपर सुवर्ण जलकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि कार्य सर्वात्मना कारणरूप ही रहेगा, इसलिए उसकी उत्पत्तिका विरोध है। प्रश्न- यदि सर्वथा कारणका अनुसरण करनेवाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्यसे अमूर्त आकाशकी उत्पत्ति हो जानी चाहिए। इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्यसे सचेतन जोव द्रव्यकी भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिए। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता, इसलिए कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिए ? उत्तर-यहाँ उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूपसे कार्य कारणानुसारी भले ही हो परन्तु वह सर्वात्मस्वरूपसे वैसा सम्भव नहीं है। क्योंकि, उत्पाद, व्यय व धौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गुणोंके अविनाभावी समस्त गुणोंका परित्याग न करके अन्य पर्यायको प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं। ध.६/४,१,४५/१४६/१ कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भात् । कारणगुणा
नुसार कार्य के होनेका नियम नहीं पाया जाता।
३. एक कारणसे सभी कार्य नहीं हो सकते सांख्यकारिका/ह सर्व संभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणाव । किसी एक कारणसे सभी कार्योंकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है । (ध.१२/४,२,८,११३/२८०/५)
१. परन्तु एक कारणसे अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं स.सि./६/१०/३२८/६ एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात तुल्येऽपि प्रदोषादी ज्ञानदर्शनावरणासवहेतवः। =एक कारणसे भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक (कारणों) के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनोंका आस्रष (रूप कार्य) सिद्ध होता है । (रा.वा/६/१०/१०-१२/५१८) ध.१२/४,२,८,२/२७८/१० कथमेगो पाणादिवादो अक्कमेण दोणं कज्जाणं सपादयो। ण एयादो एयादो मोर धादी वयव विभाग द्वाण संचालणखतंतरवत्तिखप्परकज्जाणमकमेणुष्पत्तिदंसणादो । कधमेगो पाणादिवादो अणते कम्मइयक्रवंधे गाणावरणीयसरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुस एकस्स अकमेण वुत्तिविरोहादो। ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणं तसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो। प्रश्न-प्राणातिपाति रूप एक ही कारण युगपत् दो कायौंका उत्पादक कैसे हो सकता है। (अर्थात् कर्मको ज्ञानावरण रूप परिणमाना और जीवके साथ उसका बन्ध कराना ये दोनों कार्य कैसे कर सकता है)। उत्तरनहीं, क्योंकि, एक मुद्गरसे घात, अवयव विभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रान्तरकी प्राप्तिरूप खप्पर कार्योंकी युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न-प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्माण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानाबरणीय स्वरूपसे कैसे परिणमाता है, क्यो कि, बहूतोंमें एककी युगपत् वृत्तिका विरोध है ! उत्तर-नहीं,
५. एक कार्यको अनेकों कारण चाहिए स.सि./२/१७/२८३/३ भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात । अनेककारणसाध्यत्वाच्चै कस्य कार्यस्य । -प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्यके जो प्रयोजन हैं, पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ है, अत' धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थितिके साधारण कारण है। यह विशेष रूपसे कहा गया है। तथा एक कार्य अनेक कारणोंसे होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्यका मानना ठीक है। रा.वा/५/१७/३१/४६४/२६ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा
मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्ति प्रति गृहीताभ्यन्तरसामर्थ्यः बाह्यकुलालदण्डचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्षः घटपर्यायेणाविर्भवति, नैक एव मृत्पिण्डः कुलालादिबाह्यसाधनसंनिधानेन बिना घटात्मनाविर्भवितु समर्थः। = इस लोकमें कोई भी कार्य अमेक कारणों से होता देखा जाता है, जैसे मिट्टीका पिण्ड घट कार्यरूप परिणामकी प्राप्तिके प्रति आभ्यन्तर सामर्थ्य को ग्रहण करके भी, बाह्य कुम्हार, दण्ड चक्र, डोरा, जल, काल व आकाशादि अनेक कारणोंकी अपेक्षा करके ही घट पर्यायरूपसे उत्पन्न होता है । कुम्हार आदिक बाह्य साधनोकी सम्निधिके बिना केवल अकेला मिट्टीका पिण्ड घट
रूपसे उत्पन्न होनेको समर्थ नहीं है। पंका/ता वृ./२५/५३/४ गतिपरिणतेधर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति काल
द्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत. कारणाद् घटोपत्तौ कुम्भकारचक्रचोवरादिवत्, मत्स्यादीनां जलादिवत्, मनुष्याणां शकटादिवत्, विद्याधराणां विद्यामन्त्रौषधादिषद, देवानां विमानवदित्यादि कालद्रव्यं गतिकारणम् । = गतिरूप परिणतिमें धर्मद्रव्य भी सहकारी है और कालद्रव्य भी। सहकारीकारण बहुत होते है जैसे कि घड़ेकी उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र, चोवर आदि, मछली आदिकोंको जल आदि, मनुष्योको रथ आदि, विद्याधरोंको विद्या, मन्त्र, औषधि आदि तथा देवोंको विमान आदि। अतः कालद्रव्य भी गतिका कारण है। (प.प्र./टी./२/२३), (द्र.स./टी./२५/७१/१२) पं.ध./पू./४०२ कार्य प्रतिनियतत्वाद्ध तुद्वैतं न ततोऽतिरिक्त चेत् । तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह । कार्यके प्रति नियत होनेसे उपादान और निमित रूप दो हेतु ही है, उससे अधिक नहीं है, यदि ऐसा कहो तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, यहाँ पर उन दो हेतुओके ही माननेरूप नियमका ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है 1४०२॥ (पं.ध/पू /४०४) ६. एक ही प्रकारका कार्य विभिन्न कारणोंसे हो
सकता है ध.७/२,१,१७/६६/५ ण च एक्कं कज्ज एक्कादो चेव कारणादो सव्वस्थ उप्पज्जदि, खइर-सिसव-धव-धम्मण-गोमय-सरयर-मुज्जकंतेहितो समुप्पज्जमाणेकग्गिकज्जुवलंभा। == एक कार्य सर्वत्र एक ही कारणसे उत्पन्न नहीं होता, क्योकि खदिर, शोसम, धौ, धामिन, गोबर, सूर्यकिरण, व सूर्यकान्तमणि, इन भिन्न-भिन्न कारणों से एक अग्निरूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है। ध.१२/४,२,८,११/२८६/११ कधमेयं कज्जमणेगेरिता उप्पज्जदे । ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघडस्स अण्णादो वि उप्पत्तिदंसणादो । परिसं
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