________________
ध्यान
सूचीपत्र
ध्यानके भेद व लक्षण
त.अनु./३५ वज्रसंहननोपेताः पूर्वश्रुतसमन्विताः। दध्युः शुक्लमिहातीताः श्रेण्यारोहणक्षमा' ।३। -वज्रऋषभ संहननके धारक, पूर्वनामक श्रुतज्ञानसे संयुक्त और उपशम वक्षपक दोनों श्रेणियोके आरोहणमें समर्थ, ऐसे अतीत महापुरुषोंने इस भूमण्डलपर शुक्लध्यानको ध्याया है।
६. ध्याताओंके उत्तम आदि भेद निर्देश
ध्यान सामान्यका लक्षण । एकाग्र चिन्तानिरोध लक्षणके विषयमें शंका । योगादिकी संक्रान्तिमें भी ध्यान कैसे ?
-दे० शुक्लध्यान/४/१। एकाग्र चिन्तानिरोधका लक्षण। -दे० एकाग्र । ध्यान सम्बन्धी विकल्पका तात्पर्य। -दे० विकल्प। ध्यानके भेद । अप्रशस्त, प्रशस्त व शुद्ध ध्यानोंके लक्षण । आर्त रौद्रादि तथा पदस्थ पिडस्ध आदि ध्यानों सम्यन्धी।
--दे०वह वह नाम।
पं.का./ता.वृ /१७३/२५३/२६ तत्त्वानुशासनध्यानग्रन्थादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि चे भवन्ति । तदपि कस्मात् । तत्रैवोक्तमास्ते द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्यादिभेदेन त्रिधेति वचनात। अथवातिसंक्षेपेण द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावना प्रारम्भका पुरुषाः सूक्ष्मस विकल्पावस्थाया प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते, निर्विकल्पशुद्धारमावस्थायां पुननिष्पन्नयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया ध्यातृध्यानध्येयानि... ज्ञातव्या.। - तत्त्वानुशासन नामक ध्यान विषयक ग्रन्थके आदिमे (दे० ध्यान/ ३११) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य मध्यम व उत्कृष्टके भेदसे तीन-तीन प्रकार के हैं क्योंकि वहाँ ही उनका द्रव्य क्षेत्र काल व भावरूप सामग्रीकी अपेक्षा तीन-तीन प्रकारका बताया गया है। अथवा अतिसंक्षेपसे कहें तो ध्याता दो प्रकारका है-प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी। शुद्धात्मभावनाको प्रारम्भ करनेवाले पुरुष सूक्ष्म सविकल्पावस्थामें प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं। और निर्विकल्प शुद्धारमावस्थामें निष्पन्नयोगी कहे जाते है। इस प्रकार संक्षेपसे अध्यात्मभाषामें ध्याता ध्यान व ध्येय जानने चाहिए।
७. अन्य सम्बन्धित विषय
ध्यान निर्देश ध्यान व योगके अंगोंका नाम निर्देश । ध्याता, ध्येय, प्राणायाम आदि । -दे. वह वह नाम । ध्यान अन्तर्महूर्तसे अधिक नहीं टिकता। ध्यान व शान आदिमें कथंचित् भेदाभेद । ध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमें अन्तर ।
-दे० धर्मध्यान/३ । ध्यान द्वारा कार्यसिद्धिका सिद्धान्त । ध्यानसे अनेक लौकिक प्रयोजनोंकी सिद्धि। ऐहिक फलवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं। मोक्षमार्गमें यन्त्र-मन्त्रादिकी सिद्धिका निषेध ।
--दे० मन्त्र। ध्यानके लिए आवश्यक ज्ञानकी सीमा।
-दे० ध्याता/१० अप्रशस्त व प्रशस्त ध्यानोंमें हेयोपादेयताका विवेक । ऐहिक ध्यानोंका निर्देश केवल ध्यानकी शक्ति दर्शाने
के लिए किया गया है। ९ पारमार्थिक ध्यानका माहात्म्य । ध्यान फल।
-दे०वह वह ध्यान । सर्य प्रकारके धर्म एक ध्यानमें अन्तर्भूत है।
१. पृथकत्व एकत्व वितर्क विचार आदि शुक्लध्यानोके ध्याता ।
-दे० शुक्ल ध्यान। २. धर्म व शुक्लध्यानके ध्याताओंमें संहनन सम्बन्धी चर्चा ।
-दे० संहनन। ३. चारों ध्यानोंके ध्याताओंमें भाव व लेश्या आदि ।
--दे० वह वह नाम । ४. चारों ध्यानोंका गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व ।
-दे० वह वह नाम। ५. आर्त रौद्र ध्यानोंके बाह्य चिह्न ।
-दे० वह वह नाम ।
ध्यान
एकाग्रताका नाम ध्यान है। अर्थात व्यक्ति जिस समय जिस भावका चिन्तवन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। इसलिए जिस किसी भी देवता या मन्त्र, या अहंन्त आदिको ध्याता है, उस समय वह अपनेको वह ही प्रतीत होता है। इसीलिए अनेक प्रकारके देवताओंको ध्याकर साधक जन अनेक प्रकारके ऐहिक फलोंकी प्राप्ति कर लेते है। परन्तु वे सब ध्यान आर्त व रौद्र होनेके कारण अप्रशस्त है। धर्म शुक्ल ध्यान द्वारा शुद्वारमाका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, अत' वे प्रशस्त है। ध्यानके प्रकरण में चार अधिकार होते है-ध्यान, ध्याता, ध्येय व ध्यानफल । चारोंका पृथक-पृथक् निर्दश किया गया है। ध्यानके अनेकों भेद हैं, सबका पृथक-पृथक निर्देश किया है।
ध्यानकी सामग्री व विधि द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कृष्टादिके विकल्प । ध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र व दिशा।
-दे० कृतिकर्म/३ । ध्यानका कोई निश्चित काल नही है। ध्यान योग्य भाव।
-दे० ध्येय। उपयोगके आलम्बनभूत स्थान । | ध्यानकी विधि सामान्य । ध्यानमें वायु निरोध सम्बन्धी। -दे० प्राणायाम ।
ध्यानमें धारणाओका अवलम्बन। -दे. पिंडस्थ । ५ अर्हतादिके चिन्तवन द्वारा ध्यानकी विधि ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org