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गुण २४४
गुणनंदि ९. द्रव्यमें अनन्त गुण हैं
लिए है। मध्यम रुचिवाले शिष्योंके प्रति विशेष भेदनयके अव
लम्बनसे गति रहितता, इन्द्रियरहितता, आयुरहितता आदि विशेष ध ६/४,१.२/२७/६ अणं तेसु बट्टमाणपजाएमु तत्थ आवलियाए असं
गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्य गुण, खेज दिभागमेत्तपज्जाया जहण्णोहिणाणेण विसईकया जहण्णभावो।
इस तरह जैनागमके अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए। के वि आइरिया जहण्णदव्वस्सुवरिद्विदरूव-रस-गंध-फासादिसव्व
पंध/उ./६४३ उच्यतेऽनन्तधर्माधिरूढोऽप्येक सचेतन.। अर्थजातं पजाए जाणदि त्ति भणं ति । तण्ण घडदे, तेसिमाणं तियादो। ण हि
यतो यावत्स्यादनन्तगुणात्मकम् ।१४३। - एक ही जीव अनन्त धर्म ओहिणाणमुक्कस्सं पि अणं तसंखावगमरवमं, आगमे तहोवदेसा
युक्त कहा जाता है, क्योकि, जितना भी पदार्थ का समुदाय है वह भावादो। उस (द्रव्य) की अनन्त वर्तमान पर्यायोमेसे जघन्य
सब अनन्त गुणात्मक होता है। अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पर्यायें जघन्य भाव है। कितने आचार्य 'जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित ११. गुणोंके अनन्तत्व विषयक शंका व समन्वय रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायौंको उक्त अवधिज्ञान
स सा./आ./क२/पं जयचन्द-प्रश्न-आत्माको जो अनन्त धर्मवाला जानता है' ऐसा कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि,
कहा है, सो उसमे वे अनन्त धर्म कौनसे हैं । उत्तर-वस्तुमे अस्तित्व, वे अनन्त है। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जानने में
वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूतित्व, अमूर्तित्व समर्थ नहीं है, क्योंकि, आगममें वैसे उपदेशका अभाव है। (नोट
इत्यादि (धर्म) तो गुण है और उन गुणोंका तीनो कालो में समय अनन्त गुणोंकी ही एक समयमें अनन्त पर्यायें होनी संभव है)।
समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त है। और वस्तुमें न. च वृ/48 इगवीसं तु सहावा जीवे तह जाण पोग्गले णयदो।
एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, इयराणं संभवादो णायव्वा णाणवतेहिं । -जीव व पुदगल में २१
अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म है। वे सामान्यरूप धर्म तो वचन गोचर स्वभाव जानने चाहिए और शेष संभव स्वभावोंको ज्ञानियोसे
है, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं, जो कि वचनके विषय जानना चाहिए।
नहीं है, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी वस्तु है इसलिए उसमें ल. सा./१/३७-वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणव्यञ्जितात्मनः । अनन्त धर्म भी अपने अनन्त धर्म है।
या गुणोके समुदायरूप वस्तुका स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है। का. आ./टी./२२४/१५६/११ सर्वद्रव्याणि-- त्रिष्वपि कालेषु.. अनन्ता
१२. द्रव्यके अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन नन्ता सन्ति, अनन्तानन्तपर्यायात्मकानि भवन्ति, अनन्तानन्तसदसन्नित्यानित्याद्यनेकधर्म विशिष्टानि भवन्ति। अतः सर्व..द्रव्यं
आदि कहे जाते हैं जिनेन्द्रैः...अनेकान्तं भणितं ।-तीनो ही कालोमे सर्व द्रव्य प्रसा, मू./१३१ मुत्ता इंदियगेझा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा। अनन्तानन्त हैं; अनन्तानन्त पर्यायात्मक होते है; अनन्तानन्त, सत, दवाणममुत्ताण गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ।१३११ - इन्द्रियग्राह्य मूर्त गुण असव, नित्य, अनित्यादि अनेक धर्मोंसे विशिष्ट होते है। इसलिए पुद्गलद्रव्यात्मक अनेक प्रकारके हैं। अमूर्तद्रव्यो के गुण अमूर्त जानना जिनेन्द्र देवीने सर्व द्रव्यों को अनेकान्त स्वरूप कहा है।
चाहिए। ध/पू /४६ देशस्यैका शक्तिर्या काचित सा न शक्तिरन्या स्यात् । क्रमतोपं.का./त प्र/४६ मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा' । - मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण वितर्यमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ताः ४-द्रव्यकी एक __होते है। विवक्षित शक्ति दूसरी शक्ति नहीं हो सकती अर्थात सब अपने-अपने
नि सा /ता वृ./१६८ मूर्तस्य मूर्त गुणाः, अचेतनस्याचेतनगुणाः, अमूर्तस्वरूपसे भिन्न-भिन्न है, इस प्रकार क्रमसे सब शक्तियोका विचार
स्यामूर्तगुणा', चेतनस्य चेतनगुणाः। = मूर्त द्रब्यके मूर्त गुण होते किया जाय तो प्रत्येक वस्तुमें अनन्तों ही शक्तियाँ स्पष्ट रूपसे प्रतीत
हैं, अचेतनके अचेतन गुण होते है, अमूर्त के अमूर्त गुण होते है, चेतनहोने लगती हैं। (पं.ध./पू/५२) ।
के चेतनगुण होते हैं। पं.ध./उ./१०१४ गुणानां चाप्यनन्तत्वे वाग्व्यवहारगौरवात्। गुणाः केचित्समुदृिष्टाः प्रसिद्धा पूर्वसूरिभि. ११०१४। = यद्यपि गुणोमें
गुणक-जिस राशि द्वारा किसी अन्य राशिको गुणा किया जाये अनन्तपना है तो भी प्राचीन आचार्योने अति ग्रन्थ विस्तारसे गौरव
-दे० गणित/U/१५ दोष आता है इसलिए संक्षेपसे प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कुछ गुणोंका नामोल्लेख
गुणकार-गुणकवन । गणित/I1/९/५ । किया है।
गुणकोति-१.श्रेणिक पुराण, धर्मामृत, रुकमणि हरण, पद्म पुराण
और रामचन्द्र हलदुलि के रचयिता एक मराठी कवि । (ती./४/३१६) १०. जीव द्रव्यमें अनन्तगुणोंका निर्देश
२.देशीयगण के आचार्य । समय-ई.६६०-१०४५ । दे इतिहास/७/५ । स सा./आ./क.२ अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी
गुणत्व-(वैशे. द./१-२/सूत्र १३ तथा गुणेषु भावात गुणत्वम् ॥१३॥ मूर्तिनित्यमेव प्रकाशिताम् ।२।
= सम्पूर्ण गुणो में रहनेवाला गुणत्व द्रव्य गुण कर्म से पृथक् है । स.सा./आ./परि, अत एवास्य ज्ञानमात्रेकभाषान्त पातिन्योऽनन्ता. शक्तय उत्प्लवन्ते । । - १. जिसमें अनन्त धर्म है ऐसे जो ज्ञान तथा
गुणधर-दिगम्बर आम्नाय धरसेनाचार्य की भाँति आपका स्थान वचन तन्मयी जो मूर्ति (आत्मा) सदा ही प्रकाशमान है ।२। २. अत
पूर्व विदों की परम्परा में है। आपने भगवान वीर से आगत 'पेज्ज एव उस ( आरमा) में ज्ञानमात्र एक भावकी अन्त'पातिनी अनन्त
दोसपाहुड' के ज्ञान को १८० गाथाओं में बद्ध किया जो आगे जाकर शक्तियाँ उछलती है।
आचार्य परम्परा द्वारा यतिवृषभाचार्य को प्राप्त हुआ। इसी को द्र.सं./टो./१४/४३/६ एवं मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादि गुणाष्टक
विस्तृत करके उन्होंने 'कषाय पाहूड' की रचना की। समय-बी भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदेन येन निर्गतित्वं,
नि.श. का पूर्वार्ध (वि. पू. श. १) । (विशेष दे. कोश /परिशिष्ट/ निरिन्द्रियत्वं,...निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथै वास्तित्ववस्तृत्वप्रमेयत्वा दिसामान्यगुणा' स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या.। = इस
गणनाद १-नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार प्रकार (सिद्धोमें ) सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्योके आप जयनन्दिके शिष्य तथा वज्रनन्दिके गुरु थे। समय वि. शक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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