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चदि
चैत्य चैत्यालय
है, ऐसे निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है सो व दिबे योग्य है ।११। जो निरुपम है, अचल है. अक्षोभ हैं, जो जंगमरूपकरि निर्मित है, अर्थात् कर्मसे मुक्त हुए पीछे एक समयमात्र जिनको गमन होता है, बहुरि सिद्धालयमे विराजमान, सो व्युत्सर्ग अर्थात कायरहित प्रतिमा है। द. पा./मू-/३५/२७ विहरदि जाव जिणिदो सहसवसुलक्षणेहि संजुत्तो।
चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥३॥ द. पा./टी./३/२७/११ सा प्रतिमा प्रतियातना प्रतिबिम्ब प्रतिकृति' स्थावरा भणिता इह मध्यलोके स्थितत्वाव स्थावरप्रतिमेत्युच्यते । मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये जिनप्रतिमा जड्गमा कथ्यते । केवलज्ञान भये पीछे जिनेन्द्र भगवान् १००८ लक्षणोसे युक्त जेतेकाल इस लोकमें विहार करते हैं तेतै तिनिका शरीर सहित प्रतिबिम्ब, तिसकू 'थावर प्रतिमा' कहिए ॥३५॥ प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिबिम्ब, प्रतिकृति ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं। इस लोकमें स्थित होनेके कारण वह प्रतिमा स्थावर कहलाती है और मोक्षगमनकालमें एक समयके लिए वही जंगम जिनप्रतिमा कहलाती है।
लोके स्थिताना प्रतिव
दयो भवन्तो विभाव्यन्ते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न खल्वेकवस्तुत्वं इत्येवमात्मास्त्रवयोविशेषदर्शनेन यदा भेद जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कतृ कर्मप्रवृत्तिनिवर्तते। =जो ज्ञानका परिणमन है वह क्रोधादिका परिणमन नहीं है, क्योकि जैसे ज्ञान होने पर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है वैसे क्रोधादिक नहीं मालूम होते। जो क्रोधादिका परिणमन है, वह ज्ञानका परिणमन नहीं है, क्योकि, क्रोधादिक होनेपर जैसे क्रोधादिक हुए प्रतीत होके हैं वैसे ज्ञान हुआ प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार क्रोध ( राग, द्वेषादि ) और ज्ञान इन दोनोंके निश्चयसे एक वस्तुत्व नहीं है। इस प्रकार आत्मा और आस्रवोका भेद देखनेसे जिस समय भेद जानता है उस समय इसके अनादिकालसे उत्पन्न हुई परमें कर्ता कर्मकी प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती है। चौद-१. मालवा प्रान्त ( इन्दौर आदि ) की वर्तमान चन्देरी नगरी के समीपवर्ती प्रदेश। अब यह गवालियर राज्यमें है। (म.पू./प्र.५०/ पं. पन्नालाल )। २. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । ३. विन्ध्याचल पर स्थित एक नगर -दे० मनुष्य/४। चेर-मध्य आर्यखण्डका एक देश -दे० मनुष्य/४।। चेलना-१. (म.पु./७५/श्लोक नं.) राजा चेटककी पुत्री थी।६-८ राजा श्रेणिकसे विवाही गयी, तथा उसकी पटरानी बनी।३४।। २. (बृहत्कथाकोश/कथा नं. ८/पृ. नं. २६) वैशाख नामा मुनि राजगृहमें एक महीनेके उपवाससे आये। मुनिकी स्त्री जी व्यन्तरी हो गयी थी, उसने मुनिराजके पडगाहनेके समय उनकी इन्द्री बढा दी। तब चेलनाने उनके आगे कपडा ढंककर उनका उपसर्ग व अवर्णवाद दूर करके उनको आहार दिया 1२१॥ चष्टा-न्या.क./भा./१-१/११/१८ ईप्सितं जिहासितं वा अर्थमधिकृत्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य तदुपायानुष्ठानलक्षणसमोहा चेष्टा । -किसी वस्तु के लेने व छोड़नेको इच्छासे उस वस्तुमें ग्रहण करने या छोडनेके लिए जो उपाय किया जाता है उसको चेष्टा कहते हैं। चैत्य चैत्यालय-जिन प्रतिमा व उनका स्थान अर्थात् मन्दिर चैत्य व चैत्यालय कहलाते हैं। ये मनुष्यकृत भी होते हैं और अकृत्रिम भो। मनुष्यकृत चैत्यालय तो मनुष्यलोकमें ही मिलने सम्भव है, परन्तु अकृत्रिम चैत्यालय चारों प्रकारके देवोंके भवन प्रासादों व विमानोमें तथा स्थल-स्थल पर इस मध्यलोकमें विद्यमान है। मध्यलोक के १३ द्वीपोमे स्थित जिन चैत्यालय प्रसिद्ध हैं।
२. व्यवहार स्थावर जंगम चैत्य या प्रतिमा निर्देश भ. आ./वि./४६/१४४/४ चैत्यं प्रतिबिम्ब इति यावत । कस्य । प्रत्यासत्ते। श्रुतयोरेवास्तसिद्धयो प्रतिबिम्बग्रहणं। = चैत्य अर्थात प्रतिमा। चैत्य शब्दसे प्रस्तुत प्रसंगमें अर्हत असिद्धों के प्रतिमाओं का ग्रहण समझना। द. पा./टी./३५/२७/१३ व्यवहारेण तु चन्दनकनकमहामणिस्फटिकादि
घटिता प्रतिमा स्थावरा। समवशरणमण्डिता जंगमा जिनप्रतिमा प्रतिपाद्यते। =व्यवहारसे चन्दन कनक महामणि स्फटिक आदिसे घड़ी गयी प्रतिमा स्थावर है और समवशरण मण्डित अहंत भगवान् सो जंगम जिनप्रतिमा है।
१ चैत्य या प्रतिमा निर्देश १. निश्चय स्थावर जंगम चत्य या प्रतिमा निर्देश
३. व्यवहार प्रतिमा विषयक धातु-माप-आकृति व अंगोपांग आदिका निर्देश बसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/मू./परि. ४/श्लो. नं. अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य कर्त्तव्यं लक्षणान्वितम्। ऋज्वायतसुसंस्थानं तरुणाड्गं दिगम्बरम ।। श्रीवृक्षभूभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । निजाडगुलप्रमाणेन साष्टाङ्गुलशतायुतम् ।। मानं प्रमाणमुन्मानं चित्रलेपशिलादिषु । प्रत्यड्गपरिणाहोवं यथासंरख्यमुदीरितम् ।३। कक्षादिरोमहीनाड्गं श्मश्रुरेखाविवर्जितम् । ऊर्ध्व प्रलम्बकं दत्वा समाप्त्यन्तं च धारयेत् ।४। तालं मुखं वितस्ति. स्यादेकार्थ द्वादशाङ्गुलम् । तेन मानेन तद्विबं नवधा प्रविकल्पयेत् ।। लक्षणैरपि संयुक्त बिम्ब दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुर्या
दृष्टिप्रकाशनम् ।७२। नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमीलिता। तिर्यगूर्व मधो दृष्टिं वर्जयित्वा प्रयत्नतः ।७३। नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका । वीतरागस्य मध्यस्था कर्त्तव्याधोत्तमा तथा ७४ - (१) लक्षण-जिनेन्द्रको प्रतिमा सर्व लक्षणोसे युक्त बनानी चाहिए। वह सीधी, लम्बायमान, सुन्दर संस्थान, तरुण अंगवाली व दिगम्बर होनी चाहिए ।। श्रीवृक्ष लक्षणसे भूषित वक्षस्थल और जानुपर्यंत लम्बायमान बाहूवाली होनी चाहिए ।२। कक्षादि अंग रोमहीन होने चाहिए तथा मूछ व झुर्रियों आदिसे रहित होने चाहिए।४। (२) माप-प्रतिमाकी अपनी अंगुलीके मापसे वह १०८ अंगुलकी होनी चाहिए।२। चित्रमें या लेपमें या शिला आदिमे प्रत्येक अंगका मान, प्रमाण व उन्मान नीचे व ऊपर सर्व ओर यथाकथित रूपसे लगा लेना चाहिए।३। ऊपरसे नीचेतक सौल डालकर शिलापर सीधे निशान लगाने चाहिए।४। प्रतिमाकी तौल या माप निम्न प्रकार जानने चाहिए। उसका मुख उसकी अपनी अंगुलीके मापसे १२ अंगुल या एक बालिश्त होना चाहिए। और उसी मानसे
बो पा./मू./६,१० चेइय बंधं मोक्खं दुक्ख सुक्खं च अप्पय तस्स ह। सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ।१० =बन्ध, मोक्ष, दुःख व सुखको भोगनेवाला आत्मा चैत्य है ।।। दर्शनज्ञान करके शुद्ध है आचरण जिनका ऐसे बीतराग निर्ग्रन्थ साधुका देह उसकी आत्मासे पर होनेके कारण जिनमार्ग में जंगम प्रतिमा कही जाती है। अथवा ऐसे साधुओंके लिए अपनी और अन्य जीवोंकी देह जंगम प्रतिमा है। मो.पा./मू /११,१३ जो चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं ।
सो होइ वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा।११। णिरुवममचलमखोहा णिम्मिविया जंगमेण रूवेण । सिद्धठाणम्मि ठिय वोसरपडिमा धुवा सिद्धा /१३। जो शुद्ध आचरणको आचरै, बहुरि सम्यग्ज्ञानकरि यथार्थ वस्तुकू जान है, बहुरि सम्यग्दर्शनकरि अपने स्वरूपकं देखे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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