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कोलित संहनन
तथा हरिवंशपुराणकार श्री जिनषेणके गुरु थे । समय - वि. ८२०८०० ई० ०६३-१३)
कीलित संहनन - - दे० ' संहनन' कंचितसा अतिचार-०१।
कुंजरावर्त - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणिका एक नगर - दे० 'विद्याधर'। कुंड प्रत्येक क्षेत्र में दो दो कुण्ड हैं जिनमें कि पर्वतसे निकलकर नदियों पहले उन कुण्डोमे गिरती हैं। पीछे उन कुण्डों में से निकलकर क्षेत्रों में बहती है। प्रत्येक कुण्डमें एक एक द्वीप है। दे० लोक / २ /१० कुंडलक कूटस्थ एक कूट-३०/२/१३ । कुंडलगिरि - इसके बहु मध्य भागमें एक कुण्डलाकार पर्वत है,
जिसपर आठ चैत्यालय हैं । १३ द्वीपके चैत्यालयों में इनकी गणना है । ० लोक ४/६ कुंडलपुर दे०टिनपुर | कुंडलवर द्वीप - मध्य लोकका ग्यारहवाँ द्वीप व सागर-३० लोक/४/६ ।
कुंडला पूर्वविदेहस्थ वसा क्षेत्रकी मुख्य नगरी ३० लोक/२/२ कुंडिनपुर - १. म. पु. / ४६ पं. पन्नालाल - विदर्भ ( बरार ) देशकी प्राचीन राजधानी / ; २. वर्दा नदीपर स्थित एक नगर-दे० मनुष्य / ४ । कुंतल भरत क्षेत्र दक्षिण आर्य खण्डका एक देश दे० मनुष्य ४ कुंती
पा, पु० / सर्ग / श्लोक- राजा अन्धकमकी पुत्री तथा वसुदेव की बहन थी (७/११२-१३८) कम्यावस्थामै पाण्डुसे 'वर्ग' नामक पुत्र उत्पन्न किया (७/२६३) पाण्डुसे विवाह पश्चात् युधिि भोम व अर्जुन पुत्रीको जन्म दिया (०/२४- १४३) अन्तमें दीक्षा धारणकर सोलहवें स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया ( २५/१५.१४१ ) । कुंथनाथम, पु /६४/श्लोक "पूर्वभव नं. ३ में वत्स देशकी सीमा के राजा सिंहरथ थे ( २-३ ) फिर दूसरे भव में सर्वार्थसिद्धिमें देव हुए (१०) वर्तमान भव में १७ वें तीर्थंकर हुए |५| विशेष परिचयदे० तीर्थ कर/२/
कुंद निजवाको उत्तर श्रेणीका एक नगर दे० 'विद्याधर'।
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कुंदकुंद दिगम्बर आम्नाय के एक प्रधान आचार्य जिनके विषयमें विद्वानोंने सर्वाधिक खोज की मूसरी धमें आपका स्थान दे हास /७/१)
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२. कुन्दकुन्दका वंश व ग्राम
दे० नं -
जै० / २ / १०३ कौण्डकुण्डपुर गाँव के नामपर से पद्मनन्दि 'कुन्दकुन्द' नाम सेख्यात हुए। पी०मी० देसाई कृत 'जैनिज्म के अनुसार यह स्थान गण्टाकल रेलवे स्टेशन से चार मील दक्षिण की खर कोनकोण्डल नामक गाँव प्रतीत होता है। यहाँ से अनेकों शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ० आगे शीर्षक २०१० इन्द्रनन्दितावतार के अनुसार पुनि कौosकुण्डपुर में सिद्धान्त को जानकर 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी। मा/प्र/मोजी-द्रविड़ देशस्थ 'कोण्डकुण्ड' नामक स्थानके रहनेबाले थे और इस कारण कोण्डकुन्द नामसे प्रसिद्ध थे। मन्दिसंप बलात्कार गणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० 'इतिहास') आप द्रविड़संघ के आचार्य थे। श्री जिनचन्द्रके शिष्य तथा श्री उमास्वामीके गुरु थे । यथा
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/प्र.११ जिनदास पार्श्वनाथ फुडले पद्मनन्दिगुरुतो मला कारगणाग्रणीः । (इत्यादि देखो आगे 'उनका श्वेताम्बरोंके साथ बाद' )
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कुंदकुंद
३. अपर नाम
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मूल नन्दिसंधी पासी तदीये मुनिमान्यवृत्ती जनादिचण्ड समभूदन्द्रः । ततोऽभवत पश्च सुनामधामा, श्री पद्मनन्दि" मुनिचक्रवर्ती आचार्य कुन्दकुन्दाख्यो' 'धीनो' महामतिः। 'श्ताचार्यो' पृच्छन्दविसायसे उस पर सुनिमान्य जिनचन्द्र आचाय हुए और उनके पश्चात् पद्मनन्दि नामके मुनि चक्रवर्ती हुए। उनके पाँच नाम थे— कुन्दकुन्द क्रीम, एखाचार्य गृच्छ और गृद्धपृच्छ पद्मनन्दि | पं.का./ता.वृ./१ मंगलाचरण- श्रीमन्दकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्याय पराभिधेयैः । श्रीमद कुन्दकुन्दाचार्यदेव जिनके कि पद्मनन्दि आदि अपर नाम भी थे।
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चन्द्रगिरि शिलालेख ४५/६६ तथा महानवमीके उत्तरमें एक स्तम्भपर"श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्य शब्दोत्तरकाण्डकुन्दः - श्री पद्मनन्दि ऐसे अनवद्य नामवाले आचार्य जिनका नामान्तर कौण्डकुन्द था ।
प. प्रा. / मो / प्रशस्ति पृ. ३७६ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवा'पासाचार्य पिध्वाचार्य नामपञ्चक विराजितैन... इस प्रकार श्री पदिकुदकुन्दाचार्य, वळीवाचार्य, एताचार्य, गृपाचार्य नामपंचकसे विराजित्...
४. नामों सम्बन्धी विचार
पचनन्दिनन्दिसंपकी पट्टावलीमें जिनचन्द्र आचार्य के पश्चात पद्मनन्दिका नाम आता है। अतः पता चलता है कि पद्मनन्दि इनका दीक्षाका नाम था। २. कुन्दकुन्द तावतार / १६०-११ गुरुराया ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुण्डपुरे । १६०| श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वाददशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थपरिकर्मकर्ता पट्खण्डाखण्ड १६१- गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्तको जानकर कोण्डकुण्डपुर में श्री पचनन्दि सुनिके द्वारा १२००० श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामका ग्रन्थ षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डोंकी टीकाके रूपमें रचा गया। इसपरसे जाना जाता है तथा प्रसिद्धि भी है कि आप कोण्डकुण्डपुर के निवासी थे । इसी कारण आपको कुन्दकुन्द भी कहते थे । (ष प्रा./प्र. ३ प्रेमीजी ) ३. एलाचार्य - प. प्रा. प्र. ३ प्रेमीजी - ई०श० १ के आसपास मदुरा के कवि सम्मेलन में पेश करने के लिए रचित तमिलवेद या 'थिरुक्कुरल' के रचयिता ऐलाचार्य को श्री एम० ए० रामास्वामी आयंगर कुन्दकुन्द का अपर नाम मानते है। ( आ / प्र ६ जिनदास पार्श्वनाथ फडक्ले) पं. कैलाश चन्दजी के अनुसार यह नाम धवलाकार श्री वीरमेन स्वामी के गुरुका था जिनके पास उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन किया था । इन्द्रनन्दि श्रुतावतार तथा धमलाको प्रशस्तिसे इस बात की पुष्टि होती है। वीरसेन स्वामी क्योंकि कुन्दकुन्दके बहुत पीछे हुए हैं इसलिये यह नाम इनका नहीं हो सकता। (जै० सा०/२/१०१) प. जुगल किशोर मुख्तार भी इसे कुन्दकुन्दका नामान्तर स्वीकार नहीं करते। जे००/२/११६) ४. पृच्छ (सू.अ./ प्र.१०/ जिनदास पार्श्वनाथ फडकते) गृपृच्छ नामका हेतु ऐसा है कि विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्तेमें इनकी मयूर पुच्छिका गिर गयी | तब यह गीधके पिच्छ (पंख) हाथ में लेकर लौट आये। अतः
afreछ ऐसा भी इनका नाम हुआ । श्रवणबेलगोला से प्राप्त अनेकों शिलालेखों यह नाम उमास्वामी के लिये आया है और उन्हें कुन्द कुन्दके अम्वका बतलाया गया है । इनके शिष्यका नाम भी बलाकपिच्छ है । इसपर से पं. कैलाश चन्द्रजी के अनुसार यह उमास्वामी - का नामान्तर है न कि कुन्दकुन्दका । (जै.सा./२/१०२) ५. वक्रग्रीवइस शब्द परसे अनुमान होता है कि सम्भवतः आपकी गर्दन टेढ़ी हो और इसी कारण से आपका नाम वकग्रीव पड़ गया हो। परन्तु पं० कैलाशचन्दजी के अनुसार क्योंकि ई० ११३७ और ११५८ के शिला
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