________________
किनर
१२५
कोतिषण
त सा./२२३-२२४ का भावार्थ-बहुरि जैसे गायक गावने आदि क्रियातें
आजीविकाके करन हारे तैसें किल्विषक हैं। * किल्विष देव सामान्यका निर्देश:-दे० देव /II/21 * देवोंके परिवार में किल्विष देवोंका निर्देशादि-दे० भवनवासी आदि भेद ।
३. किंनर व्यपदेश सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./४/११/४/२१७/२२ किंपुरुषान् कामयन्त इति किंपुरुषाः, ...तन्न, कि कारणम् । उक्तत्वात । उक्तमेतत्-अवर्णवाद एष देवानामुपरीति । कथम् । न हि ते शुचिचै क्रियकदेहा अशुच्यौदारिकशरीरान् नरान् कामयन्ते। -प्रश्न-खोटे मनुष्योंको चाहनेके कारणमे किनर...यह संज्ञा क्यों नहीं मानते ? उत्तर-यह सम देवोंका अवर्णवाद है। ये पवित्र वैक्रियक शरीरके धारक होते हैं, वे कभी भी अशुचि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदिकी कामना नहीं करते। किनर-अनन्तनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थकर/५/३ । किनरगीत-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर
-दे०विद्याधर। किनरोद्गीत-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर
-दे० विद्याधर। किनामित-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर
-दे० 'विद्याधर'। किंपुरुष-1. किंपुरुष देवका लक्षणध.१३/५,५,१४०/३६१/८ प्रायेण मैथुनप्रियाः किंपुरुषाः । प्रायः मैथुनमें रुचि रखनेवाले किंपुरुष कहलाते हैं। * व्यन्तर देवोंका एक भेद है-दे० व्यन्तर/१/२१ २. किंपुरुष व्यन्तरदेवके भेद ति.प./६/३६ पुरुसा पुरुसुत्तमसप्पुरुसमहापुरुसपुरुसपभणामा । अति- पुरुसा तह मरुओ मरुदेवमरुप्पहा जसोवंता।३६। -पुरुष, पुरुषोत्तम, सत्पुरुष, महापुरुष, पुरुषप्रभ, अतिपुरुष, पुरु, पुरुदेव, मरुप्रभ और यशस्वान्, इस प्रकार ये किपुरुष जातिके देवोंके दश भेद हैं। (त्रि.सा./२५) * किंपुरुष देवका वर्ण परिवार व अवस्थानादि
-दे० 'व्यंतर'/२/१। * किंपुरुष व्यपदेश सम्बन्धी वांका समाधान रा.वा /४/११/४/२१७/२१ क्रियानिमित्ता एवैताः संज्ञा,...किंपुरुषात् कामयन्त इति किंपुरुषा ।...; तन्न कि कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत--अवर्णवाद एष देवानामुपरीति । कथम् । न हि ते शुचिर्वक्रियकदेहा अशुच्यौदारिकशरीरात नरान् कामयन्ते । =प्रश्नकुत्सित पुरुषों की कामना करनेके कारण किंपुरुष.. आदि कारणोंसे ये संज्ञाएँ क्यों नहीं मानते ! उत्तर-यह सब देवोंका अवर्णवाद है। ये पवित्र वैक्रियक शरीरके धारक होते हैं वे कभी भी अशुचि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदिकी कामना नहीं करते। किंपुरुप-धर्मनाथ भगवान्का एक यक्ष -दे० तीर्थंकर/५/३ । किंपुरुषवषं-ज.प./प्र.१३६ सरस्वतीके उद्गम स्थानसे लेकर यह
बस्ती तिब्बत तक फैली हुई है। किलकिल-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । फिल्विष-१. किल्विष जातिके देवका लक्षण स.सि./४/४/२३६/७ अन्तेवासिस्थानीया. किल्बिषिकाः । किविवर्ष पापं येषामस्तीति किल्वि षिकाः । जो सीमाके पास रहनेवालों के समान हैं वे किस्विषक कहलाते हैं। किरिवष पापको कहते है। इसकी जिनके बहुलता होती है वे किल्विषक कहलाते हैं। (रा. वा./४/४/१० /२१३/१४); (म, पु./२२/३०); ति. प/३/६८-सुरा हवं ति किब्बिसया ॥६-किग्विष देव चाण्डालकी उपमाको धारण करने वाले हैं।
२. किल्विषी भावना का लक्षण भ. आम./१८१ गाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहणं । माझ्य
अवण्णवादी खिब्भिसियं भावणं कुणइ ॥१८१॥ श्रुतज्ञानमें, केवलियों में, धर्ममें, तथा आचार्य, उपाध्याय, साधुमें दोषारोपण करनेवाला, तथा उनकी दिखावटी भक्ति करनेवाला, मायावी तथा अवर्णवादी कहलाता है। ऐसे अशुभ विचारोंसे मुनि किल्मिष जातिके देवोंमें उत्पन्न होता है, इन्द्रकी सभामें नहीं जा सकता। (मू. आ०/६६) किष्किध-१. भरतक्षेत्रस्थ विन्ध्याचलका एक देश-दे० मनुष्य/४;
२. भरत क्षेत्र मध्य आर्यखण्ड मलयगिरि पर्वतके निकटस्थ एक पर्वत-दे० मनुष्य | ४३. प्रतिचन्द्रका पुत्र तथा सूर्यरजका पिता
वानरवंशी राजा था-दे० इतिहास/७/१३ । किष्किविल-भगवान् वीरके तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए-दे०
'अन्तकृत' किष्कु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम रिक्कु या गज़-दे० गणित/
I/१। काचक-पा. पृ./१७/श्लोक-चुलिका नगरके राजा चुलिकका पुत्र द्रौपदीपर मोहित हो गया था (२४५) तब भीम (पाण्डव) ने द्रौपदीका रूप धर इसको मारा था (२७८-२६) अथवा ( हरिवंशपुराणमें) भीम द्वारा पीटा जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली। अन्तमें एक देव द्वारा परीक्षा लेनेपर चित्तकी स्थिरतासे मोक्ष प्राप्त किया। (ह. पु./४६/३४) कीतिकूट-नील पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/४ । कोतिदेवो-नील पर्वतस्थ केसरीसद व उसकी स्वामिनी देवी
दे० लोक/७। कातिधर-१. प. पु०/मु०/१२३/१६६ के आधारपर; प. पू./प्र २१/ पं. पन्नालाल-बड़े प्राचीन आचार्य हुए हैं। कृति-रामकथा (पद्मचरित)। इसीको आधार करके रविषेणाचार्यने पद्मपुराण की और स्वयम्भू कविने पउमचरिउकी रचना की। समय-ई० ६०० लगभग । २. प. पु./२१ श्लोक "सुकौशल स्वामोके पिता थे। पुत्र सुकौशलके उत्पन्न होते ही दोक्षा धारण की ( १५७-१६) तदनन्तर स्त्रीने शेरनी बनकर पूर्व बैरसे खाया, परन्तु आपने उपसर्ग को साम्यसे जीत मुक्ति प्राप्त की (२२/१८)। कोतिधवल-प.प्र./सर्ग/श्लोक-राक्षस वंशीय घनप्रभ राजाका पुत्र था (५/४०३.४०४) इसने श्रीकण्ठको वानर द्वीप दिया था, जिसकी पुत्र परम्परासे वानर वंशकी उत्पत्ति हुई (६/८४)।-दे० इतिहास/
७/१२। कीर्तिमति-रुचक पर्वत निवासिनी दियकुमारी देवी।
-दे०लोक/५/१३ । कोतिवर्म-जैन सिद्धान्त प्रकाशिनीके समयमाभृतमें K. B.
Pathak. "चालुक्य वंशी राजा थे। बादामी नगर में श० सं० ५०० (वि०६३५ ) में प्राचीन कदम्ब बंशका नाश किया। समय-श. ५०० ( ई०५७८) कोतिषण-ह. पु./६६/२५-३२; म. पु./प्र. ४८ पं. पन्नालाल-पुन्नाट संघकी गुर्वावलोके अनुसार (इतिहास/७/E) आप अमितसेनके शिष्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org