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काल
१. काल सामान्य निर्देश
भावस्थितिकाल, इस प्रकार कालके छह भेद है। अथवा काल अनेक प्रकारका है, क्योंकि परिणामोसे पृथग्भूत कालका अभाव है, तथा
परिणाम अनन्त पाये जाये। ध. १२/४,२,६,१/७५-७७/४ काल
भाव
नाम स्थापना द्रव्य समाचार अद्धा प्रमाण
| (दे.आगे)
सद्भाव असद्भाव लौकिक लोकोत्तर ! पत्य सागर आदि
अतीत अनागत वर्तमान
आगम
नोआगम
औदारिकादि
पाँच शरीर
द्रव्य
आगम
नोआगम
ज्ञायक शरीर
भावि
तद्वयतिरिक्त
भूत
वर्तमान
व्यक्त
प्रधान
अप्रधान
शिक्षा गृह्णाति स शिक्षाकाल; शिक्षानन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग स्थित्वा तदर्थिनां भव्यप्राणिगणानां परमात्मोपदेशेन यदा पोषणं करोति स च गणपोषणकाल', गणपोषणानन्तरं गणं त्यक्त्वा यदा निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कार करोति स आत्मसंस्कारकाल', आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थ मेव...परमात्मपदार्थ स्थित्वा रागादिबिकल्पाना सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना तदर्थ कायक्लेशानधनानां द्रव्यसल्लेखना तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल', सल्लेखनानन्तरं... बहिर्द्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूप निश्चयचतुर्विधाराधना या तु सा चरमदेहस्य तद्भवमोक्षयोग्या तद्विपरीतस्य भवान्तरमोक्षयोग्या चेत्युभयमुत्तमार्थ कालः । = जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेदरत्नत्रयात्मक आचार्यको प्राप्त करके, आत्मआराधनाके अर्थ बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षाकाल है। दीक्षाके अनन्तर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्त्वके परिज्ञानके लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्रकी जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षाकाल है। शिक्षाके पश्चात् निश्चयव्यवहार मोक्षमार्गमें स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेशसे पोषण करता है वह गणपोषणकाल है। गणपोषणके अनन्तर गणको छोडकर जब निज परमात्मामें शुद्धसंस्कार करता है वह आत्मसंस्कारकाल है। तदनन्तर उसीके लिए परमात्मपदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पोंके कृश करनेरूप भाव सल्लेखना तथा उसीके अर्थ कायक्लेशादिके अनुष्ठान रूप द्रव्यसल्लेरखना है इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखनाके पश्चात बहिर द्रव्यों में इच्छाका निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तदभव मोक्षभागी ऐसे चरमदेही, अथवा उससे विपरीत जो भवान्तरसे मोक्ष जानेके योग्य है. इन दोनोंके होती है। वह उत्तमार्थकाल कहलाता है ।
२. दीक्षादि कालोंके आगमकी अपक्षा लक्षण पं.का./ता वृ./१७३/२५४/८ यदा कोऽपि चतुर्विधाराधनाभिमुखः सन् पञ्चाचारोपेतमाचार्य प्राप्योभयपरिग्रहरहितो भूत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति तदा दीक्षाकालः, दीक्षानन्तरं चतुर्विधाराधनापरिज्ञानार्थमाचाराराधनादिचरणकरणग्रन्थ शिक्षा गृह्णाति तदा शिक्षाकाल', 'शिक्षानन्तरं चरणकरणकथितार्थानुष्ठानेन व्याख्यानेन च पञ्चभावनासहितः सत् शिष्यगणपोषणं करोति तदा गणपोषणकाल' । ...गणपोषणानन्तरं स्वकीयगणं त्यक्त्वात्मभावनासंस्कारार्थी भूत्वा परगणं गच्छति तदात्मसंस्कारकाल.,आत्मसंस्कारानन्तरमाचाराराधनाकथितक्रमेण द्रव्यभावसल्लेखना करोति तदा सल्लेखनाकाल', सल्लेखनान्तरं चतुविधाराधनाभावनया समाधिविधिना कालं करोति तदा स उत्तमार्थकालश्चेति। -जब कोई मुमुक्षु चतुर्विध आराधनाके अभिमुख हुआ, पंचाचारसे युक्त आचार्यको प्राप्त करके उभय परिग्रहसे रहित होकर जिनदीक्षा ग्रहण करता है तदा दीक्षाकाल है। दीक्षाके अनन्तर चतुर्विध आराधनाके ज्ञान के परिज्ञानके लिए जब आचार आराधनादि चरणानुयोगके ग्रन्थोंकी शिक्षा ग्रहण करता है, तब शिक्षाकाल है। शिक्षाके पश्चात् चरणानुयोगमें कथित अनुष्ठान और उसके व्याख्यानके द्वारा पंचभावनासहित होता हुआ जब शिष्यगणका पोषण करता है तब गणपोषण काल है। ...गणपोषणके पश्चात अपने गण अर्थात् संघको छोडकर आत्मभावनाके संस्कारका इच्छुक होकर परसंघको जाता है तब आत्मसंस्कार काल है। आत्मसंस्कारके अनन्तर आचाराराधनामें कथित क्रमसे द्रव्य और भाव सल्लेखना करता है वह सल्लेखनाकाल है। सल्लेखनाके उपरान्त चार प्रकारको आराधनाकी भावनारूप समाधिको धारण करता है, वह उत्तमार्थकाल है।
निश्चय
व्यवहार
!
सचित्त अचित्त मिश्र ५. स्वपर कालके लक्षण प्र.सा./ता.व./११५/१६१/१३ वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमयः कालो भण्यते । वर्तमान शुद्ध पर्यायसे परिणत आत्मद्रव्यकी वर्तमान पर्याय उसका स्वकाल कहलाता है। पं.ध./१/२७४,४७१ कालो वर्तनमिति वा परिणमनवस्तुनः स्वभावेन । ...|२७४। कालः समयो यदि वा तद्देशे वर्तनाकृतिश्चात् । ।४७१। -वर्तनाको अथवा वस्तुके प्रतिसमय होनेवाले स्वाभाविक परिणमनको काल कहते हैं ।...|२७४। काल नाम समयका है अथवा परमार्थ से द्रव्यके देशमें वर्तनाके आकारका नाम भी काल है।...1४७१। रा.बा./हिं./१/६/४६ गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ( पर्याय )याका काल है। रा.वा.हि./8/७/६७२ निश्चयकालकरि वर्तया जो क्रियारूप तथा उत्पाद व्यय धौव्यरूप परिणाम ( पर्याय ) सो निश्चयकाल निमित्त संसार (पर्याय) है। रा.वा./हि./8/७/६७२ अतीत अनागत वर्तमानरूप भ्रमण सो (जीव) का व्यवहार काल ( परकाल । निमित्त संसार है। ६. दीक्षा शिक्षादि कालोंके लक्षण १. दीक्षादि कालोंके अध्यात्म अपेक्षा लक्षण पं.का./ता.वृ /१७३/११ यदा कोऽप्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मक
माचार्य प्राप्यात्माराधनार्थ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षा गृह्णाति स दीक्षाकाल., दीक्षानन्तरं निश्चमव्यवहाररत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थ तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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