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जोव समास
जीविका
१८. भेद-३२ भेदोंवाले १६ विकल्पोंके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्य पर्याप्त-४८ । (पं.सं./प्रा./१/४०) ५४. भेद--३६ भेदों वाले १८ विकल्पोंके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लन्ध्यपर्याप्त-५४ । (पं.सं./प्रा./१/४१) ५७. भेद-३८ भेदोंवाले १६ विकल्पोंके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लन्ध्य पर्याप्त-५७। (पं.सं./प्रा./१/४२); (गो.जी./मू./७३/११० तथा ७८/१६६) ८५. भेद
तिर्यच
स्थावर
त्रस
1 । पृ. अप्
। । तेज वायु
बन०
विकलेन्द्रिय सकले
न्द्रिय
४०६. भेद शुद्ध पृथिवी, खर पृथिवी, अप, तेज, वायु, साधारण बनस्पतिके नित्य व इतरनिगोद, इन सातोंके बादर व सूक्ष्म-१४; प्रत्येक वनस्पतिमें तृण, बेल, छोटे वृक्ष, बड़े वृक्ष और कन्दमूल ये। इनके प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित भेदसे १० । ऐसे एकेन्द्रियके विकल्प-२४ विकलेन्द्रियके द्वी, त्री व चतु इन्द्रिय, ऐसे विकल्प-३ इन २७ विकल्पोंके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन-तीन भेद करनेसे कुल ८१।
पंचेन्द्रिय तियचके कर्मभूमिज संज्ञी-असंज्ञी, जलचर, थलचर, नभचरके भेदसे छह । तिन छहके गर्भज पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त १२ तथा तिन्हीं छहके समूच्छिम पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त १८। उत्कृष्ट मध्यम जघन्य भोगभूमिमें संज्ञी गर्भज थलचर व नभचर ये छह, इनके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त ऐसे १२ । इस प्रकार कुल विकल्प-४२।
मनुष्योंमें समूच्छिम मनुष्यका आर्यखण्डका केवल एक विकल्प तथा गर्भजके आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड; उत्कृष्ट, मध्य व जघन्य भोगभूमिः तथा कुभोगभूमि इन छह स्थानों में गर्भजके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त ये १२ । कुल विकल्प-१३ ।
देवोंमें १० प्रकार भवनबासी, ८ प्रकार व्यन्तर, ५ प्रकार ज्योतिषी और ६३ पटलोंके ६३ प्रकार वैमानिक। ऐसे ८६ प्रकार देवोंके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त
-१२ नारकियों में ४६ पटलोके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त सब-८१+४२+१३+१७२+६८
-४०६ (गो.जी./म. व जी.प्र./८० के पश्चातकी तीन प्रक्षेपक गाथाएँ/२००)
साधारण प्रत्येक द्वी.त्री. चतु.
नित्य इतर प्रति अप्र. निगोद निगोद
बा सूमा सूबा सूबा सू बा सूबा सू । १२३४५६७८६ १०१११२१३ १४ १५ १६ १७
कर्मभूमिज
भोगभूमिज
३. जीवसमास बतानेका प्रयोजन
असंज्ञी
संज्ञी
गर्भज
संमूच्छिम गर्भज
समूच्छिम गर्भज
द्र. सं./टो./१२/३१/५ अत्रैतेभ्यो भिन्न निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः।-इन जोवसमासों, प्राणों व पर्याप्तियोंसे भिन्न जो अपना शुद्ध आत्मा है उसको ग्रहण करना चाहिए।
जल थल नभ जल थल नभ जल थल नभ जल थल नभ थल नभ चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर चर १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४
उपरोक्त सर्व विकल्पों में स्थावर व विकलेन्द्रिय सम्बन्धी १७ विकल्प केवल समुच्छिम जन्म वाले हैं। वे १७ तथा सकलेन्द्रियके समूच्छिम वाले ६ मिलकर २३ विकल्प संमृच्छिमके है। इनके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ६६-गर्भजके उपरोक्त ८ विकल्पोंके पर्याप्त व अपर्याप्त-१६ ६१+१६-८५ (मो.जी./मू./७६/१९८); (का-आ./मू./१२३-१३१) ९८. भेद तिर्यचौमें उपरोक्त मनुष्योंमें आर्यखण्डके पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त व लम्ध्यपर्याप्त ये ३+म्लेच्छरखण्ड, भोमभूमि व कुभोगभूमिके पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त ये ३४२-६।
कुल-8 देव व नारकियों में पर्याप्त व निवृत्त्यपर्याप्त (गो.जी./मू. जी.प्र./७६-८०/१६८) (का.अ./मू-/१२३-१३३)
४. अन्य सम्बन्धित विषय १. जीव समासोंका काय मार्गणामें अन्तर्भाव-दे० मार्गणा। २. जीव
समासोंके स्वामित्व विषयक प्ररूपणाएँ-दे० सत् । जीवसिद्धि-आ. समन्तभद्र (ई० श०२) द्वारा रचित यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दबद्ध है। इसमें न्याय व युक्तिपूर्वक जीवके अस्तित्वकी सिद्धि की गयी है। जीवा-Chord (ज.प./प्र.१०६) =जीवा निकालनेकी प्रक्रिया
दे० गणित/II/७/३॥ जीवाराम-शोलापुरके एक धनाढ्य दोशीकुलके रत्न थे। आपका जन्म ई०१८८० में हुआ था। केवल अंगरेजीकी तीसरी और मराठीकी वीं तक पढ़े। बड़े समाजसेवी व धर्मवत्सल थे। ई०१९०८ में एक्लक पन्नालालजीसे श्रावकके व्रत लिये। ई०१६५४ में कंथलगिरिपर नवमी प्रतिमा धारण की। और ई. १९६१ में स्वर्ग सिधार गये । ई. १९४० में स्वयं ३०,०००) रु० देकर जीवराज जैन ग्रन्थमालाकी स्थापना की, जो जैन वाङ्मयकी बहुत सेवा कर रही है। जीविका-अग्निजीविका, बनजीविका, अनोजीविका, स्फोटजीविका और भाटकजीविका।-दे० सावध/२।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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