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गुण
२. गुण निर्देश
| द्रव्यमें साधारणासाधारण गुणोंके नामनिर्देश । * | आपेक्षिक गुणों सम्बन्धी। -दे० स्वभाव।
जीवमें अनेकों विरोधी धर्मोंका निर्देश।-दे०जीव/३ । द्रव्योंमें अनुजीवी और प्रतिजीवी गुणोंके नाम | निर्देश। द्रव्यमें अनन्त गुण हैं। जीव द्रव्यमें अनन्त गुणोंका निर्देश । गुणोंके अनन्तत्व विषयक शंका व समन्वय । द्रव्यके अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं। गुण-गुणीमें कथंचित् भेदाभेद।। गुणका द्रव्यरूपसे और द्रव्य व पर्यायका गुणरूपसे उपचार।
---दे० उपचार/३।
साधारणा इतिजीवस्य मतिज्ञामाणी र
१. गुणके भेद ब लक्षण
१. गुण सामान्यका लक्षण स.सि./२/३८/३०६ पर उद्धृत गुण इदि दव्वविहाण। - द्रव्यमें भेद
करनेवाले धर्मको गुण कहते हैं। आ.प./६ गुण्यते पृथक्क्रयते द्रव्यं द्रव्यान्तराद्य स्ते गुणाः। =जो द्रव्य
को द्रव्यान्तरसे पृथक् करता है सो गुण है। भ्या.दी./२/१७८/१२१ यावद्रव्यभाविनः सकलपर्यायानुवर्तिनो गुणाः
वस्तुत्वरूपरसगन्धस्पर्शादयः। जो सम्पूर्ण द्रव्यमें व्याप्त कर रहते हैं और समस्त पर्यायोंके साथ रहनेवाले हैं उन्हें गुण कहते हैं । और
वे वस्तुत्व, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि हैं। प.ध./पू./४८ शक्तिलक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुण' स्वभावश्च । प्रकृतिशील
चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः ४८ पं.ध./उ./४७८ लक्षणं च गुणश्चाड्गं शब्दाचै कार्थवाचकाः ।४७८३ मा १. शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं ।४। २. लक्षण, गुण और अंग ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।
३. साधारण व असाधारण या सामान्य व विशेष गुणों के लक्षण प.प्र./टी./१/५८/५८/८ ज्ञानसुखादयः स्वजातौ साधारणा अपि विजातौ पुनरसाधारणा' । - ज्ञान सुरवादि गुण स्वजातिकी अर्थात् जीवकी अपेक्षा साधारण है और विजाति द्रव्योंकी अपेक्षा असाधारण है। अध्यात्मकमल मार्तण्ड/२/७-८ सर्वेष्वविशेषेण हि ये द्रव्येषु च गुणाः प्रवर्तन्ते । ते सामान्यगुणा इह यथा सदादिप्रमाणतः सिद्धम् ।। तस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्नाः इहेदमिति चिज्जाः। ज्ञानादयो यथा ते द्रव्यप्रतिनियतो विशेषगुणाः ।। =सभी द्रव्योंमें विशेषता रहित जो गुण ,वर्तन करते हैं, ते सामान्य गुण है जैसे कि सद आदि गुण प्रमाणसे सिद्ध हैं।७। उस हो विवक्षित वस्तुमें जो मग्न हो तथा 'यह वह है' इस प्रकारका ज्ञान करानेवाले गुण विशेष हैं। जैसे-द्रव्यके प्रतिनियत ज्ञानादि गुण ।।
४. स्वमाव विभाव गुणोंके लक्षण प.प्र/टी./२/५७/५६/१२ जीवस्य यावत्कथ्यन्ते । केवलज्ञानादयः स्व
भावगुणा असाधारणा इति । अगुरुलघुका स्वगुणास्ते "सर्वद्रव्यसाधारणा' । तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणा...इति । इदानी पुद्गलस्य कथ्यन्ते। तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणा इति। ...यणुकादिस्कन्धेषु वर्णादयो विभावगुणाः इति भावार्थ.। धर्माधर्माकाशकालानां स्वभावगुणपर्यायास्ते च यथावसरं कथ्यन्ते । -जीवकी अपेक्षा कहते हैं। केवलज्ञानादि उसके असाधारण स्वभाव गुण है और अगुरुलघु उसका साधारण स्वभाव गुण है। उसी जीवके मतिज्ञानादि विभावगुण हैं। अब पुद्गलके कहते हैं। परमाणुके वर्णादिगुण स्वभावगुण है और द्वयणुका दि स्कन्धों के विभावगुण है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योके भी स्वभाव गुण और पर्याय यथा अवसर कहते है। २. गुण निर्देश १. गुणका अनेक अर्थों में प्रयोग रा. वा./२/३४/२/४६८/१७ गुणशब्दोऽनेकस्मिन्नर्थे दृष्टप्रयोगः कश्चिद्रूपादिषु वर्तते-रूपादयो गुणा इति क्वचिद्भागे वर्तते द्विगुणा यवास्त्रिगुणा यवा इति । क्वचिदुपकारे वर्तते- गुणज्ञ साधुः उपकारज्ञ इति यावत् । क्वचिद्रव्ये वर्वते-गुणवानयं देश इत्युच्यते यस्मिन् गावः शस्यानि च निष्पद्यन्ते। क्वचित्समेष्ववयवेषु-द्विगुणा रज्जु. त्रिगुणा रज्जुरिति । क्वचिदुपसजने-गुणभूता वयमस्मिन् ग्रामे उपसर्जनभूता इत्यर्थः।- गुण शब्दके अनेक अर्थ है-जैसे रूपादि गुण (रूप रस गन्ध स्पर्श इत्यादि गुण ) में गुणका अर्थ रूपादि है। 'दोगुणा यव त्रिगुणा यव' में गुणका अर्थ भाग है। 'गुणज्ञ साधु' में या 'उपकारज्ञ' में उपकार अर्थ है। ‘गुणवानदेश' में द्रव्य अर्थ है, क्योंकि जिसमें गौयें या धान्य अच्छा उत्पन्न होता है वह देश गुणवान कहलाता है। द्वि गुण रज्जु त्रिगुणरज्जु' में समान अवयव अर्थ है। 'गुणभूता वयम्' में गौण अर्थ है। (भ. भा./वि./७/३७/४)। ध./१/१,१,८/गा. १०४/१६१ जेहि दु लक्विजंते उदयादिसु संभवेहि
भावेहि। जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वद रिसीहि ।१७४। रा, वा./७/११/६/४३८/२५ सम्यग्दर्शनादयो गुणाः। ध. १५/१७४/१ को पुण गुणा ' संजमो संजमासजमो वा। ध. १/१.१,८/१६१/३ गुणसहचरित्वादारमापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते। ध.१/१,१,८/१६०/७ के गुणाः। औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक
पारिणामिका इति गुणा । प्र. सा./त. प्र./६५ गुणा विस्तारविशेषा' ।१५।
२. गुणके साधारण असाधारणादि मूल भेद न.च.व./११ दवाणं सहभूदा सामण्णविसेसदो गुणा णेया। - द्रव्योंके
सहभूत गुण सामान्य व विशेषके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। प्र.सा./त.प्र./E५ गुणा विस्तारविशेषाः, ते द्विविधाः सामान्यविशेषा
त्मकरवात। - गुण द्रव्यके विस्तार विशेष हैं। वे सामान्य विशेषात्मक होनेसे दो प्रकारके हैं । (पं.ध./पू./१६०-१६१) प.टी./१/१८/५८/७ गुणास्त्रिविधा भवन्ति । केचन साधारणाः केचना
साधारणा', केचन साधारणासाधारणा इति । - गुण तीन प्रकारके हैंकुछ साधारण हैं, कुछ असाधारण हैं और कुछ साधारणासाधारण है। श्लो.वा./भाषा २/१/४/५३/१५८/११ अनुजीवी प्रतिजीवी, पर्यायशक्ति-
रूप और आपेक्षिक धर्म इन चार प्रकारके गुणोंका समुदाय रूप ही वस्तु है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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