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गुण
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वसु. श्र. / ५१३ अणिमा महिमा लघिमा पागम्म वसित कामरूवित्तं । ईस पावणं तह अट्टगुणा वणिया समए । ५१३। १. कर्मके उदय उपशमादिसे उप जिन परिणामोंसे युक्त जो जीव देखे जाते हैं. उसी गुण संज्ञावाले कहे जाते हैं । १०४| ( गो . क./मू./१२/१७)। २. सम्यग्दर्शनादि भी गुण हैं । ३. संजम व संजमासंजम भी गुण कहे जाते हैं । ४. गुणोके सहवर्ती होनेसे आत्मा भी गुण कह दिया जाता है । ५. औदयिक औपशमिक आदि पाँच भाव भी गुण कहे गये हैं । ६. गुणको विस्तार विशेष भी कहा जाता है । ७, अणिमा महिमा आदि ऋद्धियाँ भी गुण कहे जाते हैं।
२. गुणांशके अर्थ में गुण शब्दका प्रयोग
त. सू./५/३३-३६ स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥३३॥ न जघन्यगुणानां ॥३४॥ गुणसाम्ये सदृशाम् ॥३५॥ द्वयधिकादि गुणानां तु ॥ ३६ ॥ स.सि./५/२६/३००/१० गुणसाम्यग्रहणं तुल्यभागसंप्रत्ययार्थए । रा. वा./५/३४/२/४६८/२१ तत्रेह भागे वर्तमानः परिगृह्यते । जघन्यो गुण येषां ते जघन्यगुणास्तेषां जघन्यगुणानां नास्ति बन्ध । घ. १४/५.६५३६/४५०/५ एमपूर्ण ति किं घेप्यदि जहण्णगुणस्स ग सोच म्यगुणो अर्थ तेहि अभिभागपडिदेहि पिण घ. १४/५.६,२४०/४५१/२ गुणस्स विदियअत्यावसेो विदिगुणो नाम । तदियो अवस्थाविसेसो तदियगुणो णाम । = १. स्निग्धव और रूक्षत्वसे बन्ध होता है ||३३| जघन्य गुणवाले पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता है ॥ ३४ ॥ समान गुण होनेपर तुल्य जातिवालोंका बन्ध नही होता है । ३५। दो अधिक गुणवालोका बन्ध होता है | ३६ | २. तुल्य शक्तयं शोंका ज्ञान करानेके लिए 'गुणसाम्य' पदका ग्रहण किया है । ३. यहाँ भाग अर्थ विवक्षित है। जिनके जघन्य (एक) गुण होते हैं वे जघन्य गुण कहलाते हैं। उनका बन्ध नहीं होता । ४. एक गुणसे जघन्य गुण ग्रहण किया जाता है जो अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न है । ५. उसके ऊपर एक आदि अविभागी प्रतिछेदकी वृद्धि होनेपर गुणकी द्वितीयादि अवस्था विशेषोंकी द्वितीयगुण तृतीयगुण आदि संज्ञा होती है [501]
३. एक अखण्ड गुणमें अविभागी प्रतिच्छेदरूप खण्ड
कल्पना
घ. १४/५.६.३१/४५०/६ सोच जमतो तेहि अविभागदेहि पिण्णी । - वह जघन्यगुण अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदो से निष्पन्न होता है ।
पं. ध./५३ तासामन्यतरस्या भवन्त्यनन्ता निरंशका अंशा । उन अनन्त शक्तियों या गुणोंमे से प्रत्येक शक्तिके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते है। (अध्यात्मममार्तण्ड /२/६)
४. उपरोक्त खण्ड कल्पना हेतु तथा भेद-अभेद
समन्वय
घ. १४/५, ६,५३६/४५०/७ तं कथं गव्वदे । सो अनंत विस्सासुवचरहि चिदन्ति हावयन्तदोच एकम्म- अभिभागपडि एनविसारचर्य मोल अण ताणं तनिस्सा मुरचयाणं तत्थ संभव अस्थि, तेसिं संबंधम्स णिप्पच्चत्तयप्पसंगादो। ण च तस्स विस्सासुचरहि बंधी वि अस्थि जहण्णवज्जे ति सुत्तेण सह विरोहादो । प्रश्न- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ( कि पुद्गल के बन्ध योग्य एक जघन्य गुण अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न है ) ' उत्तर - वह अनन्त विखसोपचयोंसे उपचित है' यह सूत्र ( ष. वं. १४ / ५, ६ / सू. ५३६/४५० ) अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न
भा० २०११
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२. गुण
होता है । प्रश्न - अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदके रहते हुए वहाँ केवल एक विसोपचय (अन्ययोग्य परमाणु) न होकर अनन्त विससोपचय संभव हैं ( या हो जायेंगे ) ? उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें उनका सम्बन्ध ( उन परमाणुओंका बन्ध ) बिना कारण होता है, ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि उसका विस्रसोपचयोंके साथ बन्ध भी होता है, सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि 'जघन्य गुणवालेके साथ बन्ध नहीं होता' ('न जघन्य गुणानांत सू./५/३४) इस के साथ विरोध आता है। पं. प.पू./५६.२१ देश हि यथा न तथा छेदो भवेद्गुणांशस्य । विष्कम्भस्य विभागात्स्थूलो देशस्तथा न गुणभागः ॥ ५६॥ तेन गुणांदोन पुनर्गपिताः सर्वे भवन्त्यनन्तास्ते तेषामात्मा गुण इति न हि तै गुणतः पृथक्त्वसत्ताकः । ५६१ = जैसे चौड़ाईके विभागसे देशका छेद होता है वैसे गुणांका घेर नहीं होता। क्योंकि जैसे वह देश देशांश स्थूल होता है वैसे गुणांशस्थूल नहीं होता । ५६ । उस जघन्य विभाग प्रतिच्छेद यदि सब गुणांश गिने जावे तो वे अनन्त होते हैं. और उन सब गुणांशका आत्मा ही गुण कहलाता है। तथा वे सर्व गुणांश निश्चयसे गुमसे पृथक सत्तावाले नहीं हैं ॥५६
निर्देश
५. गुणका परिणामीपना तथा तद्गत शंका अध्यात्मकमल मार्तण्ड / २ / ६ अन्वयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणाऽवयवा ह्यनन्तांशाः । द्रव्याश्रया विनाशप्रादुर्भावाः स्वशक्तिभि शश्वत् ॥ ६ ॥ गुणोंमें नित्य ही अपनी शक्तियों द्वारा विनाश व प्रादुर्भाव होता रहता है।
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पं. ०/४/९९२-९३ वस्तु यथा परिणामी उन परिणामो गुणाचापि । तस्मादुपादव्ययद्वयमपि भवति हि गुणानां तु ॥ ११२ ॥ ननु निरमा हि गुणा अपि भवन्त्यनित्यास्तु पर्यया सर्वे । तत्कि द्रव्यवदिह किल नित्यानित्यात्मकाः गुणाः प्रोक्ताः ॥ ११५ ॥ सत्यं तत्र यतः स्यादिदमेव विवक्षितं यथा येन गुणेभ्यः पृथगिह सविति द्रव्यं पर्यायाचेति । ११६। अयमर्थः सन्ति गुणा अपि किल परिणामिनः स्वतः सिद्धा । नित्यानित्यत्वादप्युत्पादित्रयात्मकाः सम्यक् । १५६ | -जैसे वस्तु परिणमनशील है वैसे ही गुण भी परिणमनशील है, इसलिए निश्चय करके गुणके भी उत्पाद और व्यय ये दोनों होते 裊 १९९२ प्रश्न गुण नित्य होते हैं और सम्पूर्ण पर्यायें अनित्य होती हैं, तो फिर क्यों इस प्रकरण में द्रव्यकी तरह गुणोंको नित्यानित्यात्मक कहा है ' उत्तर-ठीक है, क्योंकि तहाँ यही विवक्षित है।
कि जैसे प्रपने जो 'सत' है, वह सद् गुणोंसे पृथक नहीं है वैसे ही द्रव्य और पर्यायें भी गुणोसे पृथक नहीं हैं । ।११६ । गुण स्वयंसिद्ध है और परिणामी भी है, इसलिए वे निलम और अनित्य रूप होनेसे उपव्ययीव्यात्मक भी हैं । १४६
६. गुणका अर्थ अनन्त पर्यायका समूह
प्र. सा./त.प्र./१६ गुणा विस्तारविशेषाः गुण विस्तार विशेष हैं। श्लो. वा. / भाषा/२/१/६/५६/५०३/७ कालत्रयवर्ती अनंतानंत पर्यायका ऊर्ध्वाश समुदाय एक गुण है
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
७. परिणमन करे पर गुणान्तर रूप नहीं हो सकता रा.वा./२/२४/२५/४१०/२८ स्पर्शादीनां गुणानां परिणाम एकजातीय इत्येतस्यार्यस्य स्थापनार्थं च कियते पृथग्रहणस् तद्यथा स्पर्श एको गुणः काठिन्यलक्षणः स्वजात्यपरित्यागेन पूर्वोत्तरस्वगतभेदनिरोभोजननतरया वर्तनाद द्वित्रिचतुः संख्ये या संख्येयानन्तगुणस्पर्शपर्यायैरेव परिणमते न मृदुगुरूष्यादिस्पर्शे एवं योऽपि या रसश्च तिक्त एक एवं गुणः रसजातिमजद पूर्वमन्नाशोत्पा दाननुभवद्विचिचतुः संख्ये वासवेयानन्त गुणति फररीरेव परिणमते
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