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गुण
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न कटुकादिरसैः । एवं कटुकादयो वेदितव्या । अथ यदा कठिनस्पर्शो] मृदुस्पर्शेन गुरुपुना, स्निग्धो रूक्षेण, शीत उष्णेन परिणमते fare कटुकाविभिइतरे चेहरे, संयोगे च गुणान्तरं स्तदा तत्रापि कठिनस्पर्शः स्पर्शात मृदुस्पर्शेनैव विनाशोरपादी अनुभवत् परिणमते नेरा, एवमितरत्रापि योज्यम् । - स्पर्शादि गुणोका एकजातीय परिणमन होता है इसकी सूचना करनेके लिए पृथन् सूत्र बनाया है जैसे कठिनस्पर्श अपनी जातिको न छोड़कर पूर्व और उत्तर स्वगत भेदोंके उत्पाद विनाशको करता हुआ दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुण स्पर्श पर्यायोंसे ही परिणत होता है, मृदु गुरु लघु आदि स्पर्शोसे नहीं । इसी तरह मृदु आदि भी । तिक्त रस रसजातिको न छोड़कर उत्पाद विनाशको प्राप्त होकर भी दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त गुण तिक्तरसरूप ही परिणमन करेगा कटुक आदि रसोसे नहीं। इसी तरह कटुक आदिमें भी समझना चाहिए। (इसी प्रकार ग्रन्ध व वर्ण गुण भी लागू कर लेना) प्रश्न- जब कठिन स्पर्श मृदुरूपमें, गुरु लघुरूपमें, स्निग्ध रुक्षमें, और शीत उनमें बदलता है. इसी तरह तिल कठिनादि रूपसे तथा और भी परस्पर संयोगसे गुणान्तर रूपमें परिणमन करते हैं, तब यह एकजातीय परिणमनका नियम कैसे रहेगा ? उत्तर- ऐसे स्थान में कठिन स्पर्श अपनी स्पर्श जातिको न छोड़कर ही मृदु स्पर्शसे विनाश उत्पादका अनुभव करता हुआ परिणमन करता है अन्य रूपमें नहीं। इसी तरह अन्य गुणोंमे भी समझ लेना चाहिए।
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८. प्रत्येक गुण अपने-अपने रूपसे पूर्ण स्वतन्त्र है
पं.ध. /उ./१०१२-१०१३ न गुणः कोऽपि कस्यापि गुणस्यान्तर्भवः कचित् । नाधारोऽपि च नाधेयो हेतुर्नापीह हेतुमाइ ॥ १०१२ | किन्तु सर्वेऽपि स्वामीयाः स्वात्मीयशक्तियोग नानारूपा हानेवेऽपि सता सम्मिलिता मिथः । १०१३ | = प्रकृतमें कहीं भी कोई भी गुण किसी भी गुणका अन्तर्भावी नही है, आधार नहीं है, आधेय भी नहीं है, कारण और कार्य भी नहीं है ११०१२। किन्तु अपनी अपनी शक्तिको धारण करनेकी अपेक्षासे सब गुण अपने अपने स्वरूप में स्थित हैं। इस लिए यद्यपि के नानारूप व अनेक हैं तथापि निश्चयपूर्वक वे सब गुण परस्पर में एक ही सत्के साथ अन्वयरूपसे सम्बन्ध रखते हैं । उपादान निमित्त चिट्ठी (पं. बनारसी दास) - ज्ञान चारित्रके आधीन नहीं, चारित्र ज्ञानके आधीन नहीं। दोनों असहाय रूप है। ऐसी तो मर्यादा है।
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९. गुणों में परस्पर कथंचित् भेदाभेद
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हरणं चैतज्जीने मदर्शनं मुखश्चैकः तन्न ज्ञानं न सुखं चारित्रं वा न कश्चिदितरश्च ॥१॥ एवं यः कोऽपि गुण. सोऽपि च न स्यात्तदन्यरूप वा । स्वयमुच्छल न्ति तदिमा मिथो विभिन्नाश्च शरूयोऽनन्ताः ॥५२॥ = जीवमें जो दर्शन नामका एक गुण है, वह न ज्ञान गुण है, न सुख है, न चारित्र अथवा कोई अन्य गुण हो हो सकता है। किन्तु यह 'दर्शन' दर्शन ही है ॥५१॥ इसी तरह द्रव्यका जो कोई भी गुण है, वह भी उससे भिन्न रूपवाता नहीं हो सकता है अर्थात सब गुण अपने अपने स्वरूप में ही रहते हैं, इसलिए ये परस्पर भिन्न अनन्त ही शक्तियाँ द्रव्यमें स्वयं उछलती हैं--प्रतिभासित होती है ए
१०. ज्ञानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं पं... /६६२.३१२ नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्मिता । शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ॥३६२॥ ज्ञानादिना गुणाः सर्वे प्रोक्ताः स लक्षणाङ्किता । सामान्याद्वा विशेषाद्वा सत्यं नाकारमात्रका.
३. द्रव्य गुण सम्बन्ध
| ३६५ | जो आकार न हो सो अनाकार है। इसलिए वास्तव में ज्ञानके बिना शेष अनन्त गुणोंमे निर्मिकता होती है। इसलिए ज्ञानके बिना शेष सब गुणोंका लक्षण अनाकार होता है | ३६२| ज्ञानके बिना शेष राम गुण केवल सवरूप लक्षणसे हो लक्षित है। इसलिए सामान्य अथवा विशेष दोनों ही अपेक्षासे वास्तव में अनाकार रूप ही होते है॥३६॥
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११. सामान्य गुण द्रव्यके पारिणामिक भाव है स.सि./२/०/१६१/२ ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशवस्वादयोऽपि भावाः पारिणामिका सन्ति तेषामिह ग्रहणं कर्तव्यम् न कर्तव्यः कृतमेव । कथम् ! 'च' शब्देन समुच्चितत्वात् । यद्येवं त्रय इति सख्या विरुध्यते । न विरुध्यते, असाधारणा जीवस्य भात्राः पारिनामिकास्त्रय एव । अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीव विषयत्वात्साधारणा इति च शब्देन पृथग्गृह्यन्ते प्रश्न अस्तित्व, नित्यत्व, और । - - प्रदेशत्व आदिक भी पारिणामिक भाव हैं। उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए। उत्तर- उनका ग्रहण पहले ही 'च' शब्द द्वारा कर लिया गया है, अतः पुन' ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं। प्रश्नयदि ऐसा है तो 'तीन' संख्या ( जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व ) विरोधको प्राप्त होती है उत्तर नहीं होती, क्योंकि जीव के असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही है। अस्तित्वादिक तो जीव और अजीब दोनों के साधारण है। इसलिए उनका 'च' शब्दके द्वाराअलग से ग्रहण किया गया है।
१२. सामान्य व विशेष गुणका प्रयोजन
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प्र.सा./त.प्र./१४ चैतन्यपरिणामी चैतमत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभव जीवमधिगमयति । एवं गुणविशेषाद्रव्यविशेषोऽधिगन्तव्यः । चेतना गुणा जीवका ही है। शेष पाँच द्रव्योंमें असम्भव होनेसे जीवको ही प्रगट करता है । इस प्रकार विशेष गुणोके भेदसे द्रव्योंका भेद जाना जाता है। पं.ध./पू./१६२ तेषामिह वक्तव्ये हेतुः साधारण गुणै र्यस्मात् । द्रव्यत्वमस्ति साध्यं द्रव्य विशेष साध्यते वितरे. १९६१ - यहॉपर उन गुणों के कहने में प्रयोजन यह है कि जिस कारण से साधारण गुणोंके द्वारा तो केवल प्रव्यत्व सिद्ध किया जाता है और विशेष गुणोंके द्वारा द्रव्य विशेष सिद्ध किया जाता है ।
३. द्रव्य गुण सम्बन्ध
५. गुण वस्तुके विशेष हैं
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पं.ध.पू./१८ अ चैन से प्रदेशाः सविशेषा द्रव्यसंहया भगिता अपि विशेषाः सर्वे गुणसंज्ञास्ते भवन्ति यावन्तः |३८|- विशेष गुणसहित वे प्रदेश ही द्रव्य नामसे कहे गये हैं और जितने भी विशेष है ये सम गुण कहे जाते हैं।
२. गुण द्रव्यके सहभावी विशेष हैं।
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१.प्र./मू./१/५७ सह-भुन जामहि ठाउँ गुण कमभुवपज्जत वृत्तु । सहस्रको तो गुण जानों और क्रमभूको पर्याय । (पं.का./त.प्र./६); (पं.का./ ता.वृ./१/१४/६); (प्र.सा./ता.वृ./१३/१२९/१९) (नि.सा./ता.वृ./१०७): (त. अनु. / ११४) (पं.भ./पु. ९३८) ।
प्रसा/त.प्र./२३५ सहक्रमप्रवृतानेकधर्म व्यापकानेकान्तमयः । (विचित्र गुणपर्याय विशिष्ट द्रव्य) सह-कम-प्रत अनेक धर्मो व्यापक अनेकान्तमय है।
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