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केवलज्ञान
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६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना
६. वास्तवमें ज्ञेयाकारोंसे प्रतिबिम्बित निजात्माको देखते हैं
देता है, उसी प्रकार संवेदना (ज्ञान) भी आत्मासे अभिन्न होनेसे समस्त ज्ञयाकारोमे व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारणका उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता, कि ज्ञान पदार्थो में व्याप्त होकर वर्तता है । ( स.सा./पं जयचन्द/६) स.सा./ता.व./२६८ घटाकारपरिणतं ज्ञानं घट इत्युपचारेणोच्यते।-घटाकार परिणत ज्ञानको ही उपचारसे घट कहते है। ८. छमस्थ मी निश्चयसे स्वको और व्यवहारसे परको
जानता है प्र.सा./ता.व./३६/५२/१६ यथायं केवली परकीय द्रव्यपर्यायान् यद्यपि
परिच्छित्तिमात्रेण जानाति तथापि निश्चयनयेन सहजानन्दै कस्वभावे स्वशुद्धात्मनि तन्मयत्वेन परिच्छित्ति करोति, तथा निर्मल विवेकिजनोऽपि यद्यपि व्यवहारेण परकीयद्रव्यगुण पर्यायपरिज्ञानं करोति, तथापि निश्चयेन निर्विकारस्वसंवेदनपर्याये विषयत्वात्पर्यायेण परिज्ञानं करोतीति सूत्रतात्पर्यम् । जिस प्रकार केवली भगवाद परकीय द्रव्यपर्यायोंको यद्यपि परिच्छित्तिमात्ररूपसे जानते हैं तथापि निश्चयनयसे सहजानन्दरूप एकस्वभावी शुद्धात्मामें ही तन्मय होकर परिच्छित्ति करते है, उसी प्रकार निर्मल विवेकीजन भी यद्यपि व्यवहारसे परकीय द्रव्यगुण पर्यायोंका ज्ञान करता है परन्तु निश्चयसे निर्विकार स्वसंवेदन पर्यायमें ही तद्विषयक पर्यायका ही ज्ञान करता है।
रा. वा /१/१२/१५/५६/२३ अथ द्रव्पसिद्धिर्माभूदिति 'आकार एव न ज्ञानम्' इति कलप्यते; एवं सति कस्य ते आकारा इति तेषामप्यभाव: स्यात् । यदि (बौद्ध लोग) अनेकान्तात्मक द्रव्यसिद्धिके भयसे केवल आकार हो आकार मानते हैं, पर ज्ञान नहीं तो यह प्रश्न होता है कि वे आकार किसके हैं. क्योंकि निराश्रय आकार तो रह नहीं सकते हैं। ज्ञानका अभाव होनेसे आकारोका भो अभाव हो जायेगा। ध. १३/५.५,८४/३५३।२ अशेषवाह्यार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिनः सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्यभावादियुक्त आह-'पस्सदि' त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति।केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थोंका ज्ञान होनेपर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके स्वरूपपरिच्छित्ति अर्थात स्वसंवेदनका अभाव है: ऐसी आशंकाके होनेपर सूत्रमें 'पश्यति' कहा है। अर्थात वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित आत्माको भी देखते हैं। प्र.सा./त प्र./४६ आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव । ज्ञानं तु प्रत्यात्मवर्ति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि। ते च सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धना. । अथ य... प्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्षं न करोति स कथ...सर्व द्रव्यपर्यायान प्रत्यक्षीकुर्यात् । एवं च सति ज्ञानमयत्वेन स्वसचेतकत्वादात्मनो ज्ञातृशेययोर्वस्तुत्वे नान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्यमानयो स्वस्यामवस्थायामन्योन्यसंमलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखातमिव प्रतिभाति । यद्य व न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावात परिपूर्णस्यैकस्यात्मनोऽपि ज्ञान न सिद्धयेत् । पहिले तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होनेसे ज्ञातृत्वके कारण ज्ञान ही है और ज्ञान प्रत्येक आत्मामें वर्तता हुआ प्रतिभासमय महासामान्य है, बहु प्रतिभास अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाला है और उन विशेषोंके निमित्त सर्व द्रव्यपर्याय हैं। अब जो पुरुष उस प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्माका स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता वह सर्व द्रव्य पर्यायोंको कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ! अतः जो आत्माको नहीं जानता व सबको नहीं जानता। आत्मा ज्ञानमयताके कारण संचेतक होनेसे, ज्ञाता और ज्ञेयका वस्तुरूपसे अन्यत्व होनेपर भो, प्रतिभास और प्रतिभास्य मानकर अपनी अवस्थामें अन्योन्य मिलन होनेके कारण, उन्हें (ज्ञान व ज्ञेयाकारको) भिन्न करना अत्यन्त अशक्य है इसलिए, मानो सबकुछ आत्मामें प्रविष्ट हो गया हो इस प्रकार प्रतिभासित होता है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञानके परिपूर्ण आत्मसंचेतनका अभाव होनेसे परिपूर्ण एक आत्माका भी ज्ञान सिद्ध न हो। (प्र.सा./त.प्र./४८), (प्र.सा./ता-वृ./३५), (पं.ध./पू /६७३) स.सा./परिशिष्ट/कर५१ ज्ञेयाकारकलड्कमेचकचिति प्रक्षालन कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशनच्छति ।..१२५११-ज्ञेयाकारोंको धोकर चेतनको एकाकार करनेकी इच्छासे अज्ञानीजन वास्तव में ज्ञानको ही नहीं चाहता। ज्ञानी तो विचित्र होनेपर भी ज्ञानको प्रक्षालित हो अनुभव करता है।
९. केवलज्ञानके स्वपर-प्रकाशकपनेका समन्वय नि.सा./मू./१६६-१७२ अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोय ण केवली भगवं। जह कोइ भणइ एवं तस्स य कि दूसणं होइ।१६६। मुत्तममुत्तं दवं चेयणमियर सगं च सव्वं च । पेच्छतस्स दुणाणं पञ्चवरखमाणिदियं होइ ।१६७। पुवुत्तसयलदव्वं णाणागुण पज्जएण संजुत्त । जो ण य पैच्छइ सम्म परोक्रवदिट्ठी हवे तस्स ।१६। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं । जो केइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।१६। णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणइ अप्पर्ग अप्पा। अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ॥१७०। अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। तम्हा सपरपयासं जाणं तह दसणं होदि ।१७११ जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।१७२। प्रश्न-केवली भगवान आत्मस्वरूपको देखते हैं लोकालोकको नहीं, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे क्या दोष है ।।१६६। उत्तर-पूर्त, अमूर्त, चेतन व अचेतन दव्योंको स्वको तथा समस्तको देखनेवालेका ही ज्ञान प्रत्यक्ष और अनिश्चय कहलाता है। विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो सम्यक् प्रकार नहीं देखता उसकी दृष्टि परोक्ष है ।१६७-१६८० प्रश्न-(तो फिर) केवली भगवान् सोकालोकको जानते हैं आत्माको नहीं ऐसा यदि कहें तो क्या दोष है ।१६। उत्तरज्ञान जीवका स्वरूप है, इसलिए आत्मा आत्माको जानता है, यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो वह आत्मासे पृथक सिद्ध हो। इसलिए तू आत्माको ज्ञान जान और ज्ञानको आत्मा जान । इसमें तनिक भी सन्देह न कर। इसलिए ज्ञान भो स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी (ऐसा निश्चय कर)-(और भी दे० दर्शन/२/६)१७०-१७११ प्रश्न(परको जाननेसे तो केवली भगवान्को बन्ध होनेका प्रसंग आयेगा, क्योंकि ऐसा होनेसे वे स्वभावमें स्थित न रह सकेंगे। उत्तर-- केवलीका जानना देखना क्योंकि इच्छापूर्षक नहीं होता है, (स्वाभाविक होता है । इसलिए उस जानने देखनेसे उन्हें बन्ध नहीं है ।१७२। नि.सा/ता वृ./गा.स भगवान्.. सच्चिदानन्दमयमात्मानं निश्चयतः पश्य
तीति शुद्धनिश्चयनयविवक्षयाय' कोऽपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो बक्ति तस्य च न खलु दूषणं भवतीति ।१६६। पराश्रितो व्यवहार इति मानाद् व्यबहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धा
७. ज्ञेयाकारमें ज्ञेयका उपचार करके ज्ञेयको जाना कहा জানা ই प्र.सा./त.प्र./३० यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमाने, तथा संवेदनमध्यात्मनोऽभिन्नत्वात्.. समस्तज्ञयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपर्य ज्ञानमनिभिभूय वर्तत इत्युच्यमान न विप्रतिषिध्यते।-जैसे दूधमें पड़ा हुआ इन्द्रनीलरत्न अपने प्रभावसमूहसे दूधमें व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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