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केवलज्ञानावरण
केवली
कदाचित उपदेश देनेवाले और मूक केवली । मूक केवली बिलकुल भी उपदेश आदि नहीं देते। उपरोक्त सभी केवलियों की दो अवस्थाएँ होती है-सयोग और अयोग। जब तक बिहार व उपदेश आदि क्रियाएँ करते है, तबतक सयोगी और आयुके अन्तिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओंको त्याग सर्वथा योग निरोध कर देते हैं तब अयोगी कहलाते हैं।
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त्मस्वरूपं नैव जानाति (लोकालोकं जानाति) यदि व्यवहारनयविवक्षया कोऽपि जिननाथतत्त्व विचारलब्ध. कदाचिदेवं वक्ति चेव तस्य न खलु दूषणमिति।१६। केवलज्ञानदर्शनाम्यां व्यवहारनयेन जगत्त्रयं एकस्मिन् समये जानाति पश्यति च स भगवान परमेश्वरः परम, भट्टारक; पराश्रितो व्यवहारः इति वचनाद। शुद्धनिश्चयतः...निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मापि जानाति पश्यति च । कि कृत्वा, ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवत् ।.."आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परंज्योतिःस्वरूपत्वाव स्वयंप्रकाशास्मकमात्मानं च प्रकाशयति । अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येति सततनिरुपरागनिरञ्जनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय. इति वचनात् । सहजज्ञानं तावदात्मनः सकाशात संज्ञालक्षणप्रयोजनेन...भिन्न भवति न वस्तुवृत्त्या चेति, अतः कारणात एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिक जानाति स्वारमानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति ।१५६।- वह भगवान आत्माको निश्चयसे देखते हैं" शुद्धनिश्चयनयकी विवक्षासे यदि शुद्ध अन्तस्तत्त्वका वेदन करनेवाला अर्थात ध्यानस्थ पुरुष या परम जिनयोगीश्वर कहें तो उनको कोई दूषण नहीं है ।१६६। और व्यवहारनय क्योंकि पराश्रित होता है, इसलिए व्यवहारनयसे व्यवहार या भेदकी प्रधानता होनेके कारण 'शुद्वारमरूपको नहीं जानते, लोकालोकको जानते हैं। ऐसा यदि कोई जिननाथतत्त्वका विचार करनेवाला अर्थात् विकल्पस्थित पुरुष व्यवहारनयकी विवक्षासे कहे तो उसे भी कोई दूषण नहीं है ।१६। अर्थात विवक्षावश दोनो ही बातें ठीक हैं। (अब दूसरे प्रकारसे भी आत्माका स्वपरप्रकाशकत्व दर्शाते हैं, तहाँ व्यवहारसे तथा निश्चयसे दोनों अपेक्षाओंसे ही ज्ञानको व आत्माको स्वपरप्रकाशक सिद्ध किया है ।) सो कैसे-केवलज्ञान व केवलदर्शनसे व्यवहारनयको अपेक्षा वह भगवान् तीनों जगत्को एक समयमें जानते हैं, क्योंकि व्यवहारनय पराश्रित कथन करता है। और शुद्धनिश्चयनयसे निज कारण परमात्मा व कार्य परमात्माको देखते व जानते हैं (क्योंकि निश्चयनय स्वाश्रित कथन करता है । दीपकवत स्वपरप्रकाशक पना ज्ञानका धर्म है।१६। इसी प्रकार आत्मा भी व्यवहारनयसे जगत्रय कालत्रयको और पर ज्योति स्वरूप होनेके कारण (निश्चयसे ) स्वयं प्रकाशात्मक आत्माको भी जानता है ।१५६। निश्चय नयके पक्षमें भी ज्ञानके स्वपरप्रकाशकपना है। (निश्चय नयसे ) वह सतत निरुपराग निरंजन स्वभावमें अवस्थित है, क्योंकि निश्चय नय स्वाश्रित कथन करता है। सहज ज्ञान संज्ञा, लक्षण व प्रयोजनकी अपेक्षा आत्मासे कथंचिद्न भिन्न है, वस्तुवृत्ति रूपसे नहीं। इसलिए वह उस आत्मगत दर्शन, सुख, चारित्रादि गुणोंको जानता है, और स्वात्माको भो कारण परमात्मस्वरूप जानता है। (इस प्रकार स्व पर दोनोको जानता है।) (और भो दे० दर्शन/२/६) (और भी देखो
नय/V/७/१) तथा (नय/V/8/४ ) । केवलज्ञानावरण-दे० ज्ञानावरण । केवलदर्शन-दे० दर्शन/१ केवलदर्शनावरण-दे० दर्शनावरण । केवललब्धि -दे० लब्धि/१॥ केवलाद्वैत-दे० नय III/४/५ कवला-केवलज्ञान होनेके पश्चात् वह साधक केवली कहलाता है। इसीका नाम अर्हन्त या जीवन्मुक्त भी है। वह भी दो प्रकारके होते हैं-तीर्थकर व सामान्य केवली । विशेष पुण्यशाली तथा साक्षात् उपदेशादि द्वारा धर्मको प्रभावना करनेवाले तीर्थकर होते हैं, और इनके अतिरिक्त अन्य सामान्य केली होते हैं। वे भी दो प्रकारके होते हैं,
भेद व लक्षण केवली सामान्यका लक्षण व भेद निदेश सयोगी व अयोगी दोनों अर्हन्त हैं दे. अर्हन्त/२। अहंत. सिद्ध व तीर्थकर अंतकृत् व श्रुतकेवली
-दे० वह वह नाम । तद्भवस्थ व सिद्ध केवलीके लक्षण ।
सयोग व अयोग केवलोके लक्षण । २ केवली निर्देश
केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वश होता है। * | सर्वज्ञ व सर्वशता तथा केवलीका शान
-दे० केवलज्ञान/४,५॥ २ सयोग व अयोगी केवलीमें अन्तर। सयोगीके चारित्रमें कथंचित् मलका सद्भाव
-दे० केवली/२/२। सयोग व अयोग केवलीमें कर्म क्षय सम्बन्धी विशेष । केवलीके एक क्षायिक भाव होता है। केवलोके सुख दुःख सम्बन्धी
-दे० सुख। छमस्थ व केवलीके आत्मानुभवकी समानता ।
-दे० अनुभव/1 केवलियोंके शरीरकी विशेषताएँ। तीर्थकरोंके शरीरकी विशेषताएँ -दे० तीर्थकर/१। केवलज्ञानके अतिशय
-दे० अहंत /६। केवलीमरण
-दे० मरण/१। तीसरे व चौथे कालमें ही केवली होने सभव है।
-दे० मोक्ष/४/३। * प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थ में केवलियोंका प्रमाण
-दे० तीथंकर/५१ * | सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार ही व्यय होने
सम्बन्धी नियम-दे० मार्गणा/।
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शंका-समाधान ईर्यापथ आस्रव सहित भी भगवान् कैसे हो सकते हैं।
कवलाहार व परीषह सम्बन्धी निर्देश व
शंका-समाधान केवलीको नोकर्माहार होता है। समुद्वात अवस्थामें नोकर्माहार भी नहीं होता। केवलीको कवलाहार नहीं होता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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