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केवली
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७. केवली समुद्धात निर्देश
ध.१३/२/६१/३००/६ दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि कवलिसमुग्घादो णाम । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप जीव प्रदेशोंको अवस्थाको केवलिसमुद्धात कहते हैं। (प का /ता.वृ./१५३/२२१)
२. भेद-प्रभेद ध.४/,१,३,२/२८/८ दंडकवाड-पदर-लोकपूरणभेएण चउबिहो । -दण्ड,
कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे केवलीसमुद्रात चार प्रकार
अष्टसहस्री./पृ.७२ (निर्णय सागर बम्बई) वस्तुतस्तु भगवतो बीतमोह- स्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छाया तत्रासंभवात्। तथाहिनेच्छा सर्व विद' शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् । वास्तवमें केवली भगवानके वीतमोह होनेके कारण, मोह परिणामरूप जो इच्छा है वह उनके असम्भव है। जैसे कि-सर्वज्ञ भगवान्को शासनके प्रकाशनकी भी कोई इच्छा नहीं है, मोहका विनाश हो जानेके कारण । नि. सा./ता वृ./१७३-२७४ परिणामपूर्वक वचनं केवलिनो न भवति...
केवलीमुखारविन्दविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मकः । = परिणाम पूर्वक वचन तो केवलीको होता नहीं है। केवलीके मुखारविन्दसे निकली दिव्यध्वनि समस्तजनोके हृदयको आल्हादके कारणभूत
अनिच्छात्मक होती है। प्र.सा./त.प्र./४४ यथा हि महिलाना प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यता
सद्भावात स्वभावभूत एव मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहार. प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासहभावात् स्थानासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवतन्ते। अपि चाविरुद्धमेतदम्भोघरदृष्टान्ताद। यथा खत्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्ष च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्त, तथा केवलिना स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते । प्रश्न-(बिना इच्छाके भगवान्को विहार स्थानादि क्रियाएँ कैसे सम्भव हैं)। उत्तर-जैसे स्त्रियोके प्रयत्नके बिना भी, उस प्रकारकी योग्यताका सदभाव होनेसे स्वभावभूत हो मायाके ढक्कनसे ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवानके, बिना ही प्रयत्नके उस प्रकारको योग्यताका सद्भाव होनेसे खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं। और यह (प्रयत्नके बिना ही विहारादिका होना ) बादलके दृष्टान्तसे अविरुद्ध है। जैसे बादलके आकाररूप परिणमित पुदगलोंका गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुषप्रयत्नके बिना भी देखी जाती है, उसीप्रकार केवलो भगवान्के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धि पूर्वक ही (इच्छाके बिना ही ) देखा जाता है।
गो. जी /जी. प्र./५४४/१५३/१४ केवलिसमुद्धात' दण्डकबाट प्रतरलोक
पूरणभेदाच्चतुर्धा । दण्डसमुद्रातः स्थितोपविष्टभेदाद द्वधा। कवाटसमुद्धातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थितः उपविष्टश्चेति चतुर्धा। प्रतरलोकपूरणसमुद्धातावेवैककावेव। - केवली समुद्धात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण । तहाँ दंड दोय प्रकार एक स्थिति दंड. अर एक उपविष्ट दण्ड । बहुरि कपाट चारि प्रकार पूर्वाभिमुखस्थितकपाट, उत्तराभिमुखस्थितकपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्टकपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट । बहुरि प्रतर अर लोकपूरण एक एक ही प्रकार है।
५, दण्डादि भेदोंके लक्षण ध.४/१,३,२/२८/८ तत्थ दण्डसमुग्घादो काम पुठबसरीरबाहल्लेण वा तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्वंभादो सादिरेयतिगुणपरिठ्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोहसरज्जुविसप्पणं । कवाडसमुग्धादो णाम पुबिल्लबाहक्लायामेण वादवलयबदिरितसव्वखेत्तावूरणं । पदरसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं बाद वलयरुद्धलोगखेतं मोत्तूण सठवलोगावूरणं । लोगपूरणसमुग्धादो णाम केवलिजीवपदेसाणं घणलोगमेत्ताण सव्वलोगावूरणं । -- जिसकी अपने विष्कंभसे कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्व शरीरके बाहत्यरूप अथवा पूर्व शरीरसे तिगुने बाहल्यरूप दण्डाकारसे केवलीक जीव प्रदेशोंका कुछ कम चौदह राजू उत्सेधरूप फैलनेका नाम दण्ड समुद्धात है। दण्ड समुद्धातमें बताये गये बाहल्य और आयामके द्वारा पूर्व पश्चिममें वातवलयसे रहित सम्पूर्ण क्षेत्रके व्याप्त करनेका नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान्के जीवप्रदेशोंका वातवलयसे रुके हुए क्षेत्रको छोड़कर सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त होनेका नाम प्रतर समुद्धात है। धन लोकप्रमाण केवली भगवानके जीवप्रदेशों का सर्वलोकके व्याप्त करनेको लोकपूरण समुद्धात कहते हैं। (ध./१३/५/४/२६/२)
७. केवलीके उपयोग कहना उपचार है रा, वा./२/१०/१२५/१० तथा उपयोगशब्दार्थोऽपि संसारिषु मुख्य' परिणामान्तरसंक्रमात, मुक्तेषु तदभावाद्ध गौणः कल्प्यते उपलब्धिसामान्यात् ।-संसारी जीवोंमें उपयोग मुख्य है, क्योंकि बदलता रहता है। मुक्त जीवों में सतत एकसी धारा रहनेसे उपयोग गौण-है वहाँ तो उपलब्धि सामान्य होती हैं।
७. केवली समुद्धात निर्देश
1. केवली समुद्धात सामान्यका लक्षण स. सि./8/४४/४५७/३ लघुकर्मपरिपाचनस्याशेषकर्मरेणुपरिशातनशक्तिस्वाभाव्याद्दण्डकपाटप्रतरलोक पूरणानि स्वात्मप्रदेशविसर्पणत' ...। समुपहतप्रदेशविसरण' । -जिनके स्वल्पमात्रामें कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने ( केवली अपने ) आत्मा प्रदेशोंके फैलनेसे कर्म रजको परिशातन करनेकी शक्तिवाले दण्ड, कपाट, प्रतर
और लोकपूरण समुद्धातको...करके अनन्तरके विसर्पणका संकोच करके..। रा. वा./१/२०/१२/७७/१६ द्रव्यस्वभावत्वात सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुदबुदाविर्भावोपशमनबद्ध देहस्थात्मप्रदेशाना बहि समुद्घातनं केवलिसमुद्धातः। - जैसे मदिरामें फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह समुद्रातमें देहस्थ आरमप्रदेश बाहर निकलकर फिर शरीरमें समा जाते है, ऐसा समुद्रात केवली करते है।
४. समी केवलियोंको होने न होने विषयक दो मत भ.आ./मू /२१०६ उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिवली जादा। बच्चंति समुग्धादं सेसा भज्जा समुग्धादे ।२१०१। =उत्कर्षसे जिनका आयु छह महीनेका अवशिष्ट रहा है ऐसे समयमें जिनको केवल ज्ञान हुआ है वे केवली नियमसे समुद्घातको प्राप्त होते हैं। बाकीके केवलियोंको आयुष्य अधिक होनेपर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा, नियम नहीं है। (प. सं./प्रा.१/२००); (ध. १/१,१,३०/१६७); (झा./४२/४२); (वसु.भा./५३०) ध.१/१,१,६०/३०२/२ यत्तिवृषभोपदेशात्सर्वधातिकर्मणां क्षीणकषायचरमसमये स्थिते. साम्याभावात्सर्वेऽपि कृतसमुदधाताः सन्तो निवृत्तिमुपढौकन्ते । येषामाचार्याणी लोकव्यापिकेवलिषु विशतिसंख्यानियमस्तेषां मतेन केचित्समुद्धातयन्ति । के न समुद्धातयन्ति । -यतिवृषभाचार्यके उपदेशानुसार क्षीणकषाय गुणस्थानके चरमसमयमें सम्पूर्ण अघातिया कर्मोकी स्थिति समान नहीं होनेसे सभी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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