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केवली
६. ध्यान, लेश्या आदि सम्बन्धी निर्देश
केवत्यकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते। -प्रश्न-उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानमे शुक्ल लेश्या है ऐसा आगम है, परन्तु वहाँपर कषायका उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नही बन सकता ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि जो योग प्रवृत्ति वायके उदयसे अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्व भावप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानोमें भी लेश्याको औदयिक कहा गया है। (रा.वा./२/६/-/R0828)(गो.जी./ मू./५३३ )। ध,७/१,१,६१/१०४/१२ जदि कसाओदएण लेस्साओ उच्चति तो खीणकसायाण लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चमेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्जदि । कितु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। तेण कसाये फिट्ट वि जोगो अस्थि त्ति खीणकसायाणं लेस्सत्तं ण बिरुज्झदे। -- प्रश्न-यदि कषायोंके उदयसे लेश्याओं का उत्पन्न होना कहा जाता है तो नारा गुणस्थानवी जीवोके लेश्याके अभावका प्रसग आता है। उत्तर-सचमुच ही क्षीण कषाय जीवोमें लेश्याके अभावका प्रसंग आता यदि केवल कषायोदयसे ही लेश्याकी उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीर नामकर्मोदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योकि वह भी कर्म के बन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषायके नष्ट हो जानेपर भी चूकि योग रहता है, इसलिए क्षीणकषाय जीबोके लेश्या माननेमे कोई विरोध नहीं आता । (गो.जी /मू /५३३ )।
२. केवलीके संयम कहना उपचार है तथा उसका कारण ध. १/१.१,१२४/३७४/३ अथ स्यात् बुद्धिपूर्विका सावद्यविरति संयम',
अन्यथा काष्ठादिष्वपि संयमप्रसङ्गात । न च केवलीषु तथाभूता निवृत्तिरस्ति ततरतत्र संयमो दुर्घट इति नैष दोषः, अघातिचतुष्टयविनाशापेक्षया समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्म निर्जरापेक्षया च सकलपापक्रियानिरोधलक्षणपारिणामिकगुणाविर्भावापेक्षया वा, तत्र संयमोपचारात । अथवा प्रवृत्त्यभावापेक्षया मुख्यसंयमोऽस्ति (न काष्ठेन व्यभिचारस्तत्र प्रवृत्त्यभावतस्तन्निवृत्त्यनुपपत्ते. । प्रश्न--बुद्धिपूर्वक सावद्य योगके त्यागको संयम कहना तो ठीक है। यदि ऐसा न माना जाये तो काष्ठ आदिमें भी संयमका प्रसंग आ जायेगा। किन्तु केवलीमें बुद्धिपूर्वक सावद्ययोगको निवृत्ति तो पायी नहीं जाती है इसलिए उनमें संयमका होना दुर्घट ही है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मोके विनाश करनेकी अपेक्षा और समय-समयमें असंख्यात गुणी श्रेणी रूपसे कर्म निर्जरा करनेकी अपेक्षा सम्पूर्ण पापक्रियाके निरोधस्वरूप पारिणामिक गुण प्रगट हो जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे वहाँ संयमका उपचार किया जाता है। अतः वहाँपर संयमका होना दुर्घट नहीं है। अथवा प्रवृत्तिके अभावकी अपेक्षा वहॉपर मुख्य संयम है। इस प्रकार जिनेन्द्रमे प्रवृत्यभाव से मुख्य संयमकी सिद्धि करनेपर काष्ठसे व्यभिचार दोष भी नही आता है, क्योंकि, काष्ठमें प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है, तब उसकी निवृत्ति भी नहीं बन सकती है।
मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा झाणं संभवदि । ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिताणिरोहो ज्झामिद जदि घेपदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेपदि । · जोगा उवयारेण चिंता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मितं ज्माण मिदि एत्थ घेत्तव्वं । ध. १३/५,४,२६/८७/१३ कधमेत्य झाणववएसो 1 एयग्गेण चिताए जीवस्स गिरोहो परिप्फंदाभावो ज्माणं णामा-१. प्रश्न-इस योग निरोधके कालमे केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यानको ध्याते है, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवली, जिन अशेष द्रव्य पर्यायोंको विषय करते हैं, अपने सब कालमें एक रूप रहते है और इन्द्रिय ज्ञानसे रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तुमें मनका निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मनका निरोध किये बिना ध्यानका होना सम्भव नहीं है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि प्रकृतमे एक वस्तुमें चिन्ताका निरोध करना ध्यान है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते है। यहाँ उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्र रूपसे निरोध अर्थाद विनाश जिस ध्यानमे किया जाता है, वह ध्यान है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। २. प्रश्न----यहाँ ध्यान संज्ञा किस कारणसे दी गयी है । उत्तर-एकाग्ररूपसे जीवके चिन्ताका निरोध अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना हो ध्यान हैं, इस
दृष्टिसे यहाँ ध्यान संज्ञा दी गयी है। पं. का /ता.वृ./१५२/२१८/१० भावमुक्तस्य केवलिनो.. स्वरूपनिश्चलत्वाद.. पूर्व सचितकर्मणां ध्यानकार्यभूतं स्थितिविनाश गलनं च दृष्ट्वा निर्जरारूपध्यानस्य कार्यकारणमुपचर्योपचारेण ध्यानं भण्यत इत्यभिप्रायः। =स्वरूप निश्चल होनेसे भावमुक्त केवलीके ध्यानका कार्यभूत पूर्वसंचित कर्मों की स्थितिका विनाश अर्थात गलन देखा जाता है। निर्जरारूप इस ध्यानके कार्य-कारणमें उपचार करनेसे केवलीको ध्यान कहा जाता है ऐसा समझना चाहिए। (चा. सा/१३१/२)। ४. केवलीके एकत्व वितर्क ध्यान क्यों नहीं कहते
ध. १३/५,४,२६/७५/७ आवरणाभावेण असेसदबपज्जए उवजुत्तस्स केवलोपजोगस्स एगदव्वम्हि पजाए वा अवट्ठाणाभावद ठूणं तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो-आवरणका अभाव होनेसे केवली जिनका उपयोग अशेष-द्रव्य पर्यायोमें उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एक द्रव्यमें या एक पर्यायमें अवस्थानका अभाव देखकर उस ध्यानका ( एकत्ववितर्क अविचार ) अभाव कहा है। ७. तो फिर केवली क्या ध्याते हैं
३. केवलीके ध्यान कहना उपचार है तथा उसका कारण
रा.वा./२/१०/५/१२५/८ यथा एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति छद्मस्थे ध्यानशब्दार्थो मुख्यश्चिन्ताविक्षेपवतः तन्निरोधोपपत्र, तदभावाद' केवलिन्युपचरित फलदर्शनात। =एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवलीमें तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचारसे ही वह माना जाता है। ध. १३/५४.२६/८६/४ एदम्हि जोगणिरोहकाले सुहमकिरियमप्पण्डिवादि ज्माणं झायदि त्ति ज भणिदं तण्ण घडदे, केवलिस्स विसईकयासेसदव्यपज्जायस्स सगसव्वदाए एगरूवस्स अणि दियस्स एगवत्थुम्हि
प्र. सा./मू /१६७-१६८ णिहदघणघादिकम्मो पञ्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । णेयंतगदो समणो झादि कमळं असंदेहो।१६। सव्वबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्रवणाणड्ढो। भूदो अवरवातीदो झादि अणक्खो पर सोकरवं ।१६८ = प्रश्न-जिसने धनधाति कर्मका नाश किया है, जो सर्व पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानते हैं, और ज्ञेयोंके पारको प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण क्या ध्याते है । उत्तर - अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मामें समंत ( सर्व प्रकारके, परिपूर्ण ) सौख्य तथा ज्ञानसे समृद्ध रहता हुआ परम सौख्यका ध्यान करता है।
६. केवलीको इच्छाका अभाव तथा उसका कारण नि सा /मू./१७२ जाणं तो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ।१७२। -- जानते और देखते हुए भी, केवलीको इच्छापूर्वक (वर्तन ) नहीं होता; इसलिए उन्हे केवलज्ञानी' कहा है। और इसलिए अबन्धक कहा है। (नि. सा /मू./१७५)
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