________________
केवली
केवली समुद्घात करके ही मुक्तिको प्राप्त होते है । परन्तु जिन आचार्योंके मतानुसार लोकपूरण समुद्रघात करनेवाले केवलियोकी बोस संख्याका नियम है, उनके मतानुसार कितने ही केवली समुघात करते हैं और कितने नही करते हैं ।
घ. १३/८.४.२९/१२९/१३ सम्मेसि निगम ताणं केवलिरुमुग्धादाभावादो। =मोक्ष जानेवाले सभी जीवोंके केवलि समुद्घात नही होता ।
५. आयुके छह माह शेष रहनेपर होने न होने सम्बन्धी दो मत
४. १/१.१.६०/१६७/२०३ धम्मासा उनसे से उप्प जस्स केवलगा । स-समुग्धाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्धाए | १६७ एदिस्से गाहाए उपरसे कष्ण गहिओ ण भज्जत्ते कारणापुलं भादो प्रश्नछह माह प्रमाण आयुके शेष रहनेपर जिस जोवको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वह समुद्घाटको करके ही मुक्त होता है। शेष जो सगु घात करते भी हैं और नहीं भी करते है । १६७ (भ.आ./मू./२१०६) इस पूर्वोक्त गाथाका अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया है ' उत्तर- नहीं, क्योकि इस प्रकार विकल्पके माननेमें कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिए पूर्वोक्त गाथाका उपदेश नहीं ग्रहण किया है।
६. कदाचित् आके अन्तर्मुह शेष रहनेपर होता है
भ.// २९९२ अंतरासे से जंति समुग्धादमा २११२ -आमुक जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहता है तब केवसी समुद्रात करते हैं । ( स सि./१/४४/४५७/१); (ध.१३/५,४,२६/०४/१); (क्ष. सा. /६२०); (प्र.सा/ता.वृ./१५३/१३९) ।
租
७. आत्मप्रदेशोंका विस्तार प्रमाण
स.सि./१/८/२०४/११ यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मन्दरस्यावश्चित्र वज्रपटलमध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा व्यवतिष्ठन्ते । इतरे ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते । = केवलिसमुद्घात के समय जब यह (जीव ) लोकको व्यापता है उस समय जीवके मध्य के आठ 'प्रवेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवीके वजनय पटल के मध्य में स्थित हो जाते है और शेष प्रदेश ऊपर नीचे और तिरछे समस्त लोकको उपाप्त कर लेते है। (रा.वा./५/८/४/४५०/१)
घ. १९/४.२.५.१०/३/११ केवली दंड करेमागो सो सरीरगुणाहरुले (ण) कुणदि, वेणाभावादो । को पुण सरीरतिगुणबाहल्लेण दंड कुणइ । पलियंकेण णिसण्णकेवली । दण्ड समुद्घातको करनेवाले सभी केवल शरीर से तिगुणे माहत्यले उक्त समुद्रघातको नहीं करते, क्योंकि उनके वेदनाका अभाव है। प्रश्न- तो फिर कौनसे केवली शरीरसे तिगुणे माहत्य से दण्डसमुद्रघातको करते है उत्तर पक वासन स्थित केवसी उक्त प्रकारसे दण्ड समुदघातको करते हैं। गो.ज./सी.प्र./४/१५३ केवल भाषार्थ-दष्ट-स्थितिदण्डसमुद्रात वि एक जीवके प्रदेश के बिना लोककी ऊंचाई किचित् जन चौदह राजू प्रमाण है सो इस प्रमाण लंबे बहुरि मारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोल आकार प्रदेश है। स्थितिदण्डके क्षेत्रको नवगुणा कीजिए तब उपविष्टदण्ड विषै क्षेत्र हो है । सो यहाँ ३६ अंगुल पौड़ाई है। कपाट पूर्वाभिमुख स्थित कराट समुद्रपातविये एक जीवके प्रदेश वातवलय बिना लोक प्रमाण तो लम्बे हो हैं सो किचित ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे हो है, बहुरि उत्तर-दक्षिण दिशाविधे लोकको चौडाई प्रमाण चौड़े हो है सो उत्तर-दक्षिण दिशाविषैलोक सर्वत्र सात राजू चौडा है तात सात राजू प्रमाण चौड़े हो है । बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विषे ऊँचे हो है ।
Jain Education International
७. केवली
--
समुद्घात निर्देश पूर्वाभिमुख स्थित कपाटके क्षेत्र से सिगुना पूर्वाभिमुख विष्ट कपाट विषै क्षेत्र जानना । उत्तराभिमुख स्थित कपाटके चौदह राजू प्रमाण तो लम्बे पूर्व-पश्चिम दिशा निर्दे लोकको चौडाईके प्रमाण चीड़े हैं। उतर-दक्षिण विक्रमसे सात एक पाँच और एक राजू प्रमाण चौड़े है। उत्तराभिमुख उपवि कपाट विषै ताते तिगुनी बची अंगुली ऊँचाई है। प्रतर बहुरि प्रतर समुहात व तीन वलय बिना सर्व लोक विषै प्रदेश व्याप्त हैं तातें तीन वातवलयका क्षेत्रफल लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। लोकपुरणमहुरि लोकरण व सर्व लोकाकाश विषै प्रदेश व्यास हो हैं या लोकप्रमाण एक जोव सम्बन्धी लोकपूरण विषै क्षेत्र जानना । ६.सा./६२३/०३/११ भाषार्य कायोत्सर्ग स्थित केरतीके दण्ड समुद्रात उत्कृष्ट १०८ प्रमाण अंगुल ऊँचा, १२ प्रमाणांगुल चौड़ा और सूक्ष्म परिधि २०६१ प्रमाणांगुल युक्त है । पद्मासन स्थित (उपविष्ट) दण्ड समुद्धात विषै ऊँचाई ३६ प्रमाणांगुल, और सूक्ष्म परिधि ११३११ प्रमाणांगुल युक्त है।
१६७
८. कुल आठ समय पर्यन्त रहता है
रा.वा./१/२०/१२/०७/२० केलिसमुहात अष्टसामयिक दण्डकार प्रतरलोकपूरणानि चत समयेषु पुनः प्रतरकाण्डस्वशरीरानुप्रवेशाचतुर्षु इति । == केवलि समुद्घातका काल आठ समय है । दण्ड, कवाट प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर कपाट, दण्ड और स्व शरीर प्रवेश इस तरह आठ समय होते हैं ।
९. प्रतिष्ठापन व निष्ठापन विधिक्रम
पं.सं / प्रा./११७-१९८ पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाड्यं तहा समए । तइए पयर चैव य चउत्थए लोयपूणर्य ॥१६७॥ विवरं पंच समए जोई माण तो सतम से कवाई संपरइ सदोमेड | १६८ | = समुद्घातगत केवली भगवान् प्रथम समय में दण्डरूप समुघात करते हैं । द्वितीय समय में कपाटरूप समुद्घात करते हैं । तृतीय समय में प्रतररूप और चौथे समयमें लोक- पूरण समुद्घात करते है । पाँचवे समयमें वे सयोगिजिन लोकके विवरगत आत्मप्रदेशका संवरण (संकोच करते है पुन छठे समय मन्धान ( प्रतर) गत आत्म-प्रदेशका संवरण करते है। सातवें समय कपाट गत आत्म-प्रदेशोंका संवरण करते हैं और आठवें समय में दण्डसमुद्रालगत आत्म-प्रदेशका संचरण करते हैं (भ आ././२११५) (सा./मू./६२०) (सा/भा/६२३)।
क्ष सा./मू./६२९ हेट्ठा दंडस्सं तो मुहुत्तमावज्जिद हवे करणं । तं च समु ग्वादस् य अभावो जिदिस्स | ६२१ | दण्ड समुद्घात करनेका काल अन्तर्मुहूर्त काल आधा कहिए पहले आवर्जित नामा करण हो है सी जिनेन्द्र देवकें जो समुइयात क्रियाको सम्मुखपना सोई आवजितकरण कहिए ।
१०. दण्ड समुदात में औदारिक काययोग होता है शेष मैं नहीं
= केवलि समुद्घातके उक्त
पं.सं./प्रा / १६६ दंडदुगे ओलं ......१९६६ बाठ समयोमे से दण्ड द्विक अर्थात पहले और सातवें समय के दोनों समुद्रात बीदारिक काययोग होता है (४.४/१.४,८०/२६३/१) ११. प्रतर व लोकपूरण में अनाहारक शेषमें आहारक होता है
क्ष. सा / ६१६ वरि समुग्धादगदे पदरे तह लोग पूरणे पदरे । णत्थि तिसमये णियमा गोकम्माहारयं तस्य ॥ ६१६। केवल समुद्धातकी प्राप्त केवलि वि दोय तौ प्रतर के समय अर एक लोक पूरणका समय इन तीन
=
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org