________________
दिवाकर सेन
दिव्य ध्वनि
दिवाकर सेन-सेन संघकी गुरिनीके अनुसार (दे. इतिहाम)
आप इन्द्रसेनके शिष्य तथा अर्हत सेनके गुरु थे। समय-वि ६४०६८० (ई.५८३-६२३); (म.पु. १२/१६७ प्रशरित); ( प. पु/प्र. १६ पं. पन्नालाल ); दे० इतिहास/७/६ । दिव्य तिलक-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे०
विद्याधर । दिव्यध्वनि-केवलज्ञान होनेके पश्चात् अहंत भगवान के सगिसे एक विचित्र गर्जना रूप ॐकारध्वनि खिरती है जिसे दियध्वनि कहते है । भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवोके पुण्यसे सहज खिरती है पर गणधर देवकी अनुपस्थितिमें नहीं रिवरती। इसके सम्बन्धमें अनेकों मतभेद हैं जेमे कि-यह मुखसे होती है, मुखसे नहीं होती, भापात्मक होती है, भाषात्मक नहीं होती इत्यादि। उन सबका समन्वय यहाँ किया गया है । १. दिव्यध्वनि सामान्य निर्देश 1. दिव्यध्वनि देवकृत नहीं होतीह. पु./1/१६-३८ केवल भावार्थ-(वहां इसके दो भेद कर दिये गये हैएक दिव्यध्वनि दूसरी सर्वमागधी भाषा। उनमे से दिव्यध्वनिको प्रातिहायों में और सर्वमागधी भाषाको देवकृत अतिशयोमें गिनाया है। और भी देखो दिव्यध्वनि/२/७ । * दिव्यध्वनि कथंचित् देवकृत है-दे० दिव्यध्वनि/२/१३ २. दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं होती प्र. सा./म् /४४ ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य जियदयो तेसि । अरह ताणं काले मायाचारो व्व इत्थीण ॥४४॥ - उन अरहन्त भगवन्तो के उस समय खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारकी भॉति स्वाभाविक ही प्रयत्नके बिना ही होता है। (स्व. रतो/मू /७४). (स श./मू./२)। म. पु./२४/८४ विवक्षामन्तरेणास्य विविक्तासीव सरस्वती। -भगवान्की वह वाणी बोलनेकी इच्छाके बिना हो प्रकट हो रही थी। (म. पु./१/१८६): (नि सा/ता. वृ./१७४)। ३. इच्छाके अभावमें मी दिव्य ध्वनि कैसे सम्मव है अष्टसहस्त्री/पृ ७३ निर्णयसागर बम्बई [ इच्छामन्तरेण वाक् प्रवृत्तिन संभवति । ] न च 'इच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिर्न संभवति' इति वाच्यं नियमाभावात्। नियमाभ्युपगमे सुषुप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति . चैतन्यकरणपाटबयोरेव साधकतमत्वम् । .. (इच्छा वारप्रवृत्तिहेतुर्न) तत्त्रकर्षापकर्षानुविधानाभावात् बुद्ध्यादिवत् । न हि यथा बुद्ध शक्तेश्चाप्रकर्षे वाण्या' प्रर्षोऽवलप. प्रतीयते तथा दोषजातेः (इच्छाया') अपि, तत्प्रक वाचाऽप्रकति तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात् । यतो वक्तुर्दोपजाति' (इच्छा) अनुमीयते। .. विज्ञान गुणदोपाभ्यामेव वाग्वृत्तेर्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा, तदुक्तम्-विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तगुणदोषत' । बाब्छन्तोन च वक्तार' शास्त्राणां मन्दबुद्धयः॥ न्याय विनिश्चय/३५४-६५५ विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिनतु वीक्ष्यते। वाञ्छन्तो न वक्तार' शास्त्राणा मन्द बुद्धयः ।३५४॥ प्रज्ञा येषु पटीयस्य प्रायो बचन हेतब । विवक्षानिरपेक्षारते पुरुषार्थ प्रचक्षते ॥३५५॥ - 'इच्छाके विना वचन प्रवृत्ति नही होती' ऐसा नही कहना चाहिये क्योकि इस प्रकार के नियमका अभाव है। यदि ऐसा नियम स्वीकार करते है तो रुषुप्ति आदि में बिना अभिप्रायके प्रवृत्ति नही होनी चाहिये। सुषुप्तिमे या गात्र स्खलन आदिमे वचन व्यव्हारकी हेतु इच्छा नही है। चैतन्य और इन्द्रियोकी पटुता ही उसमें प्रमुख
कारण है इत्छा वचन प्रवृत्तिका हेतु नहीं है। उसके प्रकर्ष और अपकर्ष के साथ बचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष और अप्रकर्ष नहीं देखा जाता जैसा बुद्धिके साथ देखा जाता है। जैसे बुद्धि और शक्तिका प्रकर्ष होनेपर वाणीका प्रकर्ष और अपकर्ष होने पर अपकर्ष देखा जाता है उस प्रकार दोष जातिका नहीं। दोष जातिका प्रकर्ष होनेपर वचनका अपकर्ष देखा जाता है दोष जातिका अपकर्ष होनेपर ही वचन प्रवृत्तिका प्रकर्ष देखा जाता है इसलिए वचन प्रवृत्तिसे दोष जातिका अनुमान नहीं किया जा सकता। विज्ञानके गुण और दोषोसे ही वचन प्रवृत्तिकी गुण दोषता व्यवस्थित होती है, विवक्षा या दोष जातिसे नही। कहा है-विज्ञानके गुण और दोष द्वारा वचन प्रवृत्तिमें गुण ओर दोष होते हैं । इच्छा रखते हुए भो मन्दबुद्धिबाले शास्त्रोंके वक्ता नही होते है। कभी विवक्षा (बोलनेकी इच्छा) के बिना भी वचनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धिवाले शास्त्रों के बक्ता नही होते हैं। जिनमें वचनको कारण कुशल प्रज्ञा होती है वे प्रायः विवक्षा रहित होकर भी पुरुषार्थ का उपदेश देते हैं। प्र. सा./त. प्र/४४ अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात । यथा खत्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्ष च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केबलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते। यह (प्रयत्नके बिना ही विहारादिकका होना) बादल के दृष्टान्तसे अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणमित पुद्गलोंका गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्नके बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवली भगवान के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही ( इच्छाके बिना ही । देखा जाता है। ४. केवलज्ञानियों को ही होती है। ति. प./१/७४ जादे अणं तणाणे णठे छदुमद्विदियम्मि णाणम्मि। णवबिहपदत्थसारा दिव्वझुणी वाहइ सुत्तस्थ ॥७॥ अनन्तज्ञान अर्थात केवलज्ञानकी उत्पत्ति और छमस्थ अवस्थामें रहनेवाले मति, भूत, अवधि तथा मन पर्यय रूप चार ज्ञानोंका अभाव होनेपर नौ प्रकारके पदाथोके सारको विषय करनेवाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थ को कहती है १७४३ (ति. व./६/१२ ): (ध./१/१, १, १/गा, ६०/६४ )। ५. सामान्य केवलियोंके भी हानी सम्मव है म. प्र /३६/२०३ इत्यं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतः । कैलासमचलं प्रापत पूतं संनिधिना गुरोः ॥२०॥ -इस प्रकार समस्त पदार्थोको जाननेवाले बाहुबली अपने बचनरूपी अमृतके द्वारा समस्त समारको सन्तुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके सामीप्यसे पवित्र हुए कैलास पर्वतपर जा पहुँचे ॥२०॥ म. पु./29/३६८ विहृत्य सुचिरं विनेयजनतोपकृतस्वायुषो, मुहूर्त परमास्थितौ विहितसक्रियौ विच्युतौ। -३६८॥ =चिरकाल तक विहार कर जिन्होने शिक्षा देने योग्य जनसमूहका भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराजने अपनी आयुको अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति रहनेपर योग निरोध किया ।...॥३६॥ * अन्य केवलियोंका उपदेश समवशरणसे बाहर होता
-दे० समवशरण । ६. मनके अभावमें वचन कैसे सम्भव है। ध. १/१, १, ५०/२८५/२ असतो मनस' कथं बच्चनद्वितयसमुत्पत्तिरिनि
चेन्न, उपचारतस्तयोस्ततः समुत्पत्तिविधानात। =प्रश्न-जबकि केवलीके यथार्थ में अर्थात् क्षायोपशमिक मन नही पाया जाता है, तो उससे सत्य और अनुभय इन दो घचनोकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-नही, क्योंकि, उपचारसे मनके द्वारा इन दोनों प्रकार के वचनोकी उत्पत्तिका विधान किया गया है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org