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दिव्यध्वनि
घ. १/१. १. १२२ / ३६८/३ तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चैत्र, तस्य ज्ञान कार्यत्वात् । प्रश्न- अरहंत परमेष्ठी में मनका अभाव होनेपर मनके कार्यरूप वचनका सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता उत्तर नहीं, क्योंकि रतनज्ञानके कार्य हैं. मनके नहीं। ७. अक्रम ज्ञानसे क्रमिक वचनोंको उत्पत्ति कैसे सम्भव है
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घ. १/१. १. १२२ / ३६-४ अक्रमज्ञानारकर्य क्रमवतां वचनानामुत्पतिरिति चैत्र पटविषयक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकाराद्धस्य क्रमेणोपयुपसम्भाव = प्रश्न- अक्रम ज्ञानसे क्रमिक वचनोंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है 1 उत्तर--नहीं, क्योंकि घटविषयक अक्रम ज्ञानसे युक्त कुम्भकार द्वारा क्रमसे घटकी उत्पति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञानसे क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेनेमे कोई विरोध नहीं आता है। ★ सर्वज्ञत्व के साथ दिव्यध्वनिका विरोध नहीं है
-०ज्ञान/
८. दिव्यध्वनि किस कारण से होती है
का./ता.वृ./१/६/१५ वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते कि कारणम् भव्यपुण्यप्रेरणात् पश्न- वीतराग सर्व दिव्यध्वनि रूप शास्त्रकी प्रवृत्ति किस कारण से हुई उत्तर-भव्य जीवों के पुण्यकी प्रेरणा से ।
९. गणधर के बिना दिव्यध्वनि नहीं खिरती
घ. १/४१ ४४ / १२०/१० किमट तथा -गमधरका अभाव होनेसे दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति नहीं होती है दे. निःशंकित / ३ ( गणधरके संशयको दूर करनेके लिए होती है ) ।
१० विपादमूलमें दीक्षित मुनिकी उपस्थिति में मी होती है।
क. पा. ९/११/०६/३ समपादमूलम्म पनिमहत्वयं मोत्तूण खण मुद्दिस्सिय दिव्वणी किष्ण पयट्टदे साहावियादो प्रश्नजिसने अपने पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है, ऐसे पुरुषको छोड़कर अन्यके निमित्त से दिव्ययनि क्यों नहीं खिरती उत्तर-ऐसा ही स्वभाव है ( घ. १/४ १४४ / १२१/२)।
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११. दिव्यध्वनिका समय, अवस्थान अन्तर व निमित्तादि ति. प./४/१०३-१०४ पठादीए अक्खलिओ संभत्तिदय णवमुहुत्ताणि । णिस्सदि विरुवमायो दिन जान जोमयं ॥१०३॥ सेसेसुं समसुं गहरदेविदपणं पण्डापुरुषमथं दिव्यभुणी सरा भंगीहिं ॥ १०४॥ भगनाद जिनेन्द्रकी स्वभावत अस्मलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्याकालो न तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव इन्द्र अथवा चक्रवर्ती प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ महदिव्यध्वनिक्षेप समय में भी निकलती है ॥१०३-१०४॥ (क. पा. १/१, १/३६६/१२६/२) । गो. जी./जी. प्र./३५६/७६१ / १० तीर्थंकरस्य पूर्वाह्नमध्याह्नापराह्णार्धरात्रेषु षट्पटिकाकालपर्यन्तं द्वादशगणः सभामध्ये स्वभावतो दिव्ययनि रुगच्छति अन्यकालेऽपि गणधर चक्रधरमस्नानन्तरं यावद्भवति एवं दिव्यध्वनिः। तीर्थ करके पूड मध्याह, अपराह अर्धरात्रि काल में छह-छह घड़ी पर्यन्त बारह सभाके मध्य सहज ही दिव्यध्वनि होय है । बहुरि गणधर इन्द्र चक्रवति इनके प्रश्न करने हैं और काल वि भी दिव्यध्वनि होय है।
* भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि खिरने की तिथि
३० महावीर
२. दिव्य ध्वनिका भावात्मक अभाषात्मकपना
२. दिव्यध्वनिका भाषात्मक व अभाषात्मकपन ।
१. दिव्यध्वनि मुखसे नहीं होती है। ति./१/६२ एवासि भासानं ताई तो कंठावार परिहरियं एक्क कालं भव्यजणाणं दरभासो ॥६२॥ =तालु, दन्त, ओष्ठ तथा कण्ठके हलन चलन रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजनो को आनन्द करनेवाली भाषा ( दिव्यध्वनि) के स्वामी है ॥६२॥ ( स. श. / मू./२); (ति. प./१/१०२ ); (ह. पु. /२/११३); ( ह. पु. /६/२२४ ); (8. . / २६/११६) (../१/२२३) (म. पृ/९/१४ ) ( म. पू./ २४/८१) प.का./ता.वृ./१/४/६ पर उड़त ) (पं. का./ता.वृ./ २/८/५ पर उद्धृत )
क. पा./१/११/६/१२९/१४ विशेषार्थ – जिस समय दिव्यध्वनि खिरती है उस समय भगवान्का मुख बन्द रहता है ।
२. दिव्यध्वनि मुखसे होती है
रा. वा /२/११/१०/१३२० सज्ञानावरणसंशयावितातिन्द्रियमेव ज्ञानरसम्मादेव वक्तृत्वेन परिणत
विष यानर्थानुपदिशति सकल ज्ञानावरणके क्षयसे उत्पन्न अतीन्द्रिय केवलज्ञान जिह्वा इन्द्रियके आश्रय मात्र से वक्तृत्व रूप परिणत होकर सकलश्रुत विषयक अर्थोके उपदेश करता है ।
ह. पू./२/३ तत्प्रश्नान्तरं धातुतुर्मुख विनिर्गता चतुर्मुखका साथ चतुर्णामाश्रया 121 गणधर के प्रश्नके अनन्तर दिव्यध्यनि मिरने लगी। भगवानको दिव्यानि चारों दिशाओंमें दिखनेवाले चारमुखोसे निकलती थी, चार पुरुषार्थं रूप चार फलको देनेवाली थी, सार्थक थी।
म. १०/२३/६६ दिव्यमहाध्य निरस्य मुखाम्जाम्मेचराकृतिनिरगच्छत् । भव्यमनोगत मोहमध्य तमोर
म. ५ / २४/८३
गिरिग्रहसमति वनिसंनिभ प्रस्पष्टवर्णो निरगाद् ध्वनिः स्वायम्भुवान्मुखात् ॥१८३॥ भगवान् के मुखरूपी कमलसे बादलोंकी गर्जनाका अनुकरण करनेवाली अमित महादिव्यध्वनि निवस रही थी और वह भव्य जीवोंके मनमे स्थित मोहरूपी अंधकारको नष्ट करती हुई सूर्यके समान सुशोभित हो रही थी ॥ ६६ ॥ जिसमें सब अक्षर स्पष्ट है ऐसी वह दिव्यध्वनि भगवान्के मुखसे इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार पर्वतकी गुफा के अप्रभागसे प्रतिध्वनि निकलती है ॥
मि. सा./ता. १०/९०४ के निमुखारविन्द विनिर्गतो दिव्यध्वनिः । - केवली के मुखारविन्द की हुई दिव्यध्वनि ... | स्याम /३० / ३३५/२० उत्पादव्ययश्रौव्यप्रपञ्चः समयः । तेषां च भगवता साक्षान्मातृकादरूपाभिधानात् उत्पाद व्यय श्रव्यके वर्णनको समय पड़ते हैं, उनके स्वरूपको साझाद भगवादने अपने मुख अक्षररूप कहा ।
३. दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक होती है
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काला १/४/६ पर उतार्यात्महितं न वर्ण सहित जो सबका हित करनेवाली तथा वर्ण विन्याससे रहित है ( ऐसी दिव्यध्वनि... ) । .का./ता.वृ./०६/२३५/६ भाषात्मको द्विविधोऽक्षराम कोऽनक्षरारम कश्चेति । अक्षरात्मक संस्कृत अनक्षरात्मको हीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च । भाषात्मक शब्द दो प्रकारके होते हैं। अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषा हेतु है । अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादिके शब्द रूप और दिव्य ध्वनि रूप होते है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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