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नय
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नहीं: आकाशके फूल की तरह यसत है। ऐसे सर्वथा एकान्त मानने से मिथ्यात्व आता है । ( स. सा./पं जयचन्द / १४) स. सा. जयचन्द / १२ व्यवहारनयको कथंचित असत्यार्थ कहा है यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभवरूप व्यवहार छोड़ दे और घूँ कि शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उलटा अशुभोपयोगमें ही आकर भ्रष्ट हुआ । यथा कथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नरकादिगति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा ।
२. निचो भूमिकामै व्यवहार प्रयोजनीय है सा./१२वेसो गायको परमभावदरिसीहि ममहार बेसिदा पुण जे अपरमे हिदा भावे -परमभावदर्शियोंको ( अर्थात् शुद्वात्मध्यानरत पुरुषोंको) शुद्धतत्व का उपदेश करनेवाला शुद्धtय जानने योग्य है । और जो जोब अपरमभाव में स्थित हैं ( अर्थात बाह्य क्रियाओंका अवलम्बन लेनेवाले हैं ) वे द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
व्यवहारनय
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स. सा./ता.वृ./१२/२६ / ६ व्यवहारदेशितो व्यवहारनयः पुन अधस्तनवाणिकवर्णाभवत्प्रयोजनवाद भवति के ये पुरुषा पुनः अशुद्ध असंयतसम्यग्दृष्टयपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिताः कस्मिन् स्थिताः । जीयपदार्थे तेषामिति भावार्थः । - व्यवहारका उपदेश करनेपर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्णकी भाँति जो पुरुष अशुद्ध अवस्थामें स्थित अर्थात भेदरत्नत्रय लक्षणवासे १० गुणस्थानोंगे स्थित है, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवाद है (मो. मा. प्र./१०/३७२/८)
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३. मन्दबुद्धियोंके लिए उपकारी है
घ. १/१.१.३०/२६३/० सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अन व्यवहारनयः किमित्यवलम्ब्यते इति चेन्नैष दोषः, मन्दमेधसामनुग्रहार्थ - स्वात् । प्रश्न - सब जगह निश्चयनयका आश्रय लेकर वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करनेके पश्चात् फिर यहाँपर व्यवहारनयका आलम्बन क्यों लिया जा रहा है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहके लिए उक्त प्रकारले वस्तुस्वरूपका विचार किया है। (६.४/१.१.२६/११०/१) (पं.वि./११/-)
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घ. १९०४.२.५.३/२८९/२ एवं विनहारो किमहं कोरदे हेग गागावरणीयपञ्चदपरिमोहन पडिहारे कारणपडिसेहट्ठ च । प्रश्न - इस प्रकारका व्यवहार किस लिए किया जाता है। उत्तर-पूर्वक ज्ञानावरणीय प्रत्ययका प्रतिबोध करानेके लिए तथा कार्य प्रतिषेध द्वारा कारणका प्रतिषेध करनेके लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।
स. सा./आ./७ यतोऽनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवगोविधायिभिः कैश्चिद्धस्तमनुशासतां सुरिणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमा ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः क्योंकि अनन्त धर्मो बाले एक धर्ममें जो निष्णात नहीं है, ऐसे निकटवर्ती शिष्योंको धर्मीको मतलानेवाले कितने ही धर्मोके द्वारा उपदेश करते हुए थापामापि धर्म और धर्मीका स्वभावसे अभेद है मा नामसे मेद करके, महार मात्रसे ही ऐसा उपदेवा है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। (पु. सि. उ० / 4), (पं.वि./११/- ) (मो.मा.प्र./०/३०२/१२)
४. व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तरबका ज्ञान सम्भव है .नि./११/११ दोपचारविवृर्ति व्यवहारोपायतो यतः सन्तः हमा श्रयन्ति तत्त्वमितिः वहतिः पूज्याकि सज्जन पुरुष
V निश्चय व्यवहार नय
व्यवहारनयके से ही मुख्य और उपचारभूत कानको जानकर शुद्धस्वरूपका आश्रय लेते हैं, अतएव व्यवहारनय पूज्य है। स. सा./ता.वृ./१/२०/१४ व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते । = परमार्थ जाना जाता है ।
= व्यवहारनय से
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५. व्यवहारके बिना निश्चयका प्रतिपादन शक्य नहीं सखा// हि परमार्थ एवैको मतव्य इति चेट (उत्पनिक)जह णत्रि सक्कमणज्जो अणज्जं भासं विणा उ गाउं । तह बवहारेण विषा परमत्युपसणमसपर्कपश्नतम तो एक परमार्थका हो उपदेश देना चाहिए था. व्यवहारका उपदेश किसलिए दिया जाता है। उत्तर-जैसे अनाजनको अनार्य भाषा भिया किसी भी वस्तुका स्वरूप ग्रहण करानेके लिए कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश देना अशक्य है (ध./प्र./ ६४१); (मो. मा. प्र. / ७/३७०/४) स.सि./२/१३/१४२/३ सर्वसंग्रहेण यत्स गृहीत यानपेक्षित विशेष नातं सम्यगहारामेति व्यवहारन बाधीयते सर्व संध द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है. वह अपने उत्तर भेदोके बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनयका आश्रय लिया जाता है। (रा.वा./१/२३/६/१६/२२)
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६. वस्तुमै आस्तिक्य वृद्धि कराना इसका प्रयोजन है रुपा म./२०/३१५/२० पर उद्धृत श्लोक नं ३ व्यवहारस्तु सामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानलाइ व्यापारयति देहिन. 1 - संग्रहनयसे जानी हुई सत्ताको प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूपसे मानकर व्यवहार करनेको व्यवहारनय कहते हैं। यह नय जीवोंका उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योकि जगत्मे वे से भिन्नभिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं । पं./५२४ फलमास्तिकयमतिः स्यादनन्तधर्मे धर्मिणस्तस्य । = अनन्तधर्मवाले गुणसद्भावे यस्माद्वद्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वाद । धर्म में आस्तिक्य वृद्धिका होना ही उसका फल है, क्योिं गुणोंका अस्तित्व माननेवर ही नियमसे छपका अस्तित्व प्रतीत होता है।
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७. वस्तुकी निश्चित प्रतिपत्तिके अर्थ यही प्रधान है पं. ध./पू./६३०-६३६ ननु चैव चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थः । किमकिंचित्कारत्वादव्यवहारेण तथाविधेन यरा ६२० नैव यतो मलादिह विप्रतिपत्तीच संशयापती वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणशुभमावलम्बिहान ६३८॥ तस्मादाश्रयणीयः केचित् समयः प्रसङ्गत्वात् ।...।६३६। प्रश्न- जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरी है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनयसे क्या प्रयोजन है ? | ६३७॥ उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सके सम्बन्ध विप्रतिपत्ति (विषय) होने पर अथवा संय आ पड़नेपर, वस्तुका विचार करनेमें वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनो नयोंका अवलम्बन करनेवाला है वही प्रमाण कहलाता है | ६३८| इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है । ६३६ |
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८. व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है
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अन ./१/१००/१०० व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति बोलादिना मिना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति | १००| वह मनुष्य बीज खेत जल खाद आदिके बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है, भो व्यवहारसे पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनयसे ही कार्य सिद्ध करना चाहता है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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