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नय
V निश्चय व्यवहार नय
८. व्यवहार व निश्चयकी हेयोपादेयताका समन्वय
१. निश्चयनयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन स. सा./मू /२७२ णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावं ति णिव्वाणं ।
- निश्चयनयके आश्रित मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है। नय/V/३/३ (निश्चयनयके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है।) प.प्र./१/७१ देहहँ पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ ।७१। -हे जीव ! तू इस देहके बुढापे व मरणको देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्राह्म तत्त्व है उसही को आत्मा मान। न. च./श्रुत/३२ निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानन्दं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रान्तं करोति तमिति पूज्यतम' | -निश्चयनय एकत्वको प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्यमें स्थापित करता है। परमानन्दको उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वतः निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीवको नयपक्षसे अतोत कर
देता है । इस कारण वह पूज्यतम है। न. च./श्रुत/६९-७० यथा सम्यग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनै कविकल्पोऽपि निवर्तते। एव हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीतः । -जिस प्रकार सम्यकव्यवहारसे मिथ्या व्यवहारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार निश्चयनयसे व्यवहारके विकल्पोकी भी निवृत्ति हो जाती है। जिस प्रकार निश्चयनयसे व्यवहारके विकल्पोंकी निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्वमें स्थित स्वभावसे निश्च यनयकी एकताका विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्वस्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। (सू.पा./टी,/६/५६/E) स.सा./आ./१८०/क.१२२ इदमेवात्र तात्पर्य हेय. शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्यागाहन्ध एव हि । - यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्यागसे बन्ध नही होता है और उसके त्यागसे बन्ध होता है। प्र. सा./त. प्र./१६१ निश्चयनयापहस्तितमोहा 'आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिन्ता निरुणद्धि खलु.. निरोधसमये शुद्धारमा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभः। --निश्चयनयके द्वारा जिसने मोहको दूर किया है, वह पुरुष आत्माको ही आत्मरूपसे ग्रहण करता है, और परद्रव्यसे भिन्नस्वके कारण आरगारूप एक अग्रमें ही चिन्ताको रोकता है ( अर्थात निर्विकल्प समाधिको प्राप्त होता है )। उस एकाग्रचिन्तानिरोधके समय वास्तवमें वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित हाता है कि शुद्रन यसे ही शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है। (स.सा./ता.
वृ./४६/८६/१६), (प.ध./पू./६६३) । प्र. सा/ता वृ./९८६/२५३/१३ ननु रागादीनात्मा करोति भुक्ते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यात', स कथमुपादेयो भवति। परिहारमाह-रागादो नेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागाव्य एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादि विकल्पजालस्यागेन रागादिविनाशार्थ निजशुदात्मानं भावयति । ततश्च रागादि बिनायो भवति । रागादिविनाशे च आत्मा शुद्धो भवति । तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्राय । =प्रश्न-रागादिकको आत्मा करता है और भोगता है ऐसा ( अशुद्ध) निश्चयका लक्षण कहा गया है। वह कैसे उपादेय हो सकता है । उत्तर-इस शंकाका परिहार करते हैंरागादिकको ही आत्मा करता ( व भोगता है ) द्रव्यकर्मोको नहीं। इसलिए रागादिक ही बन्धके कारण हैं (द्रव्यकर्म नहीं)। ऐसा
यह जीव जब जान जाता है तब रागादि विकलपजालका त्याग करके रागादिकके विनाशाथं शुद्धात्माकी भावना भाता है। उससे रागादिकका विनाश होता है । और रागादिकका विनाश होनेपर आरमा शुद्ध हो जाती है। इसलिए इस (अशुद्ध निश्चयनयको भी) उपादेय कहा जाता है। २. व्यवहारनयके निषेधका कारण
१. अभूतार्थ प्रतिपादक होनेके कारण निषिद्ध है पंध./पू./६२७-२८ न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा बस्तु ।
प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य ।२७। व्यवहारः किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यतः। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च ।२४ = वस्तुके अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्यका कारण नहीं है, किन्तु वास्तविक न होनेके कारण इसका प्रतिषेध होता है ।६२१ निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करनेवाला है, अतः मिथ्या है। इसलिए यहाँपर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थपर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है ।६२८। (विशेष दे० नय/ V/६/१)। २. अनिष्ट फलप्रदायी होनेके कारण निषिद्ध है प्र. सा./त.प्र./ अतोऽवधायंते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव। -इससे
जाना जाता है कि अशुद्धनयसे अशुद्धआत्माका लाभ होता है। पं.ध./पू./१३ तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोपः । इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान यथा जीव। -इसी कारण, अतद्दगुणमें तदारोप करनेवाला व्यवहारनय इष्ट फलके अभावसे उपादेय नहीं है। जैसे कि यहाँ पर जीवको वर्णादिमान कहना नय नहीं है (नयाभास है ), (विशेष दे० नय/V/६/११) ।
३. व्यभिचारी होनेके कारण निषिद्ध है स. सा /आ./२७७ तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानै कान्तिकत्वाचवहारनय' प्रतिषेध्यः । निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः । = व्यवहारनय प्रतिषेध्य है। क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप ) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनै कान्तिक है, व्यभिचारी है ( अर्थात व्यवहारावलम्बीको निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहारका निवेधक है; क्योकि ( उसके विषयभूत) शुद्धात्माके ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रयका) आश्रय एकान्तिक है अर्थात निश्चित है। (नय/VI६/३) और व्यवहारके प्रतिषेधक हैं। ३. व्यवहारनय निषेधका प्रयोजन पु. सि. उ/६,७ अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।६ माणवक एव सिहो यथा भवत्यनवगीतसिहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयां यात्यनिश्चयज्ञस्य ७ = अज्ञानीको समझानेके लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते है, उनके लिए उपदेश नहीं है। जो सच्चे सिंहको नहीं जानते हैं उनको यदि विलाव जैसा सिंह होता है' यह कहा जाये तो बिलावको ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चमको नहीं जानते उनको यदि व्यवहारका उपदेश दिया जाये तो वे उसीको निश्चय मान लेगे ७ (मो. मा.प्र./७/३७२/८)। स. सा./आ./११ प्रत्यगात्मदर्शि भिर्व्यवहारनयो नानुसतव्यः। -अन्य
पदार्थोसे भिन्न आत्माको देखनेवालोंको व्यवहारनयका अनुसरण नहीं करना चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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