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V निश्चय व्यवहार नय
पं./वि./११/८. व्यवहतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनया -
अबोधजनों को समझानेके लिए ही व्यवहारनय है, परन्तु शुद्धनय कर्मोंके क्षयका कारण है। स, सा./ता. वृ./३२४-३२७/४१४/६ ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थ काल एवानुसतव्यः । प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति । प्रश्न-ज्ञानी होकर व्यवहारनयसे परद्रव्यको अपना कहनेसे वह अज्ञानी कैसे हो जाता है। उत्तर--म्लेच्छोंको समझानेके लिए म्लेच्छ भाषाकी भाँति प्राथमिक जनोको समझानेके समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिक जनाके सम्बोधनकालको छोडकर अन्य समयोमें नहीं। अर्थात् कतकफलकी माँति जो आत्माकी शुद्धि करनेवाला है, ऐसे शुद्धनयसे च्युत होकर यदि परद्रव्यको अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ( अर्थात निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मियादृष्टि ही सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहारका अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।
व्यवहार और निश्चय दोनों नयोको मत छोडो; क्योंकि व्यवहार. नयके बिना तो तीर्थका नाश हो जायेगा और निश्चननन्यके बिना तत्वका नाश हो जायेगा । २. जैसे म्लेच्छोको म्लेच्छभाषा वस्तुका स्वरूप बतलाती है (नय/V/७/५) उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थ भूत होनेपर भी, धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह ( व्यवहारनय ) बतलाना न्यायसंगत ही है। परन्तु यदि व्यवहार नय न बतलाया जाय तो, क्योंकि परमार्थ से जीवको शरीरसे भिन्न बताया गया है, इसलिए जैसे भस्मको मसल देनेसे हिंसाका अभाव है, उसी प्रकार उसस्थावर जीवोको निशक्तया मसल देनेमे भी हिंसाका अभार ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ से जीव क्योकि रागद्वेष मोझे भिन्न बताया गया है, इसलिए रागी द्वेषी मोही जीव कर्म से बन्धता है, उसे छुडाना'-इस प्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मोक्षके उपायका अभाव होनेमे मोक्षका ही अभाव हो जायेगा।
४. व्यवहार नयकी उपादेयताका कारण व प्रयोजन दे. नय/V/ निचली भूमिकावालोके लिए तथा मन्दबुद्धिजनो के लिए
यह नय उपकारी है। व्यवहारसे ही निश्चय तत्त्वज्ञानकी सिद्धि होती है तथा व्यवहारके बिना निश्चयका प्रतिपादन भी शल्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा बस्तुमें आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। श्लो. वा. ४/१/३३/६०/२४६/२८ तदुक्तं-व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता । सान्यथा बाध्यमानाना, तेषां च तरप्रसङ्गतः। -लौकिक व्यवहारोकी अनुकूलता करके ही प्रमाणोका प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से नही। क्योकि, वैसा माननेपर तो साध्यमान जो स्वप्न, भ्रान्ति व संशय ज्ञान है, उन्हे भी प्रमाणता
प्राप्त हो जायेगी। न.प./श्रूत/३१ किमर्थ व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सदरत्नत्रयसिद्धयर्थ च । - प्रश्न-अर्थका व्यवहार किसलिए किया जाता है। उत्तर-असत कल्पनाकी निवृत्तिके अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रयकी प्राप्ति
के अर्थ। स.सा./आ./१२ अथ च केषां चित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । ( उत्थानिका)।...ये तु...अपरमं भावमनुभवन्ति तेषां ... व्यवहारनयो ... परिज्ञायमानस्तदात्ये प्रयोजनवान, तीर्थतीर्थफलयोरित्थ मेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च-'जइ जिणमय पवज्जह ता मा बबहार णिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं । स. सा./आ./१६ व्यवहारो हि व्यवहारिणा म्लेच्छभाषेव म्तेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनातत्रसस्थावराणां भस्मन इब निःशङ्कमुपमर्दनेन हिसाभावाद्भवत्येव मन्धस्याभाव । तथा रक्तद्विष्ट विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषविमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात भवत्येव मोक्षस्याभावः। = १. व्यवहारनय भी किसी किसीको किसी काल प्रयोजनवान है।-जो पुरुष अपरमभावमें स्थित है [ अर्थात् अनुस्कृष्ट या मध्यमभूमिका अनुभव करते है अर्थात् ४-७ गुणस्थान तकके जीवोंको (दे. नय V/७/२)] उनको व्यवहारनय जाननेमें आता हुआ उस समय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ व तीर्थ के फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है। अन्यत्र भी कहा है-हे भव्य जीवो ! यदि तुम जिनमतका प्रवर्ताना कराना चाहोगे तो
९. निश्चय व्यवहारके विषयोंका समन्वय
१. दोनों नयों में विषय विरोध निर्देश श्लो. वा. ४/१/७/२८/५८५/२ निश्चय नयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव व्यवहारादौपशमिकादिभाव चतुष्टयस्वभाव ; निश्चयतः स्वपरिणामस्य, व्यवहारत सर्वेषा; निश्चयनयो जीवत्वसाधन., व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत. शरीराद्यधिकरण; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति' व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसान स्थिति निश्च यतोऽनन्तविधान एवं व्यवहारतो नारकादिसरयेसासंरध्येयानन्तविधानश्च । - निश्चयनयसे तो अनादि पारिणामिक चैतन्यन क्षण जो जीवस्य भाव, उमसे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनयसे औदायिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है ( नय/ V/१/३.५.८)। निश्चयसे स्वपरिणामोका स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनयसे सब पदार्थोंका स्वामी व कर्ता भोक्ता है ( नय/V/ १/३.१,८ तथा नय/V/५) निश्चयसे पारिणामिक भावरूप जीवत्वका साधन है तथा व्यवहारनयसे औदयिक औपशामिकादि भावो का साधन है। ( नय/V/१/५८) निश्चयसे जीव स्वप्रदेशोमें अधिष्ठित है (नय/V/१/३), और व्यवहारसे शरीरादिमें अधिष्ठित है (नय/ V/२/) । निश्चयसे जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यबहार नयसे दो समय आदि अथवा अनादि अनन्त स्थिति है। (नय/ III/७ ) ( नय/IVR)। निश्चयनयसे जितने जीव है उतने ही अनन्त उसके प्रकार है, और व्यवहारनयसे नरक तिर्यच आदि संरव्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकारका है। ( इसी प्रकार अन्य भी इन नयोके अनेको उदाहरण यथा योग्य समझ लेना)। ( विशेष देखो पृथक-पृथक् उस उस नयके उदाहरण) (4.का./ता. वृ./२७/
दे. अनेकान्त/५/४ (वस्तु एक अपेक्षासे जैसी है दूसरी अपेक्षासे वैसी नहीं है।)
२. दोनों नयों में स्वरूप विरोध निर्देश .१. इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी है मो. मा. प्र./७/३६६/६ निश्चय व्यवहारका स्वरूप तौ परस्पर विरोध' लिये है । जातै समयसार विषै ऐसा कहा है-व्यवहार अभूतार्थ हैऔर निश्चय है सो भूतार्थ है ( नय/V/३/१ तथा नय//६/१) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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