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क्षेत्र आर्य
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खरकर्म
क्षेत्र आर्य-दे० आर्य।
क्षेमचन्द-दिगम्बर मुनि थे। इनकी प्रार्थनापर शुभचन्द्राचार्य ने क्षेत्र ऋद्धि-दे० ऋद्धिा ।
अपनी कृति अर्थात कार्तिकेयानुप्रेक्षाको टीका पूर्ण को थी। समय
वि० १६१३-१६५७, ई० १५५६-१६०१ । क्षेत्रज्ञ-जीवको क्षेत्रज्ञ कहनेकी विवक्षा ( दे० जीव/१/२.३)
क्षेमपुर-विजयाको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । क्षेत्र परिवर्तन-दे० संसार/२।
क्षेमपुरी-पूर्व विदेहस्थ सुकच्छ देशको मुख्य नगरी-दे० लोक/५/२॥ क्षेत्रप्रदेश Locations Pointing Plares ध/२/२७ ।
क्षेमा-पूर्व विदेहस्थ कच्छ देशकी मुख्य नगरी-दे० लोक/५/२। क्षेत्रप्रमाणके भेद
क्षोभ-प्रसा./ता. व 10/8/१३ निर्विकारनिश्चल चित्तवृत्तिरूपचारिरा. वा./३/३८/७/२०८/३० क्षेत्रप्रमाणं द्विविध-अवगाहक्षेत्रं विभागनि
त्रस्य विनाशकश्चारित्रमोहाभिधान' क्षोभ इत्युच्यते। - निर्विकार पन्नक्षेत्रं चेति । तत्रावगाहक्षेत्रमनेकविधम्-एकद्वित्रिचतु.संख्येयाऽ
निश्चल चित्तकी वृत्तिका विनाशक जो चारित्रमोह है वह क्षोभ संख्येयाऽनन्तप्रदेशपुद्गलद्रव्यावगाह्येकाद्यसंख्येयाकाशप्रदेशभेदाव ।
कहलाता है। विभागनिष्पन्नक्षेत्र चानेकविधम्--असंख्येयाकाशश्रेणयः क्षेत्रप्रमाणा
वेलौषध-दे० ऋद्धि। झुलस्यैकोऽसंख्येयभागः, असख्येयाः क्षेत्रप्रमाणाङ्गलासंख्येयभागाः क्षेत्रमाणाङ्गुलमेकं भवति । पादवितस्त्यादि पूर्ववद्वेदितव्यम् । क्षेत्र प्रमाण दो प्रकारका है-अवगाह क्षेत्र और विभाग निष्पन्न क्षेत्र । अवगाह क्षेत्र एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय और अनन्त प्रदेशवाले पुद्गलद्रव्यको अवगाह देनेवाले आकाश प्रदेशोकी दृष्टि से
खड-१. उभय व मध्य खण्ड कृष्टि -दे० कृष्टि । २. अखण्ड द्रव्यमें अनेक पकारका है। विभाग निष्पन्नक्षेत्र भी अनेक प्रकारका है-असं
रखण्डत्व अखण्डत्व निर्देश-दे० द्रव्य/४ । ३. आकाशमें ग्वण्ड कल्पनारूपात आकाशश्रेणी: प्रमाणाडुलका एक असल्यातभाग, असख्यात क्षेत्र प्रमाणांगुलके असंख्यात भाग; एकक्षेत्र प्रमाणाङ्गुल; पाद, वितस्त
दे० आकाश/२। ४. परमाणुमें खण्ड कल्पना-दे० परमाणु/३ । ( वालिस्त) आदि पहलेकी तरह जानना चाहिए । विशेष दे० खंडप्रपात कट-विजया पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१४ । गणित/I/१।
खंडप्रपात गुफा-विजया पर्वतकी एक गुफा, जिसमेसे सिन्धु क्षेत्र प्रयोग-Method of application of area (ज. ___नदी निकलती है --दे० लोक/३१५ । प/प्र/१०६ )।
खंडशलाका-Piece log ज. प./प्र. १०६ । क्षेत्रफल-Area ज दे० शुद्धि ।
खेंडिका-विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर । क्षेत्रमिति-Mensuratioin ./५/प्र २७ ।
खंडित-गणितकी भागहार विधि भाज्य राशिको भागहार द्वारा क्षेत्रवान्-षड् द्रव्योंमें क्षेत्रवान व अक्षेत्रवान् विभाग (दे० द्रव्य/३)
__खण्डित किया गया कहते हैं -दे० गणित/11/१/६ । क्षेत्रविपाकी प्रकृति-दे० प्रकृतिबंध/२।
ख-अनन्त । क्षेत्र शुद्धि- दे० शुद्धि।
खचर-भा.पा./टी./७५/२१८/४ खे चरन्त्याकाशे गच्छन्तीति खचरा क्षेत्रोपसंपत-दे० समाचार ।
विद्याधरा उभयश्रेणिसंबन्धिन' - आकाशमे जो चरते है, गमन
करते है वे खचर कहलाते है, ऐसे विजयाकी उभय श्रेणि सम्बन्धी क्षप-१. गो. क /भाषा./८३४/१००८/२ जिसको मिलाइए किसी अन्य
विद्याधर (खचर कहलाते है)। राशिमें जोडिए ताको क्षेप कहिए । २. अपकृष्ट द्रव्यका क्षेप करनेका
खड-चतुर्थ नरकका षष्ठ पटल-दे० नरक/५/११॥ विधान -दे० अपकर्षण/२ ।
खडखड-चतुर्थ नरकका सातवॉ पटल -दे० नरक/५/११॥ क्षमकर-१ यह तृतीय कुलकर हुए हैं। विशेष परिचय--दे०
शलाकापुरुष/१ । २. विजयाधंकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० खडा-दूसरे नरकका पाँचवॉ पटल -दे० नरक/५/११॥ विद्याधर। ३. लौकान्तिक देवोंका एक भेद-दे० लौकान्तिक । ४. खडका-दूसरे नरका सातवाँ पटन - दे० लोक/५/११६ लौकान्तिक देवोका अवस्थान-दे० लोक/७ ।
खड्ग -१. चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमें से एक है-दे० शलाकापुरुष/२/२ क्षेमंधर-१. वर्तमान कालीन चतुर्थ कुलकर । विशेष परिचय-दे० २. भरतक्षेत्र पूर्व आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। शलाकापुरुष/६ । २ कृति- बृहत्कथामजरो; समय-ई० १००० ।
पूर्व विदेहस्थ आर्वतदेशकी मुख्य नगरी-दे० लोक/५/२० ( जीवन्धर चम्पू/प्र.१८)।
खड्गा -- अपर विदेहस्थ सुबल्गु देशको मुख्य नगरी-दे० लोक/१/२० क्षेम-ध.१३/५,५,६३/८ मारोदि-डमरादोणमभावो खेम णाम तबिव
खड्गसेन-नारनौल वासीन्छृणराज के पुत्र एक हिन्दी कवि जो पीछे रीदमक्खेमं । मारी, ईति व राष्ट्रविप्लव आदिके अभाव का नाम क्षेम है । तथा उससे विपरीत अक्षेम है । (भ. आ./त्रि.१५६/३७२/५) ।
लाहौर रहने लगे थे। वि० १७१३ में त्रिलोक दर्पण लिखा। समय
वि०१६६०-१७२० (ई०१६०३-२६६३) । (तो०/४/२८०) । क्षेमकोति-काष्ठासंघको गुर्वावलोके अनुसार (दे० इतिहास)
खादरसार - म.प्र/७/ श्लोक विन्ध्याचल पर्वतपर एक भील था। यह यश कीतिके शिष्य थे। समय-वि०१०४ ई०६६८ (प्रद्युम्न
मुनिराजके समीप कौवेके मासका त्याग किया (३८६-३६६) प्राण जाते चरित्र/प्र. प्रेमीजी); (ला. सं /१/६४-७०)। दे० इतिहास/७४।
भो नियम का पालन किया। अन्तमे मरकर सौधर्मस्वर्गमे देव हुआ २. यश कीर्ति भट्टारकके शिष्य थे। इनके समयमें ही पं० राजमल्लजी
(४१०-) । यह श्रेणिक राजाका पूर्व का तीसरा भर है। -दे० श्रेणिक ने अपनी लाटी संहिता पूर्ण की थी। समय वि०१६४१ ई० १५८४ ।
खरकर्म-दे० सावद्य/२/५ । (स.सा./कलश टी०/प्र०व० शीतल)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-२७
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