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देव
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II देव (गति)
पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युपलम्भाव। तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम् । प्रश्न-जिन्होंने आत्म स्वरूपको प्राप्त कर लिया है, ऐसे अरहन्त, सिद्ध, परमेष्ठीको नमस्कार करना योग्य है, किन्तु आचार्यादिक तीन परमेष्ठियोने आत्म स्वरूपको प्राप्त नहीं किया है. इसलिए उनमें देवपना नहीं आ सकता है, अतएव उन्हे नमस्कार करना योग्य नहीं है। उत्तर-ऐसा नहीं है, १. क्योकि अपने-अपने भेदोसे अनन्त भेदरूप रत्नत्रय हो देव है, अतएव रत्नत्रयसे युक्त जीव भी देव है, अन्यथा सम्पूर्ण जीवोंको देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जायेगी, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी रत्नत्रयके यथायोग्य धारक होनेसे देव हैं, क्योकि अरहन्तादिकसे आचार्यादिकमें रत्नत्रयके सद्भावकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, इसलिए आंशिक रत्नत्रयकी अपेक्षा इनमें भी देवपना बन जाता है। २. आचार्यादिकमें स्थित तीन रत्नोका सिद्धपरमेष्ठीमे स्थित रत्नोसे भेद भी नहीं है, यदि दोनोंके रत्नत्रयमे सर्वथा भेद मान लिया जावे, तो आचार्यादिकमें स्थित रत्नोके अभावका प्रसंग आ जावेगा। ३ आचार्यादिक और सिद्धपरमेष्ठीके सम्यग्दर्शनादिक रत्नों में कारण कार्यके भेदसे भी भेद नही माना जा सकता है, क्योंकि, आचार्यादिकमें स्थित रत्नो के अवयवोंके रहनेपर ही तिरोहित, दूसरे रत्नावयौंका अपने आवरण कर्म के अभाव हो जानेके कारण आविर्भाव पाया जाता है। इसलिए उनमे कार्य-कारणपना भी नहीं बन सकता है । ४. इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धोंके रत्नों में परोक्ष और प्रत्यक्ष जन्य भेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वस्तुके ज्ञान सामान्यकी अपेक्षा दोनो एक है। ५. केवल एक ज्ञानके अवस्था भेदसे भेद नहीं माना जा सकता। यदि ज्ञानमें उपाधिकृत अवस्था भेदसे भेद माना जावे तो निर्मल और मलिन दशाको प्राप्त दर्पणमें भी भेद मानना पड़ेगा। ६. इसी प्रकार आचार्यादिक और सिद्धोंके रत्नोंमें अवयव और अवयवीजन्य भेद भी नहीं है, क्योकि अवयव अवयवीसे सर्वथा अलग नहीं रहते हैं। प्रश्न- पूर्णताको प्राप्त रत्नोंको ही देव माना जा सकता है, रत्नोके एक देशको देव नही माना जा सक्ता । उत्तर-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि, रत्नोंके एक देशमें देवपनाका अभाव मान लेनेपर रत्नोकी समग्रता (पूर्णता) में भी देवपना नहीं बन सकता है। प्रश्न - आचार्यादिकमें स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों के क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उनके रत्न एकदेश है। उत्तरयह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशिका अग्निसमूहका कार्य एक कणसे भी देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी समझना चाहिए। इसलिए आचार्यादिक भी देव हैं, यह बात निश्चित हो जाती है । (ध.१/४,१,१/११/१)। II. देव (गति ) १. भेद व लक्षण १. देवका लक्षण स.सि./४/१/२६६/५ देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्य विभूतिविशेषै' द्वीपसमुद्रादिप्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः ।
- अभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्मके उदय होनेपर नाना प्रकारको बाह्य विभूतिसे द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार क्रोडा
करते है वे देव कहलाते है। (रा.वा.४/२/१/२०६/8)। पं.सं /प्रा./२/६३ कोडं ति जदो णिच्चं गुणेहि अढेहि दिब्वभावेहि। भासंतदिव्वकाया तम्हा ते वणिया देवा ।६३॥ = जो दिव्यभाव-युक्त अणिमादि आठ गुणोसे नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं, और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहे गये है।६३। (ध. १/१,१, २४/१३१/२०३); (गो.जी /मू./१५१); (पं.सं./सं./१/१४०); (ध.१३/५,५.१४१/३६२/१)।
२. देवोंके भवनवासी आदि भेद त सू.४/१ देवाश्चतुर्णिकाया ॥१॥ के पुनस्ते। भवनवासिनो व्यन्तरा
ज्योतिष्का वैमानिकाश्चेति । (स.सि./४/१/२३७/१) देव चार निकायवाले है ।१। प्रश्न-इन चार निकायोंके क्या नाम हैं ? उत्तर-- भवनावासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । ( का./मू./११८); (रा.वा./४/१/३/२११/१५); (नि.सा./ता.वृ./१६-१७)। ग.वा/४/२३/४/२४२/१३ षणिकाया' (अपि) संभवन्ति भवन पाता
लव्यन्तरज्योतिष्ककल्पोपपन्न विमानाधिष्ठानात् । ...अथवा सप्त देवनिकाया'। त एवाकाशोपपन्न · सह । देवोके भवनवासी. पातालवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और विमानवासीके भेदसे छह प्रकार हैं। इन छहमें ही आकाशोपपन्न देवोंको और मिला देनेसे सात प्रकारके देव बन जाते है। ३. आकाशोपपन्न देवोंके भेद रावा./४/२३/४/२४२/१७ आकाशोपपन्नाश्च द्वादश विधा । पशुतापिलवणतापि-तपनतापि- भवनतापि-सोमकायिक-यमकायिक-वरुण - कायिक - वैश्रवणकायिक-पितृकायिक-अनलकायिक - रिष्ट-अरिष्ट - संभवा इति । -आकाशोपपन्न देव बारह प्रकार के हैं:-पांशु तापि, लवणतापि, तपनतापि, भवनतापी, सोमकायिक, यमकायिक, वरुणकायिक, वैश्रवणकायिक, पितृकायिक, अनल कायिक, रिष्टक, अरिष्टक और सम्भव । ४. पर्याप्तापर्याप्तको अपेक्षा भेद का.अ मू./१३३." देवा वि ते दुविहा ।१३। पर्याप्ता' निवृत्यपर्याप्ताश्चेति ।टी०=देव और नारकी निवृत्यपर्याप्तक और पर्याप्तकके भेदसे दो प्रकारके होते है । २. देव निर्देश
१.देवों में इन्द्र सामानिकादि दश विभाग त. सू /४/४ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकी
काभियोग्यकिस्विषिकाश्चैकश' (चारों निकायके देव क्रमसे १०,८.५.१२ भेदवाले हैं-दे० बह वह नाम ) इन उक्त दश आदि भेदोमे प्रत्येकके इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किस्विषिकरूप है
४(ति.प./३/६२-६३)। त्रि सा./२२३ इंदपडिददिगिदा तेत्तीससुरा समाणतणुरवरवा । परिसत्तय
आणीया पइण्णगभियोगकिन्भिसिया ।२२३ - इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगीन्द्र कहिये लोकपाल, त्रायस्त्रिशद्देव, सामानिक. तनुरक्षक, तीन प्रकार पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य, किल्विषिक ऐसें भेद जानने ।२३।
२. कन्दर्प आदि देव नीच देव हैं मू.आ./६३ कंदप्पमाभिजोग्गं किविस संमोहमासुरंतं च। ता देव
दुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होति ।६३-मृत्युके समय सम्यक्त्वका विनाश होनेसे कंदर्प, आभियोग्य, कैत्विष, संमोह और आसुर-ये पाँच देव दुर्गतियाँ होती हैं ।६३।
३. सर्व देव नियमसे जिनेन्द्र पूजन करते हैं ति.प./३/२२८-२२६ णिस्सेस कम्मरखवणेक्कहेदं मण्णं तया तत्थ जिणिंदपूज। सम्मत्तविरया कुव्यंति णिच्च देवा महाणं तविसोहिपुव्वं ।२२८) कुलाहिदेवा इव मण्णमाणा पुराणदेवाण पबोधणेण । मिच्छादा ते य जिणिदपूर्ज भत्तीए णिच्चं णियमा कुणं ति ।२२६ वहाँ पर अविरत सम्यग्दृष्टि देव जिनपूजाको समस्त कोके क्षय करनेमें अद्वितीय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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