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त्रिकच्छेद
त्रिवर्णाचारदीपक
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त्रिकच्छे द-Number of times that a number can be
त्रिलोक तीज व्रत-व्रत विधान सं./१०६ तीन वर्षतक प्रतिवर्ष divided by ३, (घ.५/प्र./२७) विशेष-दे० गणित/II/२/१| भाद्रपद शुक्ला तीजको उपवास । जाप--ओं ह्रौं त्रिलोक सम्बन्धी त्रिकरण-१. भरतक्षेत्रका एक पर्वत -दे० मनुष्य/४ । २. विज
अकृत्रिम जिन चैत्यालयेभ्यो नमः । इस मन्त्रका त्रिकाल जाप । याध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे० मनुष्य/४ । ३. पूर्व विदेह
त्रिलोक बिन्दुसार-अंग श्रुतज्ञानका चौदहवाँ पूर्व ।-दे० श्रुत
ज्ञान/IJIT का एक वक्षार उसका एक कूट तथा रक्षकदेव -दे० लोक/७१४, पूर्व विदेहस्थ आत्माजन वक्षारका एक कूट व उसका रक्षकदेव त्रिलोकमडन-प.प्र./सर्ग/श्लोक अपने पूर्व के मुनिभवमें अपनी -दे० लोक/७। ५. अघ करण आदि -दे० करण/३ ।
झूठी प्रशंसाको चुपचाप सुननेके फलसे हाथी हुआ। रावणने इसको
मदमस्त अवस्थामे पकड़कर इसका त्रिलोकमण्डन नाम रखा (5/४३२) त्रिकलिंग-मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ ।
एक समय मुनियोंसे अणुवत ग्रहणकर चार वर्ष तक उग्र तप किया त्रिकाल-श्रुतज्ञानादिकी त्रिकालज्ञता-दे० वह वह नाम ।
(८७-१-७)। अन्तमें सल्लेखना धारणकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ
(८७/७)। त्रिकृत्वा -ध.१३/५,४,२८/८/१ पदांहिणणमंसणादिकिरियाणं
त्रिलोकसार-आ० नेमिचन्द्र (ई० श०११ पूर्व ) द्वारा रचित तिण्णिवारकरणं तिक्रवृत्तं णाम। अधवा एकम्मि चैव दिवसे जिण- लोक प्ररूपक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। गाथा प्रमाण १०१८ है। गुरुरिसिबंदणाओ तिण्णिवार किज्जति त्ति तिक्खुत्तं णाम। -प्रद- इस ग्रन्थपर निम्न टीकाएँ प्राप्त हैं-१. आ. माधवचन्द्र त्रिविद्यदेवक्षिणा और नमस्कारादि क्रियाओका तीन बार करना त्रि:- कृत संस्कृत टीका, २.५० टोडरमलजी कृत भाषा टीका (ई० १७५६)। कृत्वा है। अथवा एक ही दिनमें जिन, गुरु और ऋषियोंकी वन्दना
त्रिलोकसार वत-- तीन बार की जाती है, इसलिए इसका नाम त्रिःकृत्वा है।
ह. पु./३४/५६-६१ क्रमशः त्रिलोकाकार त्रिखण्ड-भरतादि क्षेत्रोमें छह-छह खण्ड हैं। विजया के एक ओर रचनाके अनुसार नीचेसे ऊपरकी तीन म्लेक्षखण्ड है और दूसरी ओर एक आर्यखण्ड व दो म्लेक्षखण्ड
ओर ५,४, ३, २,१, २, ३, ४, ३,
रचना हैं। इन तीन म्लेक्षरवण्डोंको ही त्रिखण्ड कहते हैं, जिसे अर्ध चक्र
२,१, इस प्रकार ३० उपवास व
त्रिलोकाकार वर्ती जीतता है।
बीचके स्थानों में ११ पारणा। विगत-भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। त्रिगुणसारवत-व्रतविधान सं./५६ क्रमशः १,१,२,३,४५,४,४,
त्रिवर्ग-१. निक्षेप आदि निवर्ग निर्देश ३,२,१ इस प्रकार ३० उपवास करे। बीचके १० स्थान व अन्तमें एक-एक पारणा करे । जाप-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । न. च. वृ १६८ णिवस्वेवणयपमाणा हव्वं सुद्ध एव जो अप्पा । तक्कं
पवयणणामा अझप्पं होइ हु तिवग्गं ॥१६॥ - निक्षेप नय प्रमाण तो त्रिज्या -Radius (ध.५/प्र.२७)।
तर्क या युक्ति रूप प्रथम वर्ग है। छह द्रव्योंका निरूपण प्रवचन या त्रिपर्वा एक अषधी विद्या -दे० विद्या।
आगम रूप दूसरा वर्ग है। और शुद्ध आरमा अध्यात्मरूप तीसरा त्रिपातिनी-एक औषधी विद्या -दे० विद्या।
वर्ग है। -भरतक्षेत्र विन्ध्याचलका एक देश-दे० मनुष्य/४ ।
२. धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गका निर्देश त्रिपृष्ठ-म.पु /सर्ग/श्लोक = यह अपने पूर्वभवमें पुरुरवा नामक एक
म. पु/२/३१-३२ पश्य धर्मतरोरर्थः फलं कामस्तु तद्रसः। सत्रिवर्ग
त्रयस्यास्य मूलं पुण्यकथाश्रुतिः ॥३१॥ धर्मादर्थश्च कामश्च स्वर्गभील था। मुनिराजसे अणुव्रतोंके ग्रहण पूर्वक सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न
श्चेत्यविमानतः । धर्मः कामार्थयो' सूतिरित्यायुष्मन्विनिश्चिनु हुआ। फिर भरत चक्रवर्तीके मरीचि नामक पुत्र हुआ, जिसने
१३२॥ हे श्रेणिक । देखो, यह धर्म एक वृक्ष है। अर्थ उसका फल मिथ्या मार्गको चलाया था। तदनन्तर चिरकालतक भ्रमण कर
है और काम उसके फलोंका रस है। धर्म, अर्थ, और काम इन (६२/८५-६०) राजगृह नगरके राजा विश्वभूतिका पुत्र विश्वनन्दि हुआ (५७/७२)। फिर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ (५७/२) तत्पश्चात
तीनोंको त्रिवर्ग कहते हैं, इस त्रिवर्गकी प्राप्तिका मूलकारण धर्मका वर्तमान भबमें श्रेयांसनाथ भगवान के समयमें प्रथम नारायण हुए
सुनना है ॥३१॥ तुम यह निश्चय करो कि धर्म से हो अर्थ, काम(५७/८६); (८२/१०) विशेष परिचय - दे० शलाका पुरुष/४ । यह
स्वर्ग की प्राप्ति होती है सचमुच यह धर्म ही अर्थ और कामका वर्धमान भगवानका पूर्वका दसवाँ भव है । (७६/५३४-५४३);
उत्पत्ति स्थान है ॥३२॥ (७४/२४१-२६०) -दे० महावीर ।
त्रिवर्ग महेन्द्र मातलि जल्प-आ० सोमदेव ( ई० ६४३-६६८) त्रिभंगीसार- विभिन्न आचार्यों द्वारा रचित आखब बन्धसत्त्व
कृत न्याय विषयक ग्रन्थ है।
त्रिवर्गवाद-त्रिवर्गवादका लक्षण आदि नाम वाली ६ त्रिभंगियों का संग्रह । (जै./१/४४२) ।
ध./६/४, १, ४५/गा. ८०/२०८ एक्केक्कं तिण्णि जणा दो हो यण इच्छदे त्रिभुवन चूड़ामणि-भद्रशाल वनमें स्थित दो सिद्धायन कूट तिवग्गम्मि । एक्को तिणि ण इच्छइ सत्तवि पावेंति मिच्छत्तं ॥८॥ -दे० लोक/३/१२।
-तीनजन त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काममें एक-एककी इच्छा त्रिमुख-संभवनाथ भगवान्का शासक यक्ष। -दे० तीर्थ कर/५/३।।
करते हैं। दूसरे तीन जन उनमें दो-दोकी इच्छा करते हैं। कोई एक
तीनको इच्छा नहीं करता है। इस प्रकार ये सातोजन मिथ्यात्वको त्रिराशि गणित-दे० गणित/II/४।
प्राप्त होते है। त्रिलक्षण कदथन-पात्रकेशरी नं.१ (ई.श.६-७) द्वारा त्रिवणाचार-सोमदेव भट्टारक (ई १६१०) कृत पूजा अभिषेक के संस्कृत भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ । (ती/२/२४१)।
याज्ञिक विधि विधान विषयक ग्रन्थ । (जै./१/४६३)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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