________________
त्रस
त्रायस्त्रिश
८. सके लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान रा, वा./२/१२/२/१२६/२७ स्यान्मतम्-त्रसेरुद्वेजनक्रियस्य त्रस्यन्तीति वसा इति । तन्न; कि कारणम् । गर्भादिषु तदभावात् । अत्र सत्वप्रसगात । गर्भाण्डजमूच्छितसुषुप्तादीनां त्रसानां बाह्यभयनिमिक्तोपनिपाते सति चलनाभावादत्र सत्त्वं स्यात् । कथं तहस्य निष्पत्तिः 'त्रस्यन्तीति त्रसाः' इति । व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थः प्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत् । -प्रश्न-भयभीत होकर गति करे सो बस ऐसा लक्षण क्यों नहीं करते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि ऐसा लक्षण करनेसे गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूच्छित, सुषुप्त आदिमे अत्रसत्वका प्रसंग आ जायेगा। अर्थात त्रस जीवोंमे बाह्यभयके निमित्त मिलनेपर भी हलन-चलन नहीं होता अत' इनमें अनसत्व प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न-तो फिर भयभीत होकर गति करे सो त्रस, ऐसी निष्पत्ति क्यों की गयो। उत्तर-यह केवल रूढिवश ग्रहण की गयी है। 'जो चले सो गऊ,' ऐसी व्युत्पत्ति मात्र है। इसलिए चलन और अचलनकी अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नही किया जा सकता। कर्मोदयकी अपेक्षासे ही किया गया है। यह बात सिद्ध है। (स.सि./ २/१२/१७१/४); (प.१/१,१,४०/२६६/२) ९. अन्य सम्बन्धित विषय १. सजीवके भेद-प्रभेदोंका लोकमें अवस्थान ।
-दे० इन्द्रिय, काय, मनुष्यादि । २. वायु व अग्निकायिकोंमें कथंचित् त्रसपना।
-दे० स्थावर/६। ३. सजीवोंमें कर्मोंका बन्ध, उदय व सत्त्व।
-दे०वह वह नाम । ४. मार्गणा प्रकरणमें भावमार्गणाकी इष्टता और वहाँ आयके ___ अनुसार ही व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा । ५. त्रसजीवोंके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत् । ६. त्रसजीवोंमें प्राणोंका स्वामित्व।
-दे० प्राण/१॥ ७. सजीवोंके सत् ( अस्तित्व ) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह नाम ।
३. सनाली निर्देश ति.प./२/६ लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किचूणा होदि तसणाली।६। = जिस प्रकार ठीक मध्यभागमें सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोकके बहु मध्यभाग अर्थात् बीच में एक राजु लम्बी चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊँची त्रसनाली (त्रस जीवों का निवासक्षेत्र ) है।
१. सजीव सनालीसे बाहर नहीं रहते ध.४/१,४,४/१४६/६ तसजीवलोगणालीए अभंतरे चेव होंति, णो बहिदा। सजीव त्रसनालीके भीतर होते है बाहर नहीं। (का.
अ/मू./१२२) गो.जी./मू /१६६ उववादमारणं तियपरिणदतसमुजिमऊण सेसससा। तसणालिबाहिरम्मि य स्थित्ति जिणे हि णिहिट्छ ।१६।। - उपपाद और मारणान्तिक समुद्घातके सिवाय शेष त्रसजीव त्रसनालीसे बाहर नहीं हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
५, कथंचित् सारा लोक सनाली है। ति.प./२/८ उववादमारणं तियपरिणदतसलोयपूरणेण गदो । केवलिणो
अवलं बिय सव्वजगो होदि तसनाली1८1 - उपपाद और मारणान्तिक समुद्धातमें परिणत त्रस तथा लोकप्तरण समुद्घातको प्राप्त केवलीका आश्रय करके सारा लोक ही त्रसनाली है।। * अस नामकमकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ
-दे०वह वह नाम । * स नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं
-दे० नामकर्म । त्रसरेणु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम त्रटरेणु -दे०
गणित/I/१/३। त्रसित- प्रथम नरकका दसवाँ पटल -दे० नरक/५/११; त्रस्त-१. प्रथम नरकका दसवॉ पटल -दे० नरक/१/११:२. तृतीय
नरकका दूसरा पटल -दे० नरक/५/११ / त्रायस्त्रिश-१. ब्रायस्त्रिश देवका लक्षण स.सि./४/४/३३६/३ मन्त्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिशा । त्रयस्त्रिंशदेव त्रायस्त्रिशा. । -जो मन्त्री और पुरोहितके समान हैं वे त्रायस्त्रिश कहलाते है। ये तेतीस ही होते हैं इसलिए त्रायस्त्रिश कहलाते हैं। (रा.बा./४/४/३/४१२); (म.पु./२२/२५) ति.प./३/६५...। पुत्तणिहा तेत्तीसत्तिदसा...॥६५॥ =त्रायस्त्रिश देव पुत्रके सदृश होते हैं । (त्रि.सा./२२४) * भवनवासी व स्वर्गवासी इन्द्रोंके परिवारों में बायस्त्रिश देवोंका निर्दश
-दे० भवनवासी आदि भेद । २. कल्पवासी इन्द्रोंके ब्रायस्त्रिंशदेवोंका परिमाण ति.प./८/२८६,३१६ पडिइदाणं सामाणियाण तेत्तीससुखराण च । दस
भेदा परिवारा णियइंदसमा य पत्तेक्क ।२८६। पडिइंदादितियस्स य णियणियईदेहि सरिसदेवीओ। संखाए णामेहि विक्किरियारिद्धि चत्तारि ।३१।। तप्परिवारा कमसो चउएक्कसहस्सयाणि पंचसया। अड्ढाईसयाणि तद्दलतेस तद्दलतेसटिबत्तीसं ।३२०। प्रतोन्द्र, सामानिक और त्रायस्त्रिश देवोमें से प्रत्येकके दश प्रकारके परिवार अपने इन्द्रके समान होते हैं ।२८६। प्रतीन्द्रादिक तीनकी देवियाँ संख्या, नाम, विक्रिया और ऋद्धि, इन चारोमे अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश हैं ।३१।। (दे०-स्वर्ग/३)। उनके परिवारका प्रमाण क्रमसे ४०००,२०००,१०००,५००,२५०,१२५,६३,३२ हैं।
२. त्रस नामकर्म व सलोक
१. त्रस नामकर्मका लक्षण स. सि./८/११/३११/१० यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम । = जिसके उदयसे द्वीन्द्रियादिकमें जन्म होता है वह उस नामकर्म है। (रा.वा/८/१२/२१/५७८/२७) (ध.६/१,६-१,२८/६१/४) (गो.क /जी.प्र./
३३/२६/३३) ध.१३/५,५.१०१/३६५/३ जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणाम। -जिस कर्मके उदयसे जीवोंके गमनागमनभाव होता है वह त्रस नामकर्म है।
२. सलोक निर्देश ति.प./१६ मंदरगिरिमूलादो गिलबखजोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय
पदरखेत्ते चिठेदि तिरियतसलोओ।६। मन्दरपर्वतके मूलसे एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतर अर्थात एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्रमें तिर्यक् त्रसलोक स्थित है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org