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गोशीर्ष
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ज्ञानका सूचीपत्र
गोशीर्ष-भरतक्षेत्रके मध्य आर्यखण्डमें मलयगिरिके निकट स्थित
एक पर्वत-दे० मनुष्य ।। गोसग काल-म.बा/भाषाकार/२७०) दो घड़ी दिन चढ़नेके बादसे लेकर मध्याह्नकालमे दो घड़ी कम रहें उतने कालको गोसर्गिक काल कहते है। गोड़-१. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४) । २. वर्तमान बंगालका उत्तर भाग । अपर नाम पुण्ड्र'। (म.पू /प्र.४८/पं पन्नालाल)। गोड़पाद शंकराचार्यके दादा गुरु/समय-ई०७८०/-दे० वेदांत। गौण-गौणका लक्षण व मुख्य गौणव्यवस्था-दे० स्याद्वाद/३ । गातम-१. श्रुतावतारकी गुर्वावलीके अनुसार भगवाच वीरके पश्चाव प्रथम केवली हुए। आप भगवानके गणधर थे। आपका पूर्वक नाम इन्द्रभूति था।-दे० इन्द्रभूति । समय-वी०नि०-१२ (ई०पू०५२७५१५) ।।-दे० इतिहास /४/४। २. (ह पू./१८/१०२-१०६) हस्तिनापुर नगरीमें कापिष्ठलायन नामक ब्राह्मणका पुत्र था। इसके उत्पन्न होते ही माता पिता मर गये थे। भूखा मरता फिरता था कि एक दिन मुनियोंके दर्शन हुए और दीक्षा ले ली (श्लो ५०)। हजारवर्ष पर्यन्त तप करके छठे अवेयकके सुविशाल नामक विमानमें उत्पन्न हुआ। यह अन्धकवृष्णिका पूर्व भव है-दे० अन्धक वृष्णि । गौतम ऋषि-नैयायिक मतके आदि प्रवर्तक थे। 'न्यायसूत्र'
ग्रन्थकी रचनी की।- दे० न्याय /१/७। गौरव-दे० गारव । गौरिकूट-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । गौरिव-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर ।- दे० विद्याधर । गोरा-१. भगवान वासुपूज्यकी शासक यक्षिणी-दे. तीर्थ कर ५/३ ।
२. एक विद्याधर विद्या। -दे० विद्या। ज्ञ-जीवको 'ज्ञ' कहनेको विवक्षा-दे० जीव /१/२.३ । ज्ञाप्त-ज्ञप्ति क्रियाका लक्षण-दे० चेतना /१ । ज्ञप्ति व करोति क्रियामें परस्पर विरोध-दे० चेतना ३ ।। ज्ञात-(रा.बा./६/६/३/५१२/१) हिनस्मि इत्यसति परिणामे प्राणव्यपरोपणे ज्ञातमात्रं मया व्यापादित इति ज्ञातम् । अथवा 'अय प्राणी हन्तव्यः' इति ज्ञात्वा प्रवृत्ते. ज्ञातमित्युच्यते । मारनेके परिणाम न होनेपर भी हिंसा हो जानेपर 'मैंने मारा' यह जान लेना ज्ञात है। अथवा, 'इस प्राणीको मारना चाहिए' ऐसा जानकर प्रवृत्ति करना
ज्ञात है। ज्ञात कथाग-द्वादशांग श्रुतज्ञानका छठा अंग-दे० श्रुतज्ञान/ III ज्ञान-ज्ञान जीवका एक विशेष गुण है जो स्व व पर दोनोंको जानने
में समर्थ है । बह पाँच प्रकारका है-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवलज्ञान । अनादि कालसे मोहमिश्रित होनेके कारण यह स्व व परमें भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थोंको ही निजस्वरूप मानता है, इसीसे मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्वके प्रभावसे परपदार्थोसे भिन्न निज स्वरूपको जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्यग्ज्ञान है । ज्ञान वास्तवमें सम्यक मिथ्या नहीं होता, परन्तु सम्यक्त्व या मिथ्यात्वके सहकारीपनेसे सम्यक् मिथ्या नाम पाता है। सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्गकी सिद्धि करने में समर्थ होनेके कारण जीवको इष्ट है। जीवका अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रगट करनेमें निमित्तभूत्त आगमज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। तहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तवमें मोक्षका कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं।
ज्ञान सामान्य भेद व लक्षण शान सामान्यका लक्षण । शानका लक्षण बहिचित्प्रकाश-दे० दर्शन/२/३५।
भूतार्थ ग्रहणका नाम शान है। | मिथ्यावृष्टिका शान भूतार्थ ग्राहक कैसे है ?
अनेक अपेक्षाओंसे शानके भेद । क्षायिक व क्षयोपशमिक रूप भेद
___-(दे० क्षय व क्षयोपशम) सम्यक् व मिथ्यारूप भेद -दे० ज्ञान/III/१। स्वभाव विभाव तथा कारण-कार्य ज्ञान
-दे० उपयोग/I/१। स्वार्थ व परार्थशान-दे० प्रमाण/१ व अनुमान/१। प्रत्यक्ष परोक्ष व मति श्रुतादि शान-दे० वह वह नाम । धारावाहिक शान-दे० श्रुतज्ञान /I १॥ ज्ञान निर्देश शान व दर्शन सम्बन्धी चर्चा-दे० दर्शन (उपयोग)/२५ शानकी सत्ता इन्द्रियोंसे निरपेक्ष है। श्रद्धान, शान, चारित्र तीनों कथंचित् शानरूप है
-दे० मोक्षमार्ग/३/३ । श्रद्धान व शनमें अन्तर-दे० सम्यग्दर्शन/I/४ | प्रश व शानमें अन्तर -दे० ऋद्धि/२। शान व उपयोगमें अन्तर-दे० उपयोग/I/२। शानोपयोग साकार है-दे० आकार/१/५ । शानका कथंचित् सविकल्प व निर्विकल्पपना
-दे० विकल्प। प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है
-दे० अवधिज्ञान/२। अर्थ प्रतिअर्थ परिणमन करना शानका नहीं राग का कार्य है
-दे० राग/२। शानकी तरतमता सहेतुक है-दे० मर्म ।३/21 शानोपयोगमें ही उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्धि सम्भव है
-दे० विशुद्धि। क्षायोपशमिक शान कथंचित् मूर्तिक है-दे० मूर्त/७। शानका शेयार्थ परिणमन सम्बन्धी-दे० केवलज्ञान/६ । शानका शेयरूप परिणमनका तात्पर्य
-दे० कारक/२/५ । शान मार्गणामें अज्ञानका भी ग्रहण क्यों।
-दे० मार्गणा/७॥ शानके अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प है।
-दे० गुण/२/१०। | ज्ञानका स्वपरप्रकाशकपना स्वपरप्रकाशकपनेकी अपेक्षा शानका लक्षण । स्वपरप्रकाशक शान ही प्रमाण है।
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