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क्षेत्र
१. भेद व लक्षण
क्षेत्र प्ररूपणाएँ सारणीमें प्रयुक्त संकेत परिचय । जीवोंके क्षेत्रकी ओष प्ररूपणा । | जीवोंके क्षेत्रकी आदेश प्ररूपणा ।
अन्य प्ररूपणाएँ १. अष्टकर्मके चतुःबन्धकी अपेक्षा ओष आदेश | प्ररूपणा। २. अष्टकर्म सत्वके स्वामी जीवौकी अपेक्षा ओघ ! आदेश प्ररूपणा। ३. मोहनीयके सत्त्वके स्वामी जीवांकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा। ४. पोचों शरीरों के योग्य स्कन्धोकी संघातन परिशातन कृतिके स्वामी जीवोकी अपेक्षा ओष आदेश प्ररूपणा। ५ पाँच शरीरमेिं २,३,४ आदि मंगोके स्वामी जीवोंकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा । ६. २३ प्रकारकी वर्गणाओकी जघन्य, उत्कृष्ट क्षेत्र प्ररूपणा। ७ प्रयोग समवदान, अधः, तप, ईर्यापथ व कृतिकर्म इन पट् कर्मोंके स्वामी जीवोकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणा। उत्कृष्ट आयुवाले तिर्यचौक योग्य क्षेत्र
-दे० आयु/६/१।
३. क्षेत्र जीवके अर्थमें म. पु./२४/१०५ क्षेत्रस्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते ॥१०॥
-इसके (जीवके ) स्वरूपको क्षेत्र कहते है और यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्रन भी कहलाता है।
४. क्षेत्रके भेद ( सामान्य विशेष) पं.ध/५/२७० क्षेत्रं द्विधावधानात् मामान्यमथ च विशेषमात्रं स्यात् । तत्र प्रदेशमात्रं प्रथम प्रथमेतरं तदंशमयम् ।२७०/-विवक्षा वशसे क्षेत्र सामान्य और निशेष रूप इस प्रकारका है।
५. लोककी अपेक्षा क्षेत्रके भेद ध.४/१,३,१/८/६ दबटियणयं च पडुच्च एगविधं । अथवा पओजण
मभिसमिच्च दुविह लोगागासमलोगागासं चेदि । · अथवा देसभेएण तिबिहो, मंदर लियादो उबरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेला अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति । -द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकारका है। अथवा प्रयोजनके आश्रयसे (पर्यायार्थिक नयसे ) क्षेत्र दा प्रकारका है-लोकाकाश व अलोकाकाश ... अथवा देशके भेदसे क्षेत्र तोन प्रकारका है = मन्दराचन ( सुमेरुपर्वत) की चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्वलोक है, मन्दराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है, मन्दराचनमे परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है। ६. क्षेत्रके भेद- स्वस्थानादि ध.४/१,३,२/२६/१ मन्यजीवाणमवत्था तिबिहा भवदि, सत्थाणसमुग्धादुववादभेदेण । तत्य सत्थाणं दुविह, मत्थाणसत्थाण विहारव दिसत्थाणं चेदि। समुग्धादो सत्तविधो, वेदणसमुग्धादो कसायसमुग्धादो वे उब्वियसमुग्धादो मारणांतियसमुग्धादो तेजासरीरसमुग्धादो आहार समुग्बादो केवलिसमुग्धादो चेदि । स्वस्थान, समुद्धात और उपपादके भेदसे सर्व जीवोकी अवस्था तीन प्रकारकी है। उनमेसे स्वस्थान दो प्रकारका है-स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवरस्वस्थान। समुद्घात मात प्रकारका है-वेदना समुद्घात, कषाय समुसमुद्धात, वै क्रियक समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, तैजस शरीर समुद्धात, आहारक शरीर समुद्रात और केबली समुद्धात । (गो. जी./जी प्र/५४३/६३६/१२)।
७. निक्षेपोंकी अपेक्षा क्षेत्रके भेद ध.४/१,३,१/१ ३-७। पृ.३१
क्षेत्र
१.भेद व लक्षण
१.क्षेत्र सामान्यका लक्षण स. सि /१/८/२६/७ "क्षेत्र निवासो वर्तमानबालविषय ।" स. सि /१/२१/१३२/४ क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते । वर्तमान काल विषयक निवासको क्षेत्र कहते है। (गो जी./जी.प्र/५४३/६३६/१०) जितने स्थानमें स्थित भावोको जानता है वह ( उस उस ज्ञानका )
नाम क्षेत्र है। (रा. वा./१/२५ 1.-१५/८६)। क. पा/२/२,२२/११/१/७ वेत्तं खलु आंगासं तविवरीयं च हवदि णोखेत्तं/१ । क्षेत्र नियमसे आकाश है और आकाशसे विपरीत नोक्षेत्र है। ध. १३/१,३,८/६/३ क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन्पुद्गलादयस्तत् क्षेत्रमाकाशम् । =क्षि धातुका अर्थ 'निवास करना है। इसलिए क्षेत्र शब्दका यह अर्थ है कि जिसमे पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते है । ( म पु./४/१४ )
२. क्षेत्रानुगमका लक्षण ध. १/१,१,७/१०२/१५८ अस्थित्तं पुण मतं अत्थित्तस्स यत्तदेव
परिमाण । पच्चप्पणं खेत्तं अदीद-पदुप्पणाणं फसणं ।१०२५ घ.१/१,१,७/१५६/१णिय-संखा-गुणिदोगाहणखेतं खेत्तं उच्चदे दि ।
-- १. वर्तमान क्षेत्रका प्ररूपण करनेवाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीत स्पर्श और वर्तमान स्पर्शका कथन करनेवाली स्पर्शन प्ररूपणा है। २. अपनी अपनी संख्या गुणित अवगाहनारूप क्षेत्रको ही क्षेत्रानुगम कहते है।
नाम स्थापना
द्रव्य
भाद _ पृ.५/२१/ पृ.७/१३ ।
। । सद्भाव असद्भाव आगम नोआगम आगम नोआगन
ज्ञायक शरीर
भावि तद्व्यतिरिक्त
भावि वर्तमान
अतीति कर्म
नोकर्म
च्युत च्यावित त्यक्त ओपचारिक पारमार्थिक ८. स्वपर क्षेत्रके लक्षण प. का./त.प्र/४३ द्वयोरप्यभिन्नप्रदेशत्वेनै कक्षेत्रत्वात् । - परमार्थ से गुण
और गुणी दोनों का एक क्षेत्र होनेके कारण दोनों अभिन्नप्रदेशी हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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